Monday, March 19, 2012

महाभारत की कथाएँ (२)


देवयानी का हठ


(वैशम्पायन जी ने जनमेजय को देवताओं और असुरों के मध्य युद्धों एवं कच के संजीवनी विद्या सीखने के बारे में बताया। इसी कथा के मध्य उन्होंने देवयानी और शर्मिष्ठा के कलह की कथा भी सुनाई।) महाभारत, आदिपर्व

बहुत दिनों पहले की बात है। उन दिनों देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ करते थे। एक बार उनके बीच बहुत ही भयानक युद्ध हुआ। उस युद्ध में देवताओं ने असुरों को बुरी तरह पराजित कर दिया। सारे असुर मारे गए। तब असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से सभी असुरों को जीवित कर दिया। उस समय असुरों के रजा वृषपर्वा हुआ करते थे। गुरु शुक्राचार्य राजा वृषपर्वा के राज्य में ही रहने लगे। राजा उनका बहुत सम्मान करते थे।

शुक्राचार्य की एक बेटी थी। उसका नाम देवयानी था। असुरराज वृषपर्वा की भी एक बेटी थी। जिसका नाम शर्मिष्ठा था। उन दोनों की उम्र एक जैसी थी। उनके स्वभाव भी एक जैसे थे। दोनों ही उग्र थीं। और परस्पर एक दूसरे से ईर्ष्या करती थीं। उन्हें हमेशा ऐसा प्रतीत होता था कि वे दूसरे की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हैं। इसलिए उनके बीच में मनमुटाव भी आम बात थी।

एक दिन की बात है। देवयानी और शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ किसी घने वन के एक तालाब में नहाने गए। उसी समय स्वर्ग के राजा इन्द्र उस वन से गुजर रहे थे। उन्होंने इन स्त्रियों को नहाते देखा तो उन्हें शरारत सूझी। अपनी माया से हवा बनकर इन्द्र ने उनके कपड़ों को आपस में मिला दिया। वे स्त्रियाँ जब तालाब से बाहर निकलीं, तो उन्हें पता नहीं चला कि किसके कपड़े कौन-से हैं। भूल से शर्मिष्ठा ने देवयानी के कपड़े पहन लिए। जब देवयानी ने यह देखा तो वह गुस्से से आगबबूला हो गई।

अरे असुर की पुत्री, तुमने मेरे कपड़े कैसे पहन लिए? क्या तुम मेरी बराबरी करना चाहती हो?’ देवयानी ने जोर से कहा ताकि सभी सुन लें। दोनों अक्सर एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयत्न में लगी रहती थीं।

वाह री अकड़वाली, तेरे पिता तो प्रजा की तरह मेरे पिता की स्तुति करते हैं और तेरा इतना घमंड !शर्मिष्ठा भी कम नहीं थी।

देख अभी इसी समय मेरे कपड़े उतारकर दे दे। वरना बहुत बुरा होगा।देवयानी उसकी ओर झपटती हुई बोली।

अरे जा बहुत देखी तेरी जैसी। मैं राजकुमारी हूँ। तुझे किसी ने बताया नहीं कि राजा से बड़ा कोई नहीं होता। और सुन अगर मैंने तेरे कपड़े पहन ही लिए तो कोई अनर्थ नहीं हो गया। अगर तूने मेरे कपड़े को छुआ तो देखना।शर्मिष्ठा पैर पटकती हुई बोली।


शर्मिष्ठा का इतना कहना था कि देवयानी गुस्से से तिलमिला उठी। वह शर्मिष्ठा के कपड़े पकड़कर खींचने लगी। और दोनों में हाथापाई हो गई। तब मौका मिलते ही शर्मिष्ठा ने देवयानी को जोर से धक्का दे दिया। बगल में ही एक कुआँ था। देवयानी संभलते-संभलते भी उस कुएँ में जा गिरी। यह देख सारी लड़कियाँ भाग गईं। शर्मिष्ठा भी देवयानी को मरी समझकर वहाँ से भाग गई।

उस कुएँ में पानी नहीं था। इसलिए देवयानी को चोट तो आई, लेकिन उसकी जान बच गई। वह बहुत देर तक उसी कुएँ में बैठी रोती रही। उसी समय उसने निश्चय किया कि वह शर्मिष्ठा से इसका बदला अवश्य लेगी।  

सौभाग्य से उसी समय राजा ययाति शिकार खेलते-खेलते वन में पहुँचे। थकान और प्यास के मारे घोड़े से उतरकर कुएँ के पास गए। कुएँ में झाँका तो उसमें पानी नहीं था, लेकिन एक सुन्दर स्त्री रोती हुई बैठी थी।

राजा ने पूछा - सुन्दरी ! तुम कौन हो? इस कुएँ में क्या रही हो?’

देवयानी ने विनती के स्वर में कहा - मैं महर्षि शुक्राचार्य की पुत्री हूँ। पैर फिसल जाने से कुएँ में गिर गई। मुझे बाहर निकाल दीजिए। आपका बड़ा उपकार होगा।

ययाति ने उसे कुएँ से बाहर निकाल दिया। देवयानी को कुछ खास चोट नहीं थी। थोड़ी देर बातें कर ययाति शिकार पर निकल गए। देवयानी राजा की सुन्दरता पर मोहित हो गई। लेकिन कुछ बोल न सकी। उसने मन ही मन किसी उपयुक्त समय में बात करने का फैसला किया और घर की ओर चल पड़ी। उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ था। घर पहुँचते ही पिता से बोली -पिताजी, मैं अब इस नगर में नहीं रह सकती।

क्यों क्या बात हो गई? मेरी बेटी इतने गुस्से में क्यों है?’ शुक्राचार्य ने देवयानी के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।

शुक्राचार्य देवयानी से बहुत प्यार करते थे। उसकी हर बात मानते थे। इस प्रकार प्यार से पूछने पर देवयानी ने उन्हें पूरी घटना बता दी। शुक्राचार्य को लगा कि पूर्वजन्म के किसी कर्म के कारण ही उसकी पुत्री को दुख झेलना पड़ा होगा। अत: उसे तरह-तरह से समझाने लगे। लेकिन देवयानी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी।

मैं यह सब कुछ नहीं जानती। मुझे उस नगर में नहीं रहना है, जहाँ मेरा और मेरे पिता का अपमान होता हो। अगर आप चलने के लिए राजी नहीं हुए तो मैं अभी इसी समय से खाना-पीना छोड़ दूँगी।देवयानी यह कहकर पैर पटकती हुई घर के अंदर चली गई।

शुक्राचार्य के पास उसकी बात मानने के अलावा और कोई चारा न था। दूसरे ही दिन वे वृषपर्वा की सभा में गए और गुस्से से बोले -राजन् ! ये आपके राज्य कैसा अधर्म हो रहा है?

वृषपर्वा चौंककर बोले – ‘ये आप कैसी बातें कर रहे हैं, मुनिवर? क्या हुआ जिसने आपको इतना क्रोधित कर दिया है?’

शुक्राचार्य ने सारी बातें बताकर कहा – -राजन्, अधर्म के साथ अधिक दिनों तक नहीं रहा जा सकता। पहले तुम लोगों ने बृहस्पति के पुत्र और मेरे शिष्य कच की हत्या का प्रयास किया। अब तुमलोगों ने मेरी ही पुत्री की हत्या का प्रयास किया। अब मैं यहाँ नहीं रह सकता। इसलिए तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ।

असुरराज वृषपर्वा यह सुनकर काँप गए। उनके न रहने पर युद्ध में असुरों की हार निश्चित थी। वे क्षमा माँगते हुए गुरु शुक्राचार्य से रुकने का निवेदन करने लगे। लेकिन शुक्राचार्य नहीं माने। उन्होंने कहा कि जहाँ उनकी बेटी का तिरस्कार हो वहाँ उनका रहना संभव नहीं है।

वृषपर्वा पूरी तरह से निराश हो गए। अंतिम आस लेकर देवयानी के पास गए।

बेटी, तुम जो भी चाहो माँग लो लेकिन यहीं रहो।राजा वृषपर्वा ने अपनी झोली फैलाकर देवयानी से भीख माँगी।

देवयानी इसी अवसर की तलाश में थी। उसने पहले से ही योजना बना राखी थी। वह बोली -राजन् ! शर्मिष्ठा एक सहस्र दासियों के साथ मेरी सेवा करे। मैं जहाँ जाऊँ, वह मेरे पीछे-पीछे चले तो मैं और मेरे पिता आपके राज्य में रुक सकते हैं।

वृषपर्वा खुशी-खुशी तैयार हो गया और उस दिन से शर्मिष्ठा देवयानी की दासी बनकर रहने लगी। देवयानी के मन को बहुत संतोष पहुँचा।

एक दिन देवयानी अपनी दासियों और शर्मिष्ठा के साथ वन में खेलने के लिए गई। राजा ययाति भी उसी वन में घूम रहे थे। इन्हें देखकर परिचय जानने के लिए इनके पास आ गए। देवयानी राजा को देखकर बहुत खुश हुई। वह ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी, जब राजा से अपनी शादी की बात कर सके। उसने कहा - राजन्, याद है आपको एक दिन आपने मेरी जान बचाई थी, जब मैं कुएँ में गिर पड़ी थी। उसी दिन से मैंने आपको अपना पति चुन लिया था। कृपया मुझे स्वीकार कीजिए।

लेकिन मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। तुम एक ब्राह्मण कन्या हो और तुम्हारे पिता क्षत्रिय के साथ विवाह के लिए राजी नहीं होंगे।ययाति ने विनम्रता से कहा।

देवयानी फिर भी हठ करती रही, लेकिन जब राजा ययाति नहीं माने तो वह उन्हें लेकर अपने पिता के पास गई। शुक्राचार्य बेटी के हठ के सामने झुक गए और उन्होंने विवाह की अनुमति दे दी। बड़े धूमधाम से दोनों का विवाह संपन्न हुआ।

विवाह के बाद राजा ययाति देवयानी और शर्मिष्ठा के साथ अपने राज्य लौट गए। देवयानी अन्तःपुर में रही और शर्मिष्ठा के लिए सबसे बड़े बाग में एक घर बनवाया गया। दोनों ही सुख से रहने लगीं। कुछ समय बाद देवयानी के दो पुत्र हुए - यदु और तर्वसु। दोनों ही बालक राज निवास में पलने लगे।

इस बीच एक दिन राजा ययाति बाग में टहलने गए तो शर्मिष्ठा के रूप को देखकर मोहित गए। शर्मिष्ठा भी राजा से प्यार करती थी। उस दिन के बाद दोनों छुप-छुपकर मिलने लगे। कुछ समय बाद शर्मिष्ठा के भी तीन पुत्र हुए - द्रुह्यु, अनु और पुरु।

कई वर्षों के बाद एक दिन देवयानी और ययाति उसी बाग में टहलने निकले, जहाँ शर्मिष्ठा अपने बच्चों के साथ रहती थी। टहलते समय देवयानी ने उन बच्चों को देखा। उन अनजान बच्चों को बाग में देखकर वह हैरान रह गई। वे बहुत ही सुन्दर और बलवान् थे। उनका रंग-रूप राजा ययाति के जैसा था। यह जानने के लिए कि ये कौन हैं, देवयानी ने उन्हें अपने पास बुलाकर पूछा - तुम्हारे माता-पिता कौन हैं?’

बच्चों ने इशारा कर कहा - हमारी माँ का नाम शर्मिष्ठा है।

देवयानी समझ गई कि वे राजा के ही पुत्र हैं। उसी क्षण उसने शर्मिष्ठा को बुरा-भला कहा और गुस्से से राजमहल पहुँची।

राजा को देखते ही वह बोली - आपने मुझे अपना प्रिय नहीं माना और मेरी दासी को पत्नी के रूप में स्वीकार किया। यह आपने अच्छा नहीं किया। यह मेरा घोर अपमान है, अत: अब मैं यहाँ नहीं रह सकती। मैं अपने पिता के पास जा रही हूँ।

यह कहकर देवयानी अपने पिता के पास चली आई। ययाति भी उसे मनाते हुए पहुँच गए। शुक्राचार्य ने जब यह सुना कि राजा ने देवयानी के साथ अन्याय किया है तो वे गुस्से से पागल हो गए। उन्होंने राजा को शाप दे दिया कि वह बूढ़ा हो जाए। उनके शाप देते ही राजा बूढ़े हो गये। इस घटना से राजा बहुत लज्जित हुए। उन्होंने गुरु शुक्राचार्य से क्षमा माँगी और शाप वापस लेने का आग्रह किया।

शुक्राचार्य ने कहा - मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। लेकिन तुमने क्षमा माँगी है तो तुम्हें इतनी छूट देता हूँ कि तुम अपना बुढ़ापा किसी दूसरे को दे सकते हो।

राजा ने देवयानी से भी क्षमा माँगी और उसे लेकर राजमहल आ गए। दूसरे ही दिन उन्होंने अपने सभी पुत्रों को अलग-अलग बुलाकर कहा - तुम मेरे बेटे हो। अपने पिता की बात मानकर मेरा बुढ़ापा ले लो और अपना यौवन मुझे दे दो।

लेकिन उनके चार बेटों ने उनकी नहीं सुनी। केवल पुरु ही ऐसा था, जो अपने पिता की बात मानने के लिए राजी हुआ। राजा ने पुरु को अपना बुढ़ापा देकर उसका यौवन ले लिया।

समय बीतता गया। कई वर्षों तक राजा ययाति पुरु के दिए हुए यौवन से राज्य करते रहे और सुख भोगते रहे। एक दिन उन्होंने पुरु को बुलाकर उसे उसका यौवन लौटा दिया और उसे राजा बनाने की घोषणा कर दी। देवयानी के साथ सारी प्रजा हाहाकार कर उठी कि बड़े बेटे यदु के होते सबसे छोटे बेटे पुरु को राजा बनाना नियम के विरुद्ध था।

तब ययाति ने कहा - जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा नहीं मानता वह पुत्र कहलाने योग्य नहीं है। पुत्र वही है, जो अपने माता-पिता की आज्ञा माने, उनका हित करे और उन्हें सुख दे। पुरु ने मेरी आज्ञा मानी और अपना यौवन तक मुझे दे दिया। इसलिए वही मेरा उचित उत्तराधिकारी है।

प्रजा ने राजा की बात समझकर उनकी बात मान ली। शर्मिष्ठा का सिर गर्व से ऊँचा हो गया।
विश्वजीत 'सपन'

4 comments:

  1. पाठ में रोचकता एवं सरलता उल्लेखनीय है. बाकी तो महाभारत को छूना अपने आप में ही बड़ी हिम्मत का काम है. बधाई एवं शुभकामनाएँ.

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आत्माराम जी.

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  2. Koti Koti Dhanyawaad Vishwajeetji . Katha ki maulikta dhyan me rakhkar uske sahaj prakashan k liye :)

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