Wednesday, October 2, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 91)

महाभारत की कथा की 116 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।


(शान्तिपर्व)
अध्यात्म ज्ञान एवं उसके साधन

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    जीवन में ज्ञान एवं कर्म के अंतर समझ लेने के बाद शुकदेव जी ने अपने पिता व्यास जी से कहा - ‘‘पिताजी, सत्य है कि कर्म एवं ज्ञान में कोई विरोध नहीं है। एक बार संन्यासी के जीवन में प्रवेश करने पर अध्यात्म ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहिये। यह क्या है और इसके साधन क्या हैं?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश - ये पंचमहाभूत सभी प्राणियों के शरीर में स्थित हैं। ये सर्वत्र एक-से हैं, किन्तु समस्त प्राणियों में भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं। असल में यह समस्त चराचर जगत् पंचभूतमय ही है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने प्राणियों के कर्मों के अनुसार न्यूनाधिक रूप में उनमें सन्निवेश किया है। इसी पंचभूतों से सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है एवं इसी में उनका लय भी होता है।’’


    शुकदेव जी ने कहा - ‘‘जी पिताजी। शरीर के अवयवों में जो न्यूनाधिक रूप में इन पंचमहाभूतों का सन्निवेश हुआ है, उसकी पहचान कैसे होती है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘उनके गुणों के कारण। श्रवण, शब्द, श्रोतेन्द्रिय एवं शरीर के समस्त छिद्र आकाश से उत्पन्न हुए हैं। प्राण, चेष्टा एवं स्पर्श की उत्पत्ति वायु से हुई है। रूप, नेत्र एवं जठरानल की उत्पत्ति अग्नि से हुई है। रस, रसना एवं स्नेह की उत्पत्ति जल से हुई है तथा गन्ध, नासिका एवं शरीर की उत्पत्ति भूमि से हुई है। इस प्रकार शब्द आकाश का, स्पर्श वायु का, रूप तेज का, रस जल का एवं गन्ध भूमि का कार्य हैं। जिनमें जिन-जिन गुणों का संन्निवेश जितना होगा, उनमें वे-वे गुण प्रखर होंगे।’’


    शुकदेव जी ने कहा - ‘‘शरीर में इन्द्रियाँ भी हैं और गुण भी। इनके कार्यों एवं ज्ञान के बारे में मुझे विस्तार से बताइये।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, बुद्धि ही समस्त गुणों को धारण करती है और मनसहित समस्त इन्द्रियाँ भी बुद्धिरूप ही हैं। मनुष्य के शरीर में पाँच इन्द्रियाँ हैं, छठा मन है एवं सातवीं तत्त्वबुद्धि है और आठवाँ क्षेत्रज्ञ है। इसे इस प्रकार समझो कि नेत्र देखने का कार्य करती हैं, मन संदेह करता है तथा बुद्धि उसका निश्चय करती है, किन्तु क्षेत्रज्ञ सबका साक्षी कहलाता है। सत्त्व, रज एवं तम - ये तीनों ही गुण मन से उत्पन्न हुए हैं। इनकी पहचान मनुष्य के अपने कर्मों के कारण ही होती है। हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता एवं स्वस्थचित्त का विकास हो, तो सत्त्वगुण की वृद्धि समझनी चाहिये। यदि अभिमान, असत्य-भाषण, लोभ, मोह एवं असहनशीलता का विकास हो, तो ये रजोगुण के चिह्न होते हैं। मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य एवं अज्ञान का विकास हो, तो ये तमोगुण के चिह्न होते हैं।’’


    शुकदेवजी ने कहा - ‘‘जी पिताजी, कर्मों में हमारी प्रवृत्ति किस प्रकार होती है।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, इसे इस प्रकार समझो कि मन में नाना प्रकार के भाव उठते हैं, उसके उपरान्त बुद्धि उस पर निर्णय लेती है एवं उसके बाद हृदय उनकी अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता पर विचार करता है। इसके उपरान्त ही कर्म में प्रवृत्ति होती है।’’ 


शुकदेव जी ने पूछा - ‘‘फिर इन्द्रिय किसे कहते हैं?’’


व्यास जी ने कहा - ‘‘भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण करने के लिये बुद्धि ही विकृत होकर नाना प्रकार के रूप धारण करती है। वही जब सुनती है, तो श्रोत्र कहलाती है, स्पर्श करते समय स्पर्श, देखते समय दृष्टि, रसास्वादन करते समय रसना एवं गन्ध ग्रहण करते समय घ्राण कहलाती है। इस प्रकार बुद्धि के इन विकारों को ही इन्द्रिय कहते हैं। जब कोई मनुष्य किसी बात की अथवा वस्तु की इच्छा करता है, तब उसकी बुद्धि मन के रूप में परिणत हो जाती है। इसी कारण कहा गया है कि एक मनुष्य को अपने मन को वश में रखना चाहिये।’’
शुकदेव जी ने कहा - ‘‘इसका अर्थ है कि गुण प्रधान है और उसके अनुसार ही मन में विकार उत्पन्न होते हैं। इन गुणों की सृष्टि कौन करता है?’’


व्यास जी ने कहा - ‘‘इसे इस प्रकार समझो कि गुण आत्मा को नहीं समझते, किन्तु आत्मा उन्हें सदा जानता है। इसका कारण यह है कि आत्मा ही गुणों का द्रष्टा है। यही गुण एवं आत्मा में अन्तर है। गुणों की सृष्टि प्रकृति करती है, क्योंकि आत्मा तो उदासीन है, वह पूर्णतः पृथक होकर उन्हें देखता रहता है।’’


शुकदेव जी ने कहा - ‘‘पिताजी, किस ज्ञान से मोक्ष संभव है?’’


व्यास जी ने कहा - ‘‘इस सन्दर्भ में दो प्रकार के मत हैं, उन्हें सुनो। एक मत है कि तत्त्वज्ञान से जब गुणों का नाश कर दिया जाता है, तब वे पुनः उत्पन्न नहीं होते। उनका कोई चिह्न दिखाई नहीं देता और इसी कारण वे भ्रम या अविद्या के निवारण को ही मुक्ति मानते हैं। दूसरा मत यह है कि त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है। इन दोनों मतों पर अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके किसी एक सिद्धान्त का निश्चय करना चाहिये। उसके उपरान्त उसे महत्स्वरूप में स्थित हो जाना चाहिये। इस बात का ध्यान रखना अत्यावश्यक है कि आत्मा आदि-अन्त से रहित है।’’



विश्वजीत ‘सपन’


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