Sunday, April 12, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 99)


महाभारत की कथा की 124 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

पराशर गीता
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(राजा जनक एवं पराशर मुनि के मध्य हुए सम्वाद को पराशर गीता कहा जाता है। यह सम्वाद जीवन-दर्शन है।)

एक बार राजा जनक ने पराशर मुनि से पूछा - ‘‘मुनिवर, कौन-सा कर्म सम्पूर्ण प्राणियों के लिये इस लोक तथा परलोक में भी कल्याणकारी है?’’


पराशर मुनि ने कहा - ‘‘धर्म का आचरण ही इस लोक एवं परलोक में कल्याणकारी है। मनुष्य नेत्र, मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा चार प्रकार के कर्म करते हैं। जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। इन्द्रिय संयम, क्षमा, धैर्य, तेज, संतोष, सत्यभाषण, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसन का अभाव एवं चतुरता - ये सभी गुण सुख देने वाले हैं। निन्दा कभी नहीं करनी चाहिये। जान-बूझकर किया गया पाप अक्षम्य होता है। अनजाने में किये पाप का प्रायश्चित्त संभव है। तब अहिंसाव्रत का पालन करना चाहिये। गुणों में ही अनुराग करना चाहिये, दोषों में नहीं। ब्राह्मण को प्रतिग्रह से मिला हुआ, क्षत्रिय को युद्ध द्वारा प्राप्त, वैश्य को खेती आदि से प्राप्त तथा शूद्र को सेवा से प्राप्त थोड़ा धन ही उत्तम माना गया है। उस धन का यदि धर्म कार्य में उपयोग किया जाये, तो वह महान् फलदायक होता है। जब धर्म का बल असुरों को नहीं देखा गया, तो वे प्रजा में व्याप्त हो गये। तब दर्प का प्रादुर्भाव हुआ। उसके बाद क्रोध उत्पन्न हुआ। तब सदाचार का लोप हुआ एवं मोह की उत्पत्ति हुई। यहीं से अराजकता उत्पन्न हुई। तब समस्त असुरों को मारकर भगवान् शंकर ने पुनः धर्म की स्थापना की। धर्म का पालन ही श्रेष्ठ है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘भगवन्, आप मुझे वर्णों के विशेष धर्म बतलाइये।’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘दान लेना, यज्ञ कराना एवं विद्या पढ़ाना ब्राह्मण के विशेष धर्म हैं। प्रजा की रक्षा करना क्षत्रिय के लिये उत्तम है। खेती, गौ रक्षा तथा व्यापार वैश्य हेतु कहा गया है। द्विजातियों की सेवा करना शूद्र का धर्म है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘अब सामान्य धर्मों का भी वर्णन करें आदरणीय।’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘दया, अहिंसा, सावधानी, दान, श्राद्धकर्म, सत्य, अक्रोध, अतिथि सत्कार, अपनी पत्नी से संतुष्ट रहना, किसी का दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता सामान्य धर्म हैं। चारों वर्णों को इन सामान्य धर्मों का पालन करना चाहिये। हीन व्यक्ति भी सदाचार का पालन करते हुए अपने धर्म का आचरण करे, तो उसे उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘मुनिवर, मेरे मन में संदेह है कि मनुष्य अपने कर्म से दोष का भागी होता है अथवा अपनी जाति से?’’


पराशर मुनि ने कहा - ‘‘इसमें संदेह नहीं कि कर्म एवं जाति दोनों ही दोषकारक होते हैं। जाति तथा कर्म से किसी का भी आश्रय लेकर बुरा कर्म नहीं करना चाहिये। जाति से दूषित होकर भी कोई पाप कर्म नहीं करता तो वह दोषी नहीं होता। उत्तम जाति वाला भी निन्दित कर्म करे, तो वह दूषित होता है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘महामुने, इस संसार में कौन-कौन-से ऐसे धर्मानुकूल कर्म हैं, जिनसे कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं होती?’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘अग्निहोत्र का त्याग कर जो संन्यास धारण करते हैं, उनका कल्याण होता है। हिंसा प्रधान कर्मों का त्याग एवं सत्यभाषण ही उत्तम कर्म है। पिता, गुरु, मित्र तथा धर्मपत्नी से सदा प्रेम रखना चाहिये। मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञान है। वैदिक प्रमाणों पर विचार कर धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। समस्त प्राणियों को स्नेहभरी दृष्टि से देखना चाहिये। दान, त्याग, शान्त भाव से तपस्या करनी चाहिये। अपनी शक्ति के अनुसार इष्टि, पुष्टि (शान्तिकर्म), यजन, याजन, श्राद्ध एवं पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, श्रेय का साधन क्या है?’’


मुनि ने कहा - ‘‘आसक्ति का अभाव एवं ज्ञान - ये दोनों ही श्रेय के मूल में हैं। अधर्म ज्ञानी पुरुष को लिप्त नहीं कर सकता। धर्म करने का कोई समय नियत नहीं है। जब तक मृत्यु नहीं आ जाती, तब तक इसे करते रहना चाहिये।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘उत्तम गति कौन-सी है?’’


मुनि ने कहा - ‘‘ज्ञान से प्राप्त होने वाली गति ही सबसे उत्तम गति है। जो अधर्ममय बन्धन का उच्छेद कर धर्म में अनुरक्त होता है तथा समस्त प्राणियों को अभयदान देता है, उसे उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। जैसे अंधा प्रतिदिन अभ्यास से घर के बाहर निकल पुनः घर लौट आता है, ठीक उसी प्रकार योगयुक्त चित्त के द्वारा उस परम गति को प्राप्त कर लेता है। जन्म में मृत्यु एवं मृत्यु में जन्म निहित है। अतः मोक्ष धर्म ही श्रेष्ठ है। जब वह मन को योगयुक्त (आत्मा में लीन) करता है, तब उसे परमात्मा का साक्षात्कार होने लगता है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘कौन-सा कर्म नष्ट नहीं होता?’’


मुनि ने कहा - ‘‘स्वयं किया हुआ तप तथा सुपात्र को दिया हुआ दान - ये कभी नष्ट नहीं होते।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘कहाँ जाने पर पुनः यहाँ लौटना नहीं पड़ता?’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘आसक्ति को त्याग कर जब योगी मुक्त हो जाता है। तब उसे वापस आना नहीं पड़ता। जैसे समुद्र में सब ओर से अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं, उसी प्रकार मन योग के वशीभूत होकर मूल प्रकृति में लीन हो जाता है। तब उसका आवागमन सदा के लिये रुक जाता है।’’ 


जीवन को समझने के लिये पराशर गीता का बड़ा महत्त्व है। इस ज्ञान का अनुपालन करने वाला न केवल सुखी होता है, बल्कि मोक्ष का भी भागी बनता है। 


विश्वजीत 'सपन'  

1 comment:

  1. जाति से दोषी और वर्ण से दोषी क्या एक ही होते अं, यह मुझे स्पष्ट नही हुआ, अगर इस पर प्रकाश दाल सकते हैं, बहुत ही गूढ़ विषय है, समझना आसान नहीं |

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