Friday, January 11, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 66)




महाभारत की कथा की 91 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।  

विरोध से किसी का भला नहीं होता
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    यह एक प्राचीन इतिहास है। पूर्वकाल में एक समय था, जब धरती पर राजा पुरूरवा का राज्य था। वे बड़े धर्मज्ञ एवं नीतिपरायण राजा थे। जब भी उन्हें कोई शंका होती थी, तब वे महर्षि कश्यप के पास जाकर उसका समाधान किया करते थे। एक बार ऐसी ही शंकायें लेकर वे कश्यप के पास गये। कश्यप ने उनका आश्रम में स्वागत किया और बोले - ‘‘कहिये राजन्! आप किस प्रयोजन से मेरे आश्रम में पधारे हैं? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’’


    पुरूरवा ने कहा - ‘‘मुनिवर! जब ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों एक-दूसरे का परित्याग कर दें, तो दूसरे वर्ण के लोग किसे प्रधान समझें और प्रजा को किसका पक्ष लेना चाहिये? कृपया मेरी इस शंका का समाधान करें।’’


    कश्यप ने कहा - ‘‘राजन्! ब्राह्मण एवं क्षत्रिय में विरोध उचित नहीं। जहाँ क्षत्रिय ब्राह्मण का विरोध करते हैं, वहाँ क्षत्रिय का राज्य नष्ट हो जाता है। उन क्षत्रियों की वृद्धि रुक जाती है। तब क्षत्रिय न यज्ञ कर पाते हैं और न ही वेदाध्ययन। उनका विकास पूरी तरह से रुक जाता है। वे तब अमंगल करने लगते हैं एवं धर्म से विलग हो जाते हैं।’’
    पुरूरवा ने कहा - ‘‘उचित है, मुनिवर। यदि ब्राह्मण क्षत्रिय का विरोध करे, तो क्या होता है?’’


    कश्यप ने कहा - ‘‘राजन्! तब ब्राह्मण की रक्षा नहीं होती। उन्हें भय का जीवन बिताना पड़ता है। उन्हें दान-उपहार नहीं मिलता, तो जीवकोपार्जन उनके लिये कठिन हो जाता है, अतः दोनों को मिलकर रहना चाहिये। ब्राह्मण की उन्नति का आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रिय के अभ्युदय का आधार ब्राह्मण। दोनों जातियाँ एक-दूसरे पर आश्रित हैं, यदि इनकी प्राचीन काल से चली आ रही मित्रता टूट जाती है, तो विनाश प्रारंभ हो जाता है। चारों वर्णों की प्रजा पर मोह छा जाता है। प्रजा अपने मार्ग से भटक जाती है।’’


    पुरूरवा ने कहा - ‘‘क्या ब्राह्मणों को छोड़ देना पापकर्म के समान है?’’


    कश्यप ने कहा - ‘‘महाराज, इसे इस प्रकार समझें। ब्राह्मणरूपी वृक्ष सुख एवं सुवर्ण की वर्षा करता है। यदि उसकी रक्षा न की गयी, तो इससे निरन्तर दुःख एवं पाप की वृद्धि होती है। तब क्षत्रिय न चाहते हुए भी पापियों के संसर्ग में आ जाते हैं। तब उनसे पापकर्म होने लगता है, जिस कारण वे वर्षों तक कष्ट भोगते हुए दौड़ते फिरते हैं। वहीं ब्राह्मण जैसे पुण्यात्माओं के संसर्ग से वे सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को पुण्य लोक की प्राप्ति होती है। जहाँ घी के दिये जलते हैं। अतः ब्राह्मणों का सम्मान करना समाज के हित में होता है।’’


    पुरूरवा ने पूछा - ‘‘उचित कहा आपने गुरुवर। इस संदर्भ में एक राजा का क्या कर्तव्य होना चाहिये?’’


    कश्यप ने उन्हें समझाया - ‘‘राजा को एक बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि विद्वान्, ज्ञानी, तपस्वी ब्राह्मणों का कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये। ऐसा होने से राजा को हानि होती है। प्रजा को असह्य दुःख उठाना पड़ता है। एक राजा को चाहिये कि वह एक बहुज्ञ पुरोहित अवश्य बनाये। राज्याभिषेक होने के पूर्व ही एक योग्य पुरोहित का वरण कर लेना चाहिये। इसका कारण यही है कि धर्म के अनुसार ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है। वेदवत्ता विद्वानों का कहना है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण का जन्म हुआ था, अतः वे सभी वर्णों में ज्येष्ठ, सम्माननीय तथा पूजनीय होते हैं। बलवान् होते हुए भी राजा का कर्तव्य है कि वह धर्मानुसार सभी उत्तम वस्तुओं का निवेदन ब्राह्मण से करे। इस बात में संदेह नहीं कि ब्राह्मण क्षत्रिय को उन्नतिशील बनाते हैं एवं क्षत्रिय ब्राह्मण की उन्नति में कारण होते हैं। राजा का कर्तव्य यही है कि वह सदा ही ब्राह्मण का विशेष सम्मान करे।’’


    पुरूरवा ने सम्मान से महर्षि कश्यप को प्रणाम किया तो कश्यप ने पुनः कहा - ‘‘राजन्! धर्म एवं अर्थ को समझना कठिन होता है, अतः एक राजा को सत्परामर्श के लिये एक बहुज्ञ पुरोहित अवश्य रखना चाहिये। जिस देश में राजा एवं पुरोहित धर्मज्ञ तथा राजनीति के गूढ़ रहस्य को समझने वाले होते हैं, उस राज्य का एवं उसकी प्रजा का भला होता है। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय में परस्पर सद्भाव होता है, तो प्रजा को सुख मिलता है। यदि उनमें वैमनस्य होता है, तो उस राज्य एवं उसकी प्रजा का निश्चित ही नाश होता है।’’


    पुरूरवा को समाधान मिल गया था। महर्षि कश्यप के बताये मार्ग पर चलते हुए एवं धर्म का पालन करते हुए उन्होंने अनेक वर्षों तक धरती पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा सुखी रही एवं भयरहित रही।


    जीवन में परस्पर मिलकर रहने से ही जीवन सुखमय एवं शान्तिमय रहता है। विरोध से कभी किसी का भला नहीं होता। यह मूलमंत्र ही इस कथा का उद्देश्य है।


विश्वजीत 'सपन'

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