Thursday, March 14, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 72)




महाभारत की कथा की 97 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

जीवन क्या है?

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एक प्रचीन इतिहास है। किसी स्वाध्यायशील ब्राह्मण का मेधावी नामक एक पुत्र था। मेधावी अपने नाम के गुणों वाला था। वह धर्म, अर्थ एवं मोक्ष को भली-भाँति जानने-समझने वाला था। एक दिन की बात है। उसने अपने पिता से कहा - ‘‘पिताजी, मनुष्य की आयु बड़ी तेजी से बीतती जा रही है। उसके पास कम समय होता है। ऐसे में उसे धर्माचरण के लिये क्या करना चाहिये?’’


    पिता ने समझाते हुए कहा - ‘‘बेटा, मनुष्य को चारों आश्रमों का पालन करना चाहिये। सर्वप्रथम उसे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना चाहिये, उसके उपरान्त गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अपने पितरों की सद्गति के लिये पुत्र उत्पन्न करना चाहिये, फिर यज्ञादि करना चाहिए। कुछ समय बाद उसे वानप्रस्थ आश्रम का पालन करना चाहिये तथा अंत में संन्यास ग्रहण कर वन-गमन करना चाहिये। यही जगत का नियम है एवं शास्त्रों के अनुसार जीवन यापन करने का मूल सिद्धान्त हैं।’’


    मेधावी इस अनित्य जगत् को सत्य नहीं मानता था। उसने पूछा - ‘‘पिताजी, आपकी बात शास्त्रों के अनुसार उचित है, किन्तु मुझे तो यह लोक बड़ा ही ताड़ित तथा सब ओर से घिरा हुआ प्रतीत होता है। इसमें अमोघ वस्तुओं का पतन हो रहा है। इस प्रकार की बातों से जीवन-यापन कैसे किया जा सकता है?’’


    पुत्र की बात सुनकर पिता को आश्चर्य भी हुआ एवं गर्व भी। पिता ने कहा - ‘‘पुत्र, तुमको यह लोक ताड़ित कैसे लग रहा है?’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘पिताजी, मृत्यु को देखिये वह किसी को नहीं छोड़ती। प्रत्येक रात्रि के बीतने पर आयु क्षीण हो रही है। मेरे अथवा आपके कहने पर भी मृत्यु नहीं रुक सकती। हम निरन्तर भोगों के संग्रह में लगे रहते हैं, किन्तु मृत्यु हमें उठाकर ले जाती है। बुढ़ापा सबको आना ही है। अमोघ रात्रियाँ नित्य ही आती हैं एवं चली जाती हैं। पिताजी, इस जगत में मृत्यु, जरा, व्याधि तथा अनेक प्रकार होने वाले दुःखों का ताँता लगा ही रहता है, तो यह लोक इतना अधिक ताड़ित है। यह जीवन की विधि नहीं हो सकती। हम तो सब ओर से घिरे हुए लगते हैं।’’


    पिता ने पूछा - ‘‘और ऐसा क्या है, जो हमें सब ओर से घेरे हुए हैं? इनमें कौन-कौन-सी अमोघ वस्तुओं के पतन हो रहे हैं? इसे थोड़ा विस्तार से बताओ।’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘पिताजी, मनुष्य मोह में घिरा रहता है। उसे भोग की इच्छा घेरे रहती है। उसके पास पुत्र एवं पशुओं की अधिकता होती है तथा उन्हीं में उसका मन आसक्त रहता है। अनेक प्रकार की वस्तुओं की लालसा उसे पूर्णतः घेरे रहती है। स्त्री एवं पुत्रों में आसक्ति तो जीव को बाँधने वाली रस्सी के समान ही है। मात्र पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे काट नहीं सकते। यह संसार जैसा दिखाई देता है, वैसा कदापि नहीं है।’’


    पिता ने पुत्र की बात को समझकर पूछा - ‘‘तुम्हारी बात उचित है पुत्र, किन्तु तब एक मनुष्य को क्या करना चाहिये? उसे किस प्रकार का जीवन जीना चाहिये? शास्त्रगत जीवन ही तो उचित होना चाहिये।’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘सत्य ही जीवन का आधार होना चाहिये। मनुष्य को सत्ययोग में तत्पर रहना चाहिये, क्योंकि सत्य में ही अमृततत्त्व है। उसे अपनी इन्द्रियों का दमन करना चाहिये। अमृत एवं मृत्यु दोनों ही एक शरीर में विद्यमान होते हैं। मोह से मृत्यु प्राप्त होती है, जबकि सत्य से अमरत्व प्राप्त होता है। हमें हमेशा ही सत्य की खोज करनी चाहिये। हिंसा से दूर रहना चाहिये। काम एवं क्रोध को मन से निकाल देना चाहिये। सुख-दुःख में समान रहना चाहिये। जिसमें दूसरों को सुख मिले, ऐसा आचरण करना चाहिये, तब वह मृत्यु के भय से मुक्त हो सकता है। यह भय से मुक्ति ही समस्त प्रकार के अज्ञान के अंधकार को दूर कर देता है। यही जीवन का मूल आधार है।’’


    पिता ने कहा - ‘‘यह सब जानते हुए भी मनुष्य ऐसा आचरण क्यों नहीं करता?’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘पिताजी, यह सब अज्ञानता के कारण होता है। ज्ञान के समान कोई नेत्र नहीं एवं सत्य के समान कोई तप नहीं। राग के समान कोई दुःख नहीं एवं त्याग के समान कोई सुख नहीं। सत्य तो यही है कि एक ब्राह्मण के लिये एकान्तवास, समता, सत्य-भाषण, सदाचार, अहिंसा, सरलता तथा सब प्रकार के काम्य कर्मों से निवृत्ति से बढ़कर कोई धन नहीं होता। ऐसे में किसी अन्य प्रकार के धन की प्रवृत्त होना ही अनुचित है।


    एक बार सोचिये। कल जो थे, आज नहीं हैं। आज जो हैं, वे कल नहीं रहेंगे। फिर धन, स्वजन, स्त्री, पुत्र आदि से हमें क्या लेना-देना? हमें तो अपने अन्तःकरण में स्थित आत्मा को खोजना चाहिये। यही एक ब्राह्मण एवं किसी भी मनुष्य का ध्येय होना चाहिये।’’ 


    इस प्रकार मेधावी ने अपने पिता को बताया कि वास्तविक जीवन क्या है तथा हमें किस प्रकार का जीवन जीना चाहिये। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जीवन को समझे तथा सत्य की खोज करते हुए जीवन को उचित मार्ग पर लेकर चले, ताकि मृत्यु जैसे सत्य का भय दूर हो सके एवं जीवन का सुख प्राप्त हो सके। मनुष्य जीवन ईश्वर का वरदान है। इसे ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिये।


विश्वजीत 'सपन'

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