Sunday, May 12, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 79)


महाभारत की कथा की 104 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।  

चार वर्णों की उत्पत्ति

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प्राचीन काल की बात है। महर्षि भृगु कैलास शिखर पर बैठे हुए थे। भरद्वाज मुनि ने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिये उनसे पूछा - ‘‘मुनिवर, मुझे यह बताइये कि चारों वर्णों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई? इसकी रचना किसने की?’’


भृगु मुनि ने कहा - ‘‘समस्त सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने की है। उन्होंने सृष्टि के आरंभ में अपने तेज से सूर्य एवं अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले ब्राह्मण आदि प्रजापतियों को उत्पन्न किया। उसके बाद स्वर्ग-प्राप्ति के साधनभूत सत्य, धर्म, तप, सनातन वेद, आचार, शौच आदि के नियम बनाये। तदनन्तर देवता, दानव, गन्धर्व, सर्प, यक्ष, पिशाच आदि सहित मनुष्यों को उत्पन्न किया। उसके बाद उन्होंने मनुष्यों के चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का विभाग किया। सभी प्रकार के प्राणियों में जो-जो वर्ण हैं, उनकी भी रचना की। ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला तथा शूद्रों का काला बनाया।’’


भरद्वाज मुनि की उत्सुकता बनी रही। उन्होंने पूछा - ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ, इस चराचर जगत् में सभी मनुष्यों को समान रूप से दुःख-सुख, भूख, थकावट आदि का प्रभाव पड़ता है। सभी के शरीर से मल-मूत्र, स्वेद, रक्त आदि निकलते हैं, तो इन्हें रंगों के आधार पर विभाजित कैसे किया गया?’’


तब भृगु जी ने इस प्रकार कहा - ‘‘मुनिवर, सत्य तो यही है कि ब्रह्मा जी ने वर्णों में कोई अंतर पूर्व में नहीं किया था। तब सभी ब्राह्मण ही थे, क्योंकि वे ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए थे। कालान्तर में विभिन्न कर्मों के कारण उसमें वर्णभेद हो गया। जिन लोगों ने ब्राह्मणोचित धर्म का त्याग कर दिया, विषयभोग के प्रेमी बन गये, क्रोधी एवं तीखे होकर वीरता का कार्य करने लगे, तो उनके रंग लाल हो गये, ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय कहलाये। जिन लोगों ने गोऔ की सेवा ही अपनी वृत्ति बना ली एवं खेती को जीविका बनाकर रहने लगे, तो वे पीले पड़ गये एवं ऐसे द्विजों को वैश्य कहा गया। जो लोग शौच एवं सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा एवं असत्य के प्रेमी बन गये तथा लोभवश सब प्रकार का काम करने लगे, तो ऐसे ब्राह्मण-धर्म से च्युत द्विज शूद्र कहलाये। इस प्रकार अपने-अपने स्वभावों, अपनी वृत्तियों के कारण ब्राह्मण धर्म को त्यागने के कारण ये चार वर्ण बन गये हैं।’’


भरद्वाज मुनि ने पूछा - ‘‘विप्रवर, अब मुझे यह बतलाइये कि कौन-सा काम करने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र होता है?’’


भृगु ऋषि ने कहा - ‘‘जो वेदोक्त संस्कारों से सम्पन्न, स्वाध्याय में संलग्न एवं यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान-प्रतिग्रह इन छः कर्मों में स्थित रहते हैं, सत्य-मार्ग का पालन करते हैं, गुरुओं के प्रति श्रद्धा रखते हैं, सबके प्रति कोमल भाव रखतें हैं, जिनमें दया, तप आदि के सद्गुण मिलते हैं, वे ही ब्राह्मण होते हैं। जो वीरोचित कार्य करता है, वेदाध्ययन करता है, युद्ध करता है, ब्राह्मणों को दान करता है, प्रजा की रक्षा करता है, वह क्षत्रिय होता है। जो वेदाध्ययन करते हुए, व्यापार, पशु-पालन तथा खेती आदि का कार्य करता हुआ दान आदि करता है, वह वैश्य होता है। जो वेद एवं सदाचार का त्याग कर सब कुछ खाता है, सब तरह के काम करता हुआ अपवित्र रहता है, वह शूद्र होता है।’’


भरद्वाज ने पूछा - ‘‘मुने, तो क्या वर्णों का आधार उनके कर्म हैं, जन्म नहीं।’’


भृगु मुनि ने कहा - ‘‘आपने उचित कहा विप्रवर। यदि किसी शूद्र में ब्राह्मणोचित सद्गुण दिखाई दें, तो वह शूद्र नहीं रहता। ठीक उसी प्रकार यदि किसी ब्राह्मण में ब्राह्मण गुण न हो, तो वह ब्राह्मण नहीं होता। सर्वदा शौच एवं सदाचार का पालन करना तथा सम्पूर्ण प्राणियों पर दया रखना ब्राह्मण का लक्षण होता है। जो जिस गुण को धारण करता है, वह उसी वर्ण का बन जाता है।’’


भरद्वाज मुनि ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर, इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मण श्रेष्ठ है और उसके गुणों की ओर सभी को तत्पर होना चाहिये।’’


भृगु ने कहा - ‘‘सत्य-वचन मुने। जो सृष्टि को ब्रह्मस्वरूप नहीं जानते, वे द्विज कहलाने के अधिकारी नहीं होते। ऐसे लोगों को नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेना पड़ता है। अतः ब्राह्मण अग्रज होने से सर्वश्रेष्ठ हैं। ये आदिदेव ब्रह्मा से उत्पन्न हुए हैं एवं इनके मूल में ब्रह्मा जी ही हैं। इसके बाद भी ये अपने सद्गुणों के कारण ही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी होते हैं। ब्राह्मण संसार से परवैराग्य होने के कारण परब्रह्म परमात्मा को अनायास ही प्राप्त कर लेता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘अन्य लोगों को परब्रह्म-प्राप्ति हेतु क्या करना चाहिये। मुझे सविस्तार बतायें मुनिवर।’’


भृगु ने कहा - ‘‘लोभ एवं क्रोध को दबाना ही पवित्र ज्ञान एवं आत्म-संयम है। किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये, सबके साथ मैत्री का व्यवहार करना चाहिये, स्त्री-पुत्र आदि की ममता का त्याग कर बुद्धि द्वारा इन्द्रियों को वश में करना चाहिये, इस प्रकार वह उस स्थिति को प्राप्त करे, जिससे इहलोक एवं परलोक में निर्भय तथा शोकरहित हो। नित्य तप करने, अनासक्त रहने तथा मन को प्राण में तथा प्राण को ब्रह्म में स्थापित करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है तथा परब्रह्म से साक्षात्कार होता है।’’


इस प्रकार भृगु मुनि ने भरद्वाज की जिज्ञासाओं को शान्त किया एवं जगत् के चार वर्णों के विभेद की विवेचना की। सभी मनुष्य ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण एक समान ही हैं, किन्तु उनके कर्म उन्हें पृथक वर्ण का बना देते हैं।


विश्वजीत 'सपन'

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