Saturday, June 29, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 82)


महाभारत की कथा की 107 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 


काल की महिमा
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    देवासुर संग्राम में दैत्यों का संहार हो चुका था। वामनरूपधारी श्रीविष्णु ने अपने पैरों से तीनों लोकों को नाप कर अपने अधिकार में ले लिया था। देवराज इन्द्र प्रसन्न थे। उस समय देवताओं के लिये अति प्रसन्नता की बात थी। एक दिन की बात है। इन्द्र ने निश्चय किया कि वे तीनों लोकों का भ्रमण करेंगे। अश्विनी कुमार, ऋषि, गन्धर्वों आदि के साथ अपने वाहन ऐरावत पर बैठकर वे निकल पड़े। घूमते-घूमते समुद्र तट पर जा पहुँचे। वहीं एक गुफा में दैत्यराज बलि बैठे हुए थे। उन पर दृष्टि पड़ते ही इन्द्र अपना वज्र लिये उनके पास पहुँच गये।


    दैत्यराज बलि ने उन्हें देखा, किन्तु उन्हें किसी भी प्रकार का न भय हुआ न ही शोक। वे निर्विकार बैठे रहे। इन्द्र को विस्मय हुआ कि उसके प्रताप को देखकर भी दैत्यराज को न क्रोध आया और न ही किसी प्रकार का भय। उन्होंने पूछा - ‘‘तुम पहले बाप-दादाओं के राज्य पर बैठकर सबके महाराज बने हुए थे और अब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम्हें यह देखकर शोक नहीं होता?’’


    बलि ने कहा - ‘‘आप अभी विजेता हैं। जो कुछ भी कहेंगे, वह आपको उचित ही प्रतीत होगा। अभी मैं काल के कारागार में हूँ। हमेशा सभी का समय ठीक नहीं होता। समय-समय पर जीव को सुख-दुःख मिलता ही रहता है। मुझे अभी दुःख है, किन्तु यह जानकर कि कल पुनः सुख होगा, प्रसन्न हूँ। आपकी दशा अभी अच्छी और मेरी इसके ठीक विपरीत, अतः आप कुछ भी कहने में तत्पर हैं, किन्तु काल हमेशा इसका उत्तर देता रहता है। कभी आपको भी इसका उत्तर मिल जायेगा।’’


    इन्द्र ने व्यंग्य से कहा - ‘‘तुम्हें हमारा पराक्रम दिखाई नहीं देता, जिसके कारण तुम इस चिंतित स्थिति में पड़े हुए हो? मैंने और मेरी सेना के कारण ही तुम्हारी यह दुर्गति हुई है।’’


    बलि ने कहा - ‘‘यह सब काल का किया धरा है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। कल आप भी उसी काल का शिकार हो सकते हैं। इसमें आपका कोई पराक्रम नहीं है। विचार कीजिये कि अब तक देवताओं के सहस्रों इन्द्र काल के साथ आये और चले गये। आप भी कल नहीं रहेंगे। काल पर किसी का वश नहीं चलता। आपका भी नहीं चलेगा। आप उस मूर्ख की भाँति बोल रहे हैं, जो स्वयं को किसी एक स्थिति का कर्ता मान लेता है। यह अभिमान ही आपके दुःख का कारण बनेगा।’’


    इन्द्र ने दुत्कारते हुए कहा - ‘‘तुम आज राजा नहीं रहे, इसी कारण ऐसी बातें कर रहे हो। कल जब तुम्हारे पास सब-कुछ था, तब तुम्हें भी अभिमान होता होगा। आज मुझे शिक्षा देने का प्रयास कर रहे हो?’’


    बलि ने कहा - ‘‘मुझे कभी अभिमान न रहा। यह सब-कुछ होने का भ्रम ही किसी को दुःख देता है। इसका कारण है कि आप भी काल के घेरे में हो। जिस राज्यलक्ष्मी को आप अपना मानते हैं, वह न आपकी है और ही मेरी और न किसी दूसरे की। यह किसी के पास स्थिर नहीं रहती। आपके पास भी कहीं से आई है और पूर्व में भी थी, अतः इस पर घमण्ड उचित नहीं है।’’


    इन्द्र ने गर्व से कहा - ‘‘मैंने न केवल युद्ध जीता, बल्कि सौ यज्ञों का अनुष्ठान भी किया। मेरे कारण त्रिभुवन का उदय हो रहा है। मैं अभी तीनों लोकों में सबसे अधिक बलवान् हूँ।’’


    बलि ने शान्त होकर कहा - ‘‘सबसे बलवान् तो काल ही है। आप अपनी तुलना उससे न करें, तो ही उचित है। फिर ऐसा भी नहीं है कि मात्र आपने सौ यज्ञों के अनुष्ठान किये हैं। अनेक धर्मात्मा राजाओं ने यज्ञ एवं अनुष्ठान किये हैं। वे भी आकाश में विचरण करते थे, किन्तु काल ने उनका भी संहार कर डाला। आप भी याद रखिये कि जिस काल ने मुझ पर धावा किया है, वही आप पर भी कभी चढ़ाई करेगा।’’
    इन्द्र ने उलाहना देते हुए कहा - ‘‘अभी तुम हारे हुए राजा हो, इस कारण बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो। कल युद्ध में तुमने अपना पराक्रम क्यों नहीं दिखाया?’’


    बलि ने कहा - ‘‘ऐसा नहीं है। कई बार देवासुर संग्राम हो चुके हैं और आपने कई बार मेरा पराक्रम भी देखा है। कभी मैंने अकेले ही समस्त आदित्यों, रुद्रों, वसुओं, साध्यों तथा मरुद्गणों को परास्त किया था। मेरे वेग से देवताओं में भी खलबली मच गयी थी, किन्तु अभी पराक्रम दिखाने का समय नहीं है और इसी कारण आपकी प्रत्येक उलाहना को सह रहा हूँ। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार एक मनुष्य रस्सी से एक पशु को बाँध लेता है, ठीक उसी प्रकार यह भयंकार काल मुझे बाँधे खड़ा है। मैं इस काल के प्रभाव को जानता हूँ, अतः शान्त बैठा हुआ हूँ।’’


    इन्द्र ने सब-कुछ सुनकर एवं शान्त होकर उसकी प्रशंसा करते हुए कहा - ‘‘सही कहा तुमने। वास्तव में काल का कोई परिहार नहीं होता। यह किसी को नहीं छोड़ता। कब किस पर गिर जाये, किसी को भी पता नहीं होता। सत्य यही है कि ऊँचे चढ़ने का अन्त है नीचे गिरना और जन्म का अन्त है मृत्यु। इससे कोई नहीं बच पाया है। अवश्य ही तुम्हारी बुद्धि तत्त्व को जानने वाली तथा स्थिर है। इसी कारण मुझे वज्रसहित देखकर भी तुमकों कोई घबराहट नहीं हुई। तुम्हारे बारे में जानने के बाद मुझमें दया का संचार हो गया है। मैं तुम्हारे जैसे ज्ञानी व्यक्ति का वध नहीं करना चाहता। अब मेरी ओर से तुम्हें कोई बाधा नहीं आयेगी, तुम मुक्त हो। सुखपूर्वक अपने जीवन को स्वस्थ होकर जी सकते हो।’’


    ऐसा कहकर देवराज इन्द्र वहाँ से चले आये। उन्होंने सम्पूर्ण असुर साम्राज्य को जीत लिया था और वे सुखपूर्वक देवताओं के सम्राट बनकर रहने लगे।
 

विश्वजीत ‘सपन’

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