Sunday, July 14, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 83)



महाभारत की कथा की 108 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

देवी लक्ष्मी का माहात्म्य

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    प्राचीन काल की बात है। एक दिन महर्षि नारद गंगा जी में स्नान करने के लिये उनके तट पर गये। उसी समय वज्रधारी इन्द्र भी उसी तट पर पहुँचे। दोनों ने ही एक साथ जल में गोते लगाये और गायत्री मंत्र का जाप किया। उसके उपरान्त वे वहीं रेत पर बैठकर वार्तालाप करने लगे। जब वे वार्तालाप कर ही रहे थे कि सूर्य भगवान् का उदय हुआ। तत्काल ही दोनों ने सूर्य पूजा की। 


    ठीक उसी समय आकाश से एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई, जो निरन्तर उनके समीप ही आ रही थी। वह एक अनुपम दृश्य था। समस्त जगत् उस प्रकाश-पुंज से आलोकित हो रहा था। निकट आते ही उन्होंने देखा कि वह भगवान् विष्णु का विमान था और उस पर साक्षात् लक्ष्मी माता विराजमान थीं। जब वे उनके समीप आईं, तब दोनों ने उनको प्रमाण किया और इन्द्र बोले - ‘‘माता आज आपके दर्शन से चित्त प्रसन्न हो गया। इस प्रकार आपके आने का कोई न कोई भेद अवश्य है। कृपाकर हमें बतायें कि आपके आने का क्या प्रयोजन है?’’


    लक्ष्मी देवी ने कहा - ‘‘इन्द्र, आप तो जानते ही हैं कि मैं सदा धर्मशील पुरुषों के देश में, नगर में एवं आवास पर निवास करती हूँ। वीरता से संघर्ष करने वाले राजाओं के शरीर में सदा उपस्थित रहती हूँ। मैं पहले सत्य और धर्म में बँधकर असुरों के पास रहती थी, किन्तु अब उन्हें धर्म के विपरीत देखकर आपके पास रहने के विचार से आई हूँ।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘देवि, आपका हार्दिक स्वागत है, किन्तु दैत्यों का पहले क्या आचरण था कि आप उनके पास रहती थीं।’’


    लक्ष्मी ने कहा - ‘‘पहले दैत्यलोग दान, अध्ययन एवं यज्ञ में संलग्न रहते थे। देवता, पितर, गुरु एवं अतिथियों की पूजा करते थे। उनमें सदा सत्य बोलने की प्रवृत्ति थी। वे घर-द्वार स्वच्छ रखते थे। उनमें श्रद्धा थी एवं क्रोध न था। सबका स्वभाव अच्छा था, सभी दयालु थे, सबमें सरलता एवं भक्तिभाव था। उपवास एवं तप में लगे रहते थे। ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। सदा ही धर्म का आचरण करते थे और इसी कारण मैं सदियों से उनके पास रहती आयी हूँ।’’


    इन्द्र ने पूछा - ‘‘देवि, फिर अब ऐसा क्या हो गया कि उन्हें छोड़कर हम देवताओं के पास रहने आयी हैं?’’


    लक्ष्मी ने कहा - ‘‘समय के उलट-फेर से उनके गुणों में विपरीतता आयी है। अब उनमें धर्म नहीं रह गया है। गुरुओं का आदर समाप्त हो गया है। बड़े-बूढ़ों का सम्मान समाप्त हो गया है। संतानों के लालन-पालन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। संतान पिता के रहते ही मालिक बन बैठता है। स्वच्छता से उन्हें कोई मतलब नहीं रह गया है। उनके रसोइये भी अपवित्र रहने लगे हैं। स्त्रियों एवं बूढ़ों को अपमानित किया जाता है। यज्ञ, तपादि से उनका कोई नाता नहीं रह गया है। चारों ओर भय का वातावरण बन गया है। पूर्व में दानवों के उत्थान में मैं सहायक थी, किन्तु अब मैं नहीं रही, तो अवश्य ही उनका पतन प्रारंभ हो गया है। मेरे रहते ही उत्थान संभव है। मैं यदि नहीं रही तो पतन होना अवश्यम्भावी है। इसी कारण मैंने निश्चय किया है कि मैं अब आपके पास ही निवास करूँगी। मेरे साथ आठ देवियाँ भी निवास करती हैं - आशा, श्रद्धा, धृति, क्षान्ति, विजिति, संनति, क्षमा तथा जया। अब से इन देवियों का निवास भी आपके पास ही होगा। आप हमें स्वीकार कीजिये।’’


    इन्द्र ने उन सभी देवियों को प्रणाम कर कहा - ‘‘हम धन्य हो गये माते, आपका हमारे यहाँ हार्दिक स्वागत है।’’


    इन्द्र एवं नारद के ऐसा अभिनन्दन करने के साथ ही शीतल, सुगन्धित एवं सुखद वायु चलने लगी। उनके दर्शन करने के लिये सभी देवी-देवता उपस्थित हो गये। नारद जी ने लक्ष्मी जी के शुभागमन की प्रशंसा की। ब्रह्मा जी के लोक से अमृत वर्षा होने लगी। देवताओं की दुन्दुभि बिना बजाये ही बज उठी। समस्त दिशायें निर्मल एवं श्रीसम्पन्न दिखाई देने लगीं। 


    लक्ष्मी जी के इस प्रकार आने से संसार में समय पर वर्षा होने लगी। पृथ्वी पर रत्नों की खानें प्रकट हो गयीं। मनुष्य, किन्नर, यक्ष, देवताओं आदि की समृद्धि बढ़ गयी। वे सभी सुख से रहने लगे। गौएँ दूध देने के साथ ही सभी की मनोकामनायें पूर्ण करने लगीं। किसी के मुख से कठोर वाणी नहीं निकलती थी। 


     कहते हैं कि जो लोग लक्ष्मी देवी की आराधना से सम्बन्ध रखने वाले इस कथा का अध्ययन एवं वाचन ब्राह्मणों की मंडली में करते हैं, यदि वे धन के इच्छुक हों, तो उन्हें प्रचुर मात्रा में धन की प्राप्ति होती है। वे जीवन भर सुखी रहते हैं तथा उन्हें कभी भी दुःख का अनुभव नहीं होता। 


विश्वजीत 'सपन'

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