Sunday, August 11, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 86)




महाभारत की कथा की 111 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

प्रलय एवं उसका क्रम
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    पूर्वकाल की बात है। महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव ने अपने पिता से सृष्टि की उत्पत्ति एवं काल के बारे में जानने के बाद पूछा - ‘‘पिताजी, आपने बताया कि ब्रह्मा के दिन प्रारंभ से सृष्टि का प्रारंभ होता है और रात्रि पर प्रलय। सृष्टि की उत्पत्ति मैं समझ गया। यह प्रलय किस प्रकार होता है? कृपया मुझे विस्तार से बतायें।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘तुम जान ही चुके हो कि एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा जी का एक दिन और उतने ही समय की एक रात्रि होती है। ब्रह्मा जी दिन के प्रारंभ में सृष्टि की रचना करते हैं तथा रात्रि के प्रारंभ में सबको स्वयं में लीन करना प्रारंभ करते हैं। ब्रह्मा जी के दिन बीतने पर इस सृष्टि का लय किस प्रकार होता है तथा ब्रह्मा जी इस स्थूल जगत् को सूक्ष्म करके किस प्रकार अपने भीतर लीन कर लेते हैं, उसे तुम सुनो।’’


    शुकदेव ने सिर हिलाकर अपनी सहमति दी। 


व्यास जी ने कहना प्रारंभ किया - ‘‘तुम्हें पता ही है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी अपने गुणों को विकसित करके जगत् का निर्माण करते हैं। इन पंचमहाभूतों को सूक्ष्मता किस प्रकार आती है, यह ज्ञान अति अवश्यक है। जब जगत् के प्रलय का समय आता है, तब ऊपर से तेजस्वी सूर्य तथा नीचे से अग्नि की सात ज्वालायें संसार को भस्म करने लगती हैं। सर्वप्रथम पृथ्वी के चराचर प्राणी इन ज्वालाओं से दग्ध होकर नष्ट होने लगते हैं। सभी प्राणी, पादप आदि जल कर राख बन जाते हैं। पृथ्वी इनसे विहीन होकर कछुए की पीठ की भाँति दृष्टिगत होती है, जहाँ श्मशान जैसी वीरानी फैल जाती है। स्थावर-जंगम कुछ भी संसार में बचा नहीं रहता। 


उसके बाद यही तेज पृथ्वी के गुण गन्ध को भी ग्रहण कर लेता है। पृथ्वी तब गन्धहीन हो जाती है तथा यही गन्धहीन पृथ्वी अपने कारणभूत जल में लीन हो जाती है। जल में लीन होते समय जल की ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगती हैं। चारों ओर से जल पृथ्वी को घेरने लगते हैं। एक विनाशलीला का प्रारंभ होता है। सम्पूर्ण भूमि, पर्वत आदि डूबने लगते हैं। कुछ समय के उपरान्त सम्पूर्ण विश्व जल में निमग्न हो जाता है। 


तदनन्तर तेज जल के गुण रस को ग्रहण कर लेता है तथा रसहीन जल तेज में लीन हो जाता है। जल की धारायें उठ-उठकर तीव्रता से तेज में समाने लगती हैं। यह ऐसा समय होता है, जब सम्पूर्ण आकाश अग्नि की लपटों से आच्छादित-सा दिखाई देता है। जैसे अगस्त्य मुनि ने समुद्र को पी लिया था, ठीक उसी प्रकार समस्त जल का पान हो जाता है।


उसके बाद तेज के गुण रूप को वायुतत्त्व ग्रहण कर लेता है। तेज के वायु के ग्रहण करते ही अग्नि ठण्डी हो जाती है और वायु में मिल जाती है। इस मिलन के कारण वायु अबाध गति से चलने लगती है। चारों ओर विनाश का दृश्य दिखाई देने लगता है। वायु की गति अत्यधिक हो जाती है और हर दिशा में हरहराते हुए चलने लगती है। 


उसके उपरान्त आकाश वायु के गुण स्पर्श का ग्रहण कर लेता है। इसके कारण वायु शान्त होकर आकाश में लीन हो जाती है। तदनन्तर शब्द गुण से युक्त मात्र आकाश रह जाता है। इस समय रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श का कुछ भी अंश उपलब्ध नहीं रहता। वे सभी शब्द में लीन हो जाते हैं। इसके उपरान्त इस दृश्य जगत् को व्यक्त करने वाला मन आकाश के गुण शब्द को स्वयं में लीन कर लेता है। मन से ही शब्द की उत्पत्ति होती है तथा वह उसी में पुनः लीन हो जाता है। इस प्रकार इन पंचभौतिक का ब्रह्मा के मन में लीन होना ही प्रलय कहलाता है। इसे ब्राह्म प्रलय भी कहा जाता है। इस प्रकार देखा जाये, तो समस्त भूतों के प्रलय स्थान भी ब्रह्मा जी ही हैं।


यही संक्षेप में प्रलय का वृत्तान्त है। यही सृष्टि एवं प्रलय का क्रम निरन्तर चलता रहता है। इसी प्रकार एक-एक हजार चतुर्युगों के ब्रह्मा जी के दिन एवं रात होते रहते हैं। उनके दिन के आरंभ में सृष्टि एवं रात्रि के आरंभ में प्रलय का यह क्रम सतत् चलता रहता है।’’


कहते हैं कि इसी प्रकार संसार की उत्पत्ति एवं प्रलय का क्रम चलता रहता है। संसार की सृष्टि एवं उसके प्रलय का यह प्राकृतिक नियम कभी भंग नहीं होता। यही जीवन का एक महासत्य है, जिसे प्रत्येक मनुष्य को जानना चाहिये। 


विश्वजीत 'सपन'

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