Sunday, August 4, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 85)




महाभारत की कथा की 110 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

समत्वबुद्धि से ब्रह्मपद-प्राप्ति

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    प्राचीन काल की बात है। मुनियों में उपदेश ग्रहण करने की प्रथा थी। वे किसी भी ऋषि-मुनि से अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने का अनुरोध किया करते थे। तब ऋषि-मुनि भी उनकी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान किया करते थे। ऐसी ही एक प्राचीन कथा है, जिसमें असित-देवल मुनि जैगीषव्य के आश्रम पहुँचे। उनके मन में ब्रह्मपद प्राप्ति हेतु उपायों को जानने की जिज्ञासा थी। मुनि जैगीषव्य ने उनका अतिथि के समान सत्कार किया और बोले - ‘‘बताइये मुनिवर, आपके मेरे आश्रम में आने का क्या प्रयोजन है? मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकता हूँ।’’


    इस पर असित-देवल ने मुनि को प्रणाम कर कहा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, आप धर्मज्ञानी हैं। आप मुझे बतायें कि एक धर्मज्ञानी की क्या गति होती है।’’


    मुनि जैगीषव्य ने कहा - ‘‘धर्मज्ञानी को कभी कोई दुःख नहीं होता। वे इसका अनुभव नहीं करते। वे धर्म के अनुसार अपना जीवन चलाते हैं तथा हमेशा ही सुखी रहते हैं। वास्तव में वे ही जीवन को जीते हैं, शेष तो मात्र जीवन काटते हैं।’’


    असित-देवल ने कहा - ‘‘मुनिवर, मैंने सुना है कि यदि कोई आपको प्रणाम करे, तो आपको अधिक प्रसन्नता नहीं होती तथा कोई आपकी निंदा करे, तो भी आप क्रोध नहीं करते। इसका क्या रहस्य है? यह कैसे संभव है?’’


    मुनि जैगीषव्य ने कहा - ‘‘मुनिवर, इसे समत्वबृद्धि कहते हैं। महात्मा पुरुष वे होते हैं, जिसकी कोई निंदा करे अथवा प्रशंसा के गीत गाये, चाहे उसके सदाचार एवं पुण्यकर्मों पर परदा डाले, वे सबके प्रति एक समान ही बुद्धि रखते हैं। यही समत्वबुद्धि है। मेरा जीवन इसी के अधीन है, अतः मेरी ऐसी वृत्ति है।’’


    असित-देवल ने पूछा - ‘‘किन्तु मुनिवर, निन्दा होने पर अपमान की अनुभूति होती है। एक मानव इसे सहन नहीं कर सकता। इस पर किस प्रकार विजयश्री पायी जा सकती है?’’


    मुनि जैगीषव्य ने कहा - ‘‘मुनिवर, एक तत्त्ववेत्ता अपमान को अमृत के समान समझ कर उससे संतुष्ट होते हैं तथा सम्मान को विषतुल्य समझ कर उससे डरते हैं। एक निर्दोष आत्मा को अपमान से कोई चिन्ता नहीं होती। वह इस बात को समझता है कि अपमान करने वाला स्वयं ही अपने अपराध से मारा जाता है। उसकी चिन्ता करने की उसे कोई आवश्यकता नहीं होती। अपमान अथवा सम्मान मात्र भ्रम है। समझने की सबसे बड़ी बात यह है कि निन्दा से न कोई हानि होती है और प्रशंसा से न कोई लाभ। तब इनके बारे में सोचना ही अनुचित जान पड़ता है। इसी कारण धर्मज्ञानी मनुष्य इनसे कभी भी किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होते।’’


    असित-देवल ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर। आपका हार्दिक आभार अनुपम ज्ञान की बातें बताने के लिये। कृपया इस प्रकार की बुद्धि के बारे में मुझे विस्तार से बताने की कृपा करें।’’


    जैगीषव्य ने कहा - ‘‘बुराई को कभी बुराई न मानना। उसे भूल जाना। भविष्य की चिन्ता न करना और वर्तमान में जीना। जो बीत चुका है, उसके लिये शोक न करना। किसी भी बात के लिये प्रतिज्ञा न करना। क्रोध को जीतना एवं जितेन्द्रिय बनना। मन, वाणी एवं शरीर से अपराध न करना। मन में ईर्ष्या न रखना। सर्वथा शान्त एवं सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहना। हृदय की अज्ञानमयी गाँठ को खोलकर चारों ओर आनन्द से विचरण करना। न किसी को शत्रु मानना और न ही किसी का शत्रु बनना। ये सभी व्यवहार इस बुद्धि के होते हैं। यह बुद्धि समत्व का ज्ञान देती है और किसी भी मनुष्य के लिये सभी प्रकार के सुख का कारण बनती है।’’


    असित-देवल ने कहा - ‘‘इस प्रकार की बुद्धि का फल क्या होता है? इसे विस्तार से बताने की कृपा करें, मुनिश्रेष्ठ।’’


    जैगीषव्य ने कहा - ‘‘पुण्यकर्म करने वाले मनुष्यों को इस बुद्धि से परम गति की एवं शान्ति की प्राप्ति होती है। यह बुद्धि उन्हें धर्म पालन में संलग्न करती है। वे समस्त प्रकार के इस व्रत के आचरण के कारण सुखी होते हैं। इन्द्रियों को अपने वश में करके अविनाशी ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं। इससे उत्तम गति और क्या हो सकती है। यह देवता, गन्धर्व, पिशाच एवं राक्षस के लिये अति दुर्लभ होती है। अतः शास्त्रों के अनुसार यही सर्वथा उपयुक्त बुद्धि बतायी गयी है। धर्म मार्ग का अवलम्बन करने के कारण इन्हें सदा ही शान्ति का अनुभव होता है।’’


विश्वजीत 'सपन'

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