Thursday, December 5, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 94)




 

 
शासन हेतु मनुष्यों की पहचान आवश्यक
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प्राचीन काल की बात है। कोसल देश में राजा क्षेमदर्शी थे। उनके राज्य में सब-कुछ अच्छा नहीं चल रहा था। उनकी मदद करने के लिये कालकवृक्षीय नामक एक मुनि उस राज्य में आये। वे समस्त राज्य का कई बार चक्कर लगा चुके थे। उनके पास बंद पिंजरे में एक कौआ था। वे कहते थे - ‘‘सज्जनो! यह कौआ बहुत गुणी है। यह भूत और भविष्य की बातें बता सकता है। यदि आप जानना चाहते हैं, मुझे बतायें।’’


    ऐसा प्रचार कर वे एक दिन राजा के महल में गये। वहाँ जाकर राजमन्त्री से बोले - ‘‘मेरा कौआ कहता है कि राजा के खजाने से चोरी हुई है। किसने-किसने की है, उनके नाम भी बताता है, अतः राजा के पास चलकर सभी अपना अपराध स्वीकार करें।’’


    मुनि की बात सुनकर जो भी अपराधी थे, वे डर गये और उन्होंने एक रात्रि मुनि के कौअे को मरवा दिया। प्रातःकाल जब मुनि उठे, तो पिंजड़े में उन्हें अपना कौआ मरा पड़ा मिला। वे क्रोधित तो न हुए, किन्तु सीधे राजा क्षेमदर्शी के पास जाकर बोले - ‘‘राजन्, आपके किसी मंत्री ने मेरे कौए को मार डाला, क्या आप उसे दण्ड नहीं देंगे?’’


    क्षेमदर्शी ने कहा - ‘‘यदि हमारे किसी व्यक्ति ने अपराध किया है, तो उसे अवश्य दण्ड दिया जायेगा, किन्तु यह मामला क्या है? आप मुझे विस्तार से बतायें।’’


    तब कालकवृक्षीय मुनि ने कहा - ‘‘राजन्, यदि आप सभी कुछ जानना चाहते हैं, तो एकान्त में चलें। मैं सभी बातें विस्तार से बताता हूँ।’’


    एकान्त में जाकर कालकवृक्षीय मुनि ने कहा - ‘‘राजन्, मेरा नाम कालकवृक्षीय मुनि है तथा मैं आपके पिता का मित्र हूँ। जब इस राज्य पर संकट आया था तथा आपके पिता का देहान्त हो गया था, तब मैंने समस्त कामनाओं का त्याग करके तप का निर्णय लिया था। इधर जब पुनः आपके राज्य में संकट आया देखा, तो आपके पास आपको सब-कुछ बताने आया हूँ।’’


    राजा क्षेमदर्शी ने मुनि को प्रणाम करके कहा - ‘‘मुनिवर, यह तो मेरा अहोभाग्य है कि आप मेरे यहाँ पधारे हैं। आप बतायें कि मैं क्या सेवा कर सकता हूँ।’’


    कालकवृक्षीय मुनि ने कहा - ‘‘मुझे किसी सेवा की आवश्यकता नहीं राजन्। मैं तो आपको सावधान करने आया हूँ कि आपके राज्य के मंत्रीगण आपकी दृष्टि से छुपकर अनेक प्रकार के अनाचार कर रहे हैं। उन्हें दण्डित किये बिना आपका साम्राज्य उन्नति नहीं कर सकता। यदि आप सुनने को तैयार हैं, तो मैं आपको आपके हित की बातें बता सकता हूँ।’’


राजा क्षेमदर्शी ने कहा - ‘‘मुनिवर, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके कहे अनुसार ही कार्य करूँगा। आप जो कुछ भी कहना चाहते हैं, उन्हें निःसंकोच कहें।’’


तब कालकवृक्षीय ने कहा - ‘‘राजन्, आपके कर्मचारियों में कौन अपराधी है तथा कौन निरपराध, साथ ही आपके सेवकों में से किसकी ओर से आपको भय होगा, उनका पता लगाकर आपको बताने आया हूँ। एक राजा के जितने मित्र होते हैं, उतने ही शत्रु भी। जिस प्रकार जलती हुई आग से एक व्यक्ति सचेत होकर रहता है, ठीक उसी प्रकार एक राजा को हमेशा सावधानी से रहना चाहिये। आपको पता नहीं कि मेरा कौआ आपके ही कार्य में मारा गया है। जो लोग आपके ही घर में रहकर आपका खजाना लूटते हैं, वे कभी भी प्रजा की भलाई करने वाले नहीं हैं। उन्हीं लोगों ने मेरे साथ भी शत्रुता कर ली है। मैं किसी कामना से नहीं आया, इसके बाद भी षड्यन्त्रकारियों ने कपट करने की इच्छा से मेरे कौए को मार दिया, क्योंकि इससे उनका अहित होने वाला था। आपने जिन्हें मंत्री बनाया है, वे ही आपका अहित करने की योजना बना रहे हैं। अतः आपको सावधान हो जाना चाहिये, किन्तु अब मेरा यहाँ रहना उचित नहीं, क्योंकि इससे मेरे प्राण का संकट है।’’


राजा क्षेमदर्शी ने कहा - ‘‘हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप कहीं न जाइये, यहीं रहिये। मैं आपकी सुरक्षा का भार लेता हूँ। जो आपको नहीं रहने देना चाहते, अब वे ही नहीं रहेंगे। उन लोगों के साथ क्या व्यवहार करना चाहिये, इसके बारे में मेरा मार्गदर्शन करें। आप जो भी कहेंगे, मेरे कल्याण के लिये ही कहेंगे, अतः वह मार्ग बतायें, जिन पर चलकर मेरा तथा मेरी प्रजा का कल्याण हो।’’


इस प्रकार राजा के कहने पर कालकवृक्षीय मुनि को संतोष हुआ। उन्होंने कहा - ‘‘राजन्, सर्वप्रथम तो कौए को मारने का जिन्होंने अपराध किया है, इस बात को प्रकट किये ही बिना ही उन सभी के अधिकार छीनकर उन्हें दुर्बल कर दीजिये। उसके उपरान्त अपराध का पता लगाकर एक-एक कर उनके वध कर दीजिये। एक-एक कर इसी कारण से, क्योंकि जब अनेक लोगों पर एक ही तरह के अपराध का दोष लगाया जाता है, तो वे सब मिलकर एक हो जाते हैं। गुप्त रूप से उनको दण्ड देने से संकट टला रहता है तथा कार्य भी बिना किसी विघ्न के पूर्ण होता है।’’


राजा क्षेमदर्शी ने उसी प्रकार किया जिस प्रकार कालकवृक्षीय मुनि ने कहा। धीरे-धीरे उनके समस्त शत्रुओं का नाश हो गया। कालकवृक्षीय मुनि ने अपनी बृद्धि के बल से कोसल नरेश को पृथ्वी का एकछत्र सम्राट बना दिया। कौसल्यराज ने भी उनकेे हितकारी वचन सुने तथा उनकी आज्ञा के अनुसार ही कार्य किये, इससे आगे चलकर उन्होंने समस्त भूमण्डल पर विजय प्राप्त कर ली। 


विश्वजीत 'सपन'

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