Thursday, December 19, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग -95)




महाभारत की कथा की 120 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

प्राणदण्ड 

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    प्राचीन काल की बात है। द्युमत्सेन नामक एक राजा था। उसका पुत्र सत्यवान् बड़ा दयालु एवं बुद्धिमान था। वह अहिंसा का पुजारी था। एक दिन की बात है। सत्यवान् ने देखा कि उसके पिता की आज्ञा पर अनेक अपराधियों को वध हेतु ले जाया जा रहा था। उसे बड़ा कष्ट हुआ। उसने निश्चय किया कि वह इस सम्बन्ध में अपने पिता से बात करेगा। ऐसा विचारकर उसने अपने पिता से कहा - ‘‘पिताजी, इसमें संदेह नहीं कि कभी अधर्म जैसा दिखाई देने वाला कार्य भी धर्म हो जाता है तथा कभी धर्म जैसा प्रतीत होने वाला कार्य भी अधर्म हो जाता है। तथापि किसी का भी प्राण लेना धर्म नहीं हो सकता, चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो।’’


    बेटे की बात सुनकर पिता समझ गया कि पुत्र मोह में फँसा है। उसने कहा - ‘‘बेटे, अपराधी का वध करना यदि अधर्म है, तो धर्म क्या है? यह कलियुग है। यहाँ सभी दूसरे की सम्पत्ति हड़पना चाहते हैं। दूसरे को कष्ट पहुँचाकर स्वयं के सुख की कामना करते हैं। उन्हें उचित मार्ग पर लाने के लिये दण्ड का मार्ग अपनाना ही पड़ता है, यही लोकहित में है। यदि तुम्हारे पास दण्ड के सिवा भी कोई उपाय हो, तो उसे बताओ।’’


    पिता की बात सुनकर सत्यवान् ने कहा - ‘‘पिताजी, सभी वर्णों को ब्राह्मण के अधीन कर देना चाहिये एवं उन्हें धर्म में बाँध देना चाहिये। यदि वे बात न मानें, तब ब्राह्मण को राजा को बताना चाहिये, किन्तु प्राणदण्ड तब भी नहीं होना चाहिये। जब किसी का वध होता है, तब उसके साथ अनेक निरपराध भी काल का ग्रास बन जाते हैं। तात्पर्य है यह कि उसके माता-पिता, उसकी स्त्री, उसके बच्चे सभी दुःख झेलते हैं, जबकि उनका कोई दोष नहीं होता। वस्तुतः ऐसे अपराधियों को सुधरने का अवसर अवश्य देना चाहिये। अनेक बार सत्संग से उन्हें सुधरते देखा गया है। यदि कोई बार-बार अपराध करे, तभी उसे दण्ड देना चाहिये, अन्यथा नहीं।’’


    द्युमत्सेन को प्रतीत हुआ कि पुत्र को वास्तविकता की जानकारी कम है, अतः उन्होंने कहा - ‘‘बेटे, प्रजा को धर्म की मर्यादा के भीतर रखना राजा का कर्तव्य है। यदि लुटेरों का वध न किया गया, तो वे प्रजा को कष्ट पहुँचाते हैं। जो बातें तुमने कहीं, वे पहले के लोगों के लिये उचित थीं, क्योंकि तब उनके स्वाभाव कोमल हुआ करते थे, वे सत्य में रुचि रखते थे; उनमें क्रोध एवं द्रोह की मात्रा कम थी। अब अपराधी प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। पहले जुरमाने का दण्ड देकर उन्हें उचित मार्ग पर लाने का नियम था, क्योंकि वे मात्र भटके पथिक थे, किन्तु अब सब-कुछ सुनियोजित है। अपराध करने वाला अपनी प्रवृत्ति के कारण अपराधी है। वह अपने मार्ग से हटने को तैयार नहीं, अतः वध का दण्ड ही उनके लिये कहा गया है, ताकि अन्य उनके मार्ग का अनुसरण न करें। जो लुटेरे मरघट में जाकर मुर्दे के भी जेवर उतार लेते हैं, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है। भला उन्हें किस प्रकार उचित मार्ग पर लाया जा सकता है? उन पर विश्वास करना तो मूर्खता ही होगी।’’


    पिता की व्यावहारिक बातें सुनने के बाद भी सत्यवान् अपने विचारों से डिगा नहीं, क्योंकि उसके विचार से हिंसा से किसी समस्या का समाधान उचित न था। उसने कहा - ‘‘पिताजी, यदि आप वध के अलावा उन्हें सत्पुरुष बनाने में असफल हैं, तो आपको वैकल्पिक मार्गों को खोजना चाहिये। श्रेष्ठ राजा वही होते हैं, जो अपराधियों के बिना प्राण लिये ही उन्हें सत्मार्ग पर ले चलते हैं। यदि स्वयं राजा का उत्तम आचरण होता है, तो प्रजा भी उन्हीं का अनुसरण करती है। 


    पिताजी, एक ब्राह्मण ने मुझसे कहा था कि सत्ययुग में जब धर्म अपने चारों चरणों से उपलब्ध रहता है, तब एक राजा को अंहिसामय दण्ड का विधान ही करना चाहिये। त्रेतायुग आ जाने पर धर्म एक चौथाई कम हो जाता है, तब अर्थदण्ड ही विधान होना चाहिये। अभी तो कलियुग है। इसमें धर्म का चतुर्थ भाग ही शेष रह जाता है, तब इस समय मनुष्यों की आयु, शक्ति एवं काल का विचार करके ही दण्ड का विधान करना चाहिये। स्वयम्भुव मनु ने जीवों पर अनुग्रह करके बताया था कि मनुष्य को कभी भी अहिंसामय धर्म का ही पालन करना चाहिये, चाहे कोई भी युग हो। इसका कारण यह है कि यदि वह सत्यस्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, तो उसके फल की प्राप्ति अहिंसा धर्म से ही संभव है।’’


    द्युमत्सेन ने अपने बेटे की बात को समझा और कहा - ‘‘सत्य कहा तुमने पुत्र, जीवन लेने का अधिकार मनुष्य को नहीं है, तब चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो। दण्ड आवश्यक है, क्योंकि अपराधियों को भय होना चाहिये, किन्तु अहिंसापूर्ण मार्ग से श्रेष्ठ कोई मार्ग नहीं हो सकता। सद्व्यवहार से ही प्रजा पर अधिक समय तब शासन किया जा सकता है।’’


    अहिंसा का मार्ग सर्वोत्तम कहा गया है। यह सामाजिक जीवन हेतु आवश्यक माना गया है। जब तक आवश्यक न हो जाये, प्राणदण्ड से बचना ही श्रेष्ठ माना गया है। 


विश्वजीत 'सपन' 

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