Friday, January 24, 2014

No Corruption

                                       

                                            भ्रष्टाचारस्तु सर्वेषां, पापानां मूलकारणम्।
                                           भ्रष्टाचारेण लोकानां, सन्मतिः क्षीयते सदा।।


      भ्रष्टाचार का अर्थ भ्रष्ट आचरण से है। इसके लिए पैसे का लेन-देन होना आवश्यक नहीं है। यह मनुष्य के द्वारा किए गए उन सभी आचरणों के बारे में है जो वे परंपरागत एवं शास्त्रोक्त नियमों से च्युत होकर करते हैं। हमारे समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए रीति-रिवाजों तथा नियम-कानूनों को बनाया गया है। यही हमें मनुष्यता के निकट ले जाता है, अन्यथा पशु-पक्षी एवं कीट-पतंगों का भी समाज होता और वे भी हमारी ही तरह रहा करते।

      यदि एक शिक्षक प्रतिदिन अपने नियम के अनुसार नहीं पढ़ाता है, समय पर विद्यालय नहीं जाता है, कक्षा में पढ़ाने के बजाय घर पर ट्यूशन देता है, बच्चों को सही शिक्षा नहीं देता है, नैतिक शिक्षा नहीं देता है, झूठ का सहारा लेता है, झूठ बोलता है तो वह भी भ्रष्ट आचरण करता है। एक आम नागरिक भी यदि अपने समाज के नियम-कानूनों के अनुसार कार्य नहीं करता है तो वह भी भ्रष्ट आचरण ही करता है।

      एक व्यापारी मिलावट करता है, एक नेता जनता के बारे में नहीं सोचता है, एक खिलाड़ी ड्रग्स लेकर प्रतियोगिता जीतता है, एक व्यक्ति अपना काम करवाने के लिए अनियमित कार्य करता है, ट्रेन टिकट के लिए व्यक्ति सौ रूपये अधिक देता है, लाइन में न खड़ा होना पड़े इसलिए दस रुपये अधिक देकर तेल पाता है,  एक साहित्यकार भाई-भतीजावाद के तहत साहित्य और साहित्यकार को पालता है, एक प्रकाशक चंद पैसों के लिए साहित्यकारों का दोहन करता है, ये सभी भ्रष्टाचार ही हैं, इसलिए भ्रष्टाचार को केवल उद्योगपतियों, व्यापारियों, प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है।

      यदि हम आत्मावलोकन करेंगे तो हममें से कोई भी भ्रष्टाचारी की इस पदवी से बरी नहीं हो सकता है। अतः विचार करने योग्य बात है कि भ्रष्टाचार क्या है? भ्रष्टाचार एक सोच है, एक समझ है, एक ऐसी स्थिति है जिस पर नियंत्रण केवल स्वयं के उत्तरदायित्व को निभा कर ही किया जा सकता है। झूठ बोलना, झूठी बातें बताकर सहानुभूति बटोरना, लोगों को भ्रमित करना, झूठ को सत्य साबित करना और स्वयं को सबसे योग्य मानना ये सभी भ्रष्ट मार्ग ही हैं। ये बहुत ही आकर्षक होते हैं और आम आदमी जिसके पास शिक्षा नहीं है, जिसके पास सोच नहीं है वह आसानी से आकर्षित हो भी हो जातजाता है।

      क्या हम वह करेंगे जो हमें करना चाहिए? या फिर भड़भूंजे की तरह बजते रहेंगे?

सादर
विश्वजीत 'सपन'
 

Monday, June 10, 2013

दिव्यकन्या सत्यवती (महाभारत कथा - 6)

वैशम्पायन जी ने जनमेजय को इक्ष्वाकु वंश के राजा महाभिष की कथा सुनाई, जो पुरुवंश के राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु बने। इसी शांतनु के पुत्र देवव्रत भीष्म थे, जो आठ वसुओं में से एक थे, जिन्हें मुनि वशिष्ठ के शाप के कारण मनुष्य-योनि में जन्म लेना पड़ा और शाप के कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े। 
महाभारत, आदिपर्व

बहुत समय पहले की बात है। हस्तिनापुर नामक एक राज्य था। वहाँ शांतनु नाम के राजा राज्य किया करते थे। उनकी पहली पत्नी गंगा उन्हें छोड़कर चली गई। राजा दु:खी तो बहुत हुए, किन्तु उन्होंने अपना मन प्रजा की सेवा में लगा लिया था। इसके साथ ही वे अपने बेटे देवव्रत का अच्छी तरह से लालन-पालन करने में समय व्यतीत कर रहे थे।

एक दिन की बात है। शांतनु यमुना नदी के किनारे घूम रहे थे। तभी उन्हें बड़ी अच्छी सुगंध लगी। वह सुगंध मन को लुभाने वाली थी। राजा उसकी ओर बरबस ही खिंचे चले गए। थोड़ी दूर जाने पर उन्हें मछुआरों की एक बस्ती मिली। सुगंध वहीं से आ रही थी, किन्तु कहाँ से यह उन्हें सता रहा था
इस जिज्ञासा में वे और आगे बढ़े तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। असल में वह सुगंध एक बहुत ही सुन्दर स्त्री से आ रही थी। शांतनु उसके पास गए और पूछा।

‘तुम कौन हो देवी?’


‘मैं मछुआरे की बेटी सत्यवती हूँ।’ उस स्त्री ने जवाब दिया।


राजा सोच में पड़ गए। मछुआरे की बेटी के शरीर से तो मछली की गंध आती है। अवश्य इसमें कोई न कोई रहस्य है। यह मछुआरे की बेटी नहीं हो सकती। वैसे भी सत्यवती की सुन्दरता पर वे मर मिटे थे। सोचने लगे, यदि यह उनकी पत्नी बन जाए तो कितना अच्छा हो। यह सोचकर राजा ने पूछा।


‘क्या तुम मुझे अपने पिता के पास ले चलोगी?’


‘आइए, यहीं बगल में ही हमारी झोपड़ी है।’ यह कहकर सत्यवती राजा को अपनी झोपड़ी के पास ले गई। 


सत्यवती के पिता ने राजा को देखा तो प्रणाम कर बोला - ‘हमारे अहोभाग्य जो आप हमारी कुटिया में पधारे। कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’


राजा ने तब उसे सारी बात बताई। साथ ही यह भी कहा कि वे सत्यवती से विवाह करना चाहते थे।


मछुआरा बोला - ‘राजन् जब से यह दिव्यकन्या मुझे मिली है, तभी से इसके लिए योग्य वर की चिंता रही है। आपके जैसा वर इसे कोई नहीं मिल सकता। किन्तु ...।’ 


यह कह कर मछुआरा रुक गया तो राजा ने चिंतित होकर पूछा।


‘किन्तु क्या?’ राजा अधीर हो रहे थे


 ‘मेरी एक शर्त है।’ मछुआरे ने दबे स्वर में कहा।

‘शर्त ! कैसी शर्त है?’ राजा ने पूछा।


‘देखिए राजन्, हर बाप को बेटी की चिंता रहती ही है। मुझे भी है। इसलिए आप यदि यह प्रतिज्ञा करें कि आपके बाद इसका ही पुत्र राजा होगा तो आप इससे शादी कर सकते हैं।’ मछुआरे ने अपनी शर्त बताई।


राजा चिंतित हो गए। युवराज देवव्रत के होते किसी और को राजा बनाना उचित नहीं था। वे दु:खी मन से हस्तिानापुर लौट आए। लेकिन सत्यवती को भुला नहीं पाए। उनका किसी काम में मन नहीं लगता था। उस दिन के बाद से वे उदास रहने लगे। नाना प्रकार के यत्न करने के बाद भी उनकी उदासी दूर नहीं हो सकी।


एक दिन देवव्रत ने उनसे कहा - ‘पिताजी, आप अपने दु:ख का कारण बताइए। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उसे किसी भी कीमत पर दूर करूँगा।’


राजा अपने बेटे से अपनी शादी की बात कैसे कर सकते थे। उन्हें संकोच हो रहा था। फिर कुछ सोचकर उन्होंने दूसरे तरीके से उससे कहा - ‘बेटे, तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो। भगवान् न करे यदि तुम्हें कुछ हो जाए तो मेरे वंश का नाश हो जाएगा। इसलिए मुझे अपने वंश की चिंता है।’


देवव्रत प्रौढ़ और बुद्धिमान थे। वे समझ गए कि मामला क्या है। किन्तु वह कौन होगी, इसकी जानकारी उन्हें प्राप्त करनी थी। इसलिए उन्होंने गुप्तचरों से सारी बात पता करवाई और उस मछुआरे की बस्ती में गये। वहाँ जाकर उन्होंने सत्यवती के पिता से कहा।


‘मान्यवर, आपकी शर्त को रखने के लिए मैं शपथ लेता हूँ कि माता सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा। आप माता सत्यवती का विवाह मेरे पिता के साथ कर दें।’ देवव्रत ने कहा।


सत्यवती का पिता उसकी प्रतिज्ञा से बहुत खुश हुआ। फिर भी संतुष्ट नहीं हुआ। उसके मन में अब भी शंका थी।


उसने कहा - ‘हे गंगापुत्र, मुझे आपकी प्रतिज्ञा में कोई संदेह नहीं है। लेकिन आपसे बड़ा वीर भी कोई नहीं है।’


‘मैं आपका आशय नहीं समझा। आप कहना क्या चाहते हैं? मेरे वीर होने से किसी का नुकसान नहीं हो सकता?’ देवव्रत ने पूछा।


‘क्षमा कीजिएगा। बाप हूँ, बेटी के लिए सोचना ही पड़ता है। असल में मेरा मतलब यह है कि आप जिसके शत्रु हो जाएँ, वह जीवित नहीं रह सकता। कहीं ऐसा न हो कि आपके पुत्र सत्यवती के पुत्र से उसका राज्य छीन लें।’ सत्यवती के पिता ने बड़ी शिष्टता से बहुत बड़ी बात कह दी।


देवव्रत उनका आशय समझ गए और बोले - ‘ठीक है। यदि आपको ऐसा लगता है तो आज मैं एक और प्रतिज्ञा करता हूँ। मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा।’


देवव्रत के ऐसा कहते ही आकाश से फूल बसरने लगे। हवा जोर-जोर से बहने लगी। बिजली की चमक और कड़कड़ाहट से आसमान गूँज उठा
। अलौकिक ध्वनियों ने पूरे ब्रह्माण्ड को इस प्रतिज्ञा का अनुभव करा दिया तीनों लोकों में उनकी प्रतिज्ञा की गूँज सुनाई दी। उनकी इस कठिन प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा। ऐसी कठिन प्रतिज्ञा को आज भी भीष्म-प्रतिज्ञा कहा जाता है।
सत्यवती और उसके पिता देवव्रत के इस बलिदान से दंग रह गए। हस्तिनापुर की प्रजा ने यह सुनकर दाँतों तले उँगली दबा ली। देवताओं ने ‘धन्य हो’ कहकर देवव्रत की प्रतिज्ञा का स्वागत किया। शांतनु ने यह समाचार सुना तो देवव्रत को गले लगाकर बोले -‘पुत्र तुम्हारा यह त्याग युगों-युगों तक याद रखा जायेगा।’

फिर उन्होंने देवव्रत को एक वरदान भी दिया कि वे जब तक जीना चाहें, उन्हें मृत्यु छू नहीं सकती। उसके बाद शुभ समय देखकर शांतनु ने सत्यवती से शादी कर ली। समय के साथ सत्यवती के दो पुत्र हुए - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बालक बड़े होशियार और बहादुर थे। चित्रांगद बड़े थे और विचित्रवीर्य छोटे।

चित्रांगद अभी बालक ही थे कि शांतनु की मृत्यु हो गई। देवव्रत ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बालक चित्रांगद को हस्तिनापुर की राजगद्दी पर बिठा दिया। चित्रांगद छोटे थे, लेकिन उनमें राजा के अच्छे गुण थे। उन्होंने छोटी उम्र में ही आस-पड़ोस के सभी राजाओं को हराकर हस्तिनापुर का नाम और ऊँचा कर दिया। यहाँ तक कि देवताओं के लिए भी खतरा बन गये।


देवताओं ने उनकी इस वीरता पर रोक लगाने के लिए गन्धर्वों को भेजा। तब सरस्वती नदी के किनारे बड़ा ही भीषण युद्ध हुआ। चित्रांगद इस युद्ध में पराजित हुए और मारे गए। तब देवव्रत ने विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राजा बनाया। वे उसके अंगरक्षक बनकर राज्य चलाने लगे क्योंकि विचित्रवीर्य अभी बहुत छोटे थे।


समय के साथ जब विचित्रवीर्य बड़े हुए तो उनका विवाह संपन्न हुआ
। उनकी दो रानियाँ थीं - अम्बिका और अम्बालिका। किन्तु उनके कोई संतान नहीं हुई। दुर्भाग्य से विचित्रवीर्य यौवन में ही क्षय रोग के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए। सत्यवती के वंश को चलाने वाला कोई नहीं बचा। तब सत्यवती ने देवव्रत से प्रार्थना की कि वे विवाह कर लें। किन्तु देवव्रत अपनी प्रतिज्ञा पर टिके रहे।

विवश होकर सत्यवती ने व्यास जी को याद किया। उनसे प्रार्थना की - ‘बेटे, तुम्हारा भाई विचित्रवीर्य बिना संतान के ही मर गया। अब वंश चलाने के लिए तुम्हीं कुछ उपाय करो।’

व्यास जी ने कृपा की और योग बल से अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पाण्डु को जन्म दिया। उन्होंने ही एक दासी से विदुर को भी जन्म दिया। अपनी-अपनी माता के दोष के कारण धृतराष्ट्र अंधे और पाण्डु पीले पैदा हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे। इसलिए
पाण्डु को राजा बनाया गया। उसके बाद धृतराष्ट्र की शादी गान्धारी से और पाण्डु की शादी कुन्ती से हुई। सत्यवती का वंश चलने लगा।

एक दिन की बात है।
पाण्डु शिकार खेलने गए। गलती से उनका तीर एक ऋषि को जा लगा। ऋषि ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया। उसी शाप के कारण पाण्डु की मृत्यु हो गई। सत्यवती को इस घटना से बहुत दु:ख हुआ। वह अम्बिका और अम्बालिका के साथ जंगल में जाकर तपस्या करने लगी। तपस्या पूरी होने पर उन सबों ने अपने देह का त्याग कर दिया।

विश्वजीत 'सपन'
10.06.2013

Wednesday, June 5, 2013

यूट्यूब पर देशभक्ति गीत और उसका लिंक

मित्रों,
यूट्यूब पर  मेरे द्वारा रचित और स्वर दिया गीत ... इसका रसास्वादन आप कर सकते हैं इस लिंक से


गीत एवं स्वर एवं  वीडियो निर्माण - विश्वजीत 'सपन'
संगीत - अमित कपूर 
संगीत संयोजन - राजीव मैसी
 - सधन्यवाद विश्वजीत 'सपन'

Sunday, June 2, 2013

संसार की रचना करो - गीत यूट्यूब पर


प्रिय मित्रों,मेरी एक रचना का सस्वर आनंद यूट्यूब पर इस लिंक को खोलकर उठायें और अपनी प्रतिक्रिया दें


https://www.youtube.com/watch?v=x1-2J1YF_Do

गीत एवं स्वर एवं  वीडियो निर्माण - विश्वजीत 'सपन'
संगीत - अमित कपूर 
संगीत संयोजन - राजीव मैसी
 - सधन्यवाद विश्वजीत 'सपन'

An Article In DC on 25.05.2013 about the author of this blog


Thursday, May 16, 2013

गंगा का विचित्र आचरण (कथा - 5)

 

 वैशम्पायन जी जनमेजय को कथाक्रम में बताते हैं कि इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नामक राजा थे। उन्होंने अश्वमेध और राजसूय यज्ञ करके स्वर्ग प्राप्त किया। एक दिन सभी देवता आदि ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए। वायु ने श्रीगंगाजी के वस्त्र को उनके शरीर से खिसका दिया। तब सबों ने आँखें नीची कर लीं, किन्तु महाभिष उन्हें देखते रहे। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि तुम मृत्युलोक जाओ। जिस गंगा को तुम देखते रहे हो, वह तुम्हारा अप्रिय करेगी। इस प्रकार उनका जन्म प्रतीक के पुत्र शांतनु के रूप में हुआ।

महाभारत, आदिपर्व



प्रतापी राजा प्रतीप के बाद उनके पुत्र शान्तनु हस्तिनापुर के राजा हुए। वे बड़े ही नेकदिल और दयालु थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। एक दिन की बात है। राजा शिकार खेलने निकले। शिकार की खोज में जंगल में दूर तक निकल गए। वहीं कहीं जंगल के मध्य बहती गंगा नदी को देखकर उन्होंने आराम करने की सोची। उन्होंने नदी से जल पिया और वहीं एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। तभी उन्होंने नदी के तट पर एक परम सुन्दरी स्त्री को देखा। उसे देखते ही राजा को उससे अनुराग हो गया। थकान भूलकर तुरन्त उसके पास गए और पूछा - 

‘तुम कौन हो सुन्दरी? यहाँ इस वीराने में क्या कर रही हो?’

उस स्त्री ने बिना झिझक के कहा - ‘मैं गंगा हूँ।’

राजा ने पहले अपना परिचय दिया और कहा - ‘तुम बहुत सुन्दर हो। क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?’

‘राजन् ! यह मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी। लेकिन मेरी एक शर्त है।’ गंगा ने कहा।

‘मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है।’ राजा शान्तनु उसकी मोहिनी सूरत पर मर मिटे थे।

‘ऐसे नहीं राजन्, पहले मेरी शर्त सुन लें।’ गंगा ने आग्रह कर कहा। 

‘देखो गंगे, यह राजा का वचन है। मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है।’ शांतनु ने अधीर होते हुए कहा, जैसे तुरन्त उसके मुख से उसकी हाँ सुनने को इच्छुक हों।

‘फिर भी महाराज, आप इसे सुनने के बाद ही हाँ कहें।’ गंगा ने फिर से वही बात बड़ी ही निश्चिंतता से कही।

‘ठीक है प्रिये, यदि तुम इसी समय कहना चाहती हो, तो कहो तुम्हारी क्या शर्त है?’ शांतनु ने गंगा की बात मानकर कहा।
 
‘तो सुनिए राजन् ! मैं चाहे जो करूँ। वह अच्छा हो या बुरा आप मुझे कुछ मत कहिएगा। मुझे रोकिएगा नहीं। जिस दिन आप मुझे रोकेंगे या फिर गुस्सा करेंगे, उसी दिन मैं आपको छोड़कर हमेशा के लिए चली जाऊँगी।’ गंगा ने अपनी शर्त बतलाई।

राजा शांतनु को इस समय गंगा की हाँ से मतलब था। इसलिए उन्होंने कुछ पूछ-ताछ नहीं की और शर्त स्वीकार कर ली। इस शर्त को स्वीकार कर लेने के बाद गंगा ने उनसे विवाह करने के लिए हाँमी भर दी। 

उसके बाद शांतनु गंगा को लेकर हस्तिनापुर चले आए। वहाँ खूब धूमधाम से उनकी शादी हुई। उसके बाद कई वर्षों तक गंगा और शांतनु सुख से रहे। इस बीच गंगा के सात पुत्र हुए, लेकिन कोई भी जीवित नहीं रहा। ज्यों ही पुत्र पैदा होता था गंगा उसे गंगा नदी में फेंक दिया करती थी। राजा शांतनु को बहुत दु:ख होता था, लेकिन वे कुछ कह नहीं पाते थे। उन्हें भय था कि उनके मना करते ही गंगा उन्हें छोड़कर चली जाएगी।

फिर गंगा ने आठवें पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के जन्म होते ही गंगा उसे लेकर नदी की ओर जाने लगी तो राजा शांतनु अपने आपको नहीं रोक पाए। उस नन्हें से बच्चे को भी मरना पड़ेगा यह सोचकर वे दुखी हो गए। आखिर कब तक अपने मासूम बच्चों की हत्या देखते रहेंगे।

यह सोचकर उन्होंने गुस्से में कहा - ‘तुम कैसी माँ हो, जो अपने ही पुत्र को जन्म लेते ही नदी में फेंक देती हो। तुम्हें दया नहीं आती। यह कैसा घोर पाप कर रही हो तुम? कम से कम इस नन्हें बालक पर तो दया करो।’

‘ठीक है, जैसा आप कहें। लेकिन अब मेरा यहाँ रहना नहीं हो सकता। शर्त के अनुसार मैं आपको छोड़कर जा रही हूँ।’ गंगा ने बिना किसी दुख या पश्चात्ताप के कहा।

राजा शांतनु को दु:ख हुआ कि उसकी सुन्दरी पत्नी उसे छोड़कर चली जाएगी। लेकिन वे जानना चाहते थे कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?

उन्होंने पूछा - ‘ठीक है, तुम चली जाओ। लेकिन यह तो बताओ कि तुमने ऐसा क्यों किया?’

‘राजन् ! इसके लिए मुझे आपको वसुओं की कहानी सुनानी पड़ेगी।’ ऐसा कहकर गंगा ने वसुओं की कहानी कुछ इस प्रकार सुनाई।

बहुत समय पहले की बात है। वरुण के पुत्र वशिष्ठ मुनि मेरु पर्वत पर तपस्या करते थे। उनके पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी नाम की एक गाय थी, जो यज्ञ के लिए दूध आदि दिया करती थी। जब तक यज्ञ चलता रहता था नन्दिनी के दूध की धार बंद नहीं होती थी। जो भी उसका दूध पीता था, वह दस हजार वर्षों तक जवान और जीवित रहता था। इसलिए नन्दिनी मुनि को बहुत ही प्यारी थी।

एक दिन वसु अपनी पत्नियों के साथ वन में घूमने गए, जहाँ मुनि वशिष्ठ का आश्रम था। द्यौ नाम के वसु की पत्नी की दृष्टि नन्दिनी पर पड़ी। उसे वह बहुत अच्छी लगी। उसे नन्दिनी के बारे में सबकुछ पता था। उसने द्यौ से कहा कि उसे नंदिनी चाहिए। द्यौ ने अपनी पत्नी को बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं मानी। तब वसुओं ने नंदिनी का हरण कर लिया।

उधर मुनि वशिष्ठ फल-फूल लेकर आश्रम लौटे तो उन्हें नन्दिनी कहीं दिखाई नहीं दी। जंगल में जगह-जगह जाकर उन्होंने ढूँढा लेकिन वह नहीं मिली। वे चिंतित हो गए। यह पहली बार था जब नंदिनी ऐसे गायब हो गई थी। तब उन्होंने अपनी दिव्य-दृष्टि का प्रयोग किया। उन्हें पता चल गया कि वसुओं ने उनकी नंन्दिनी का हरण किया है। वे बड़े क्रोधित हो गए। उन्होंने वसुओं को शाप दे दिया कि उनको आदमी बनकर पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा।

शाप की बात पता चलते ही वसु भागे-भागे मुनि वशिष्ठ के पास गए। उन्होंने अपनी गलती के लिए क्षमा माँगी और शाप से मुक्ति की प्रार्थना की।

वशिष्ठ ने कहा - ‘यह तो होकर ही रहेगा। इसलिए तुम लोगों को पृथ्वी पर जन्म तो लेना ही पड़ेगा। किन्तु, क्षमा मुनियों का धर्म है। इसलिए इतनी छूट देता हूँ कि अन्य सभी वसु तो जन्म के तुरन्त बाद ही मुक्ति पा लेंगे, लेकिन द्यौ को वहीं रह कर अपना कर्म भोगना पड़ेगा। यह वसु पुत्र पैदा नहीं कर सकेगा। पिता की प्रसन्नता के लिए स्त्री सुख से भी इसे दूर रहना पड़ेगा।’

इस प्रकार वसुओं की कहानी समाप्त कर गंगा ने कहा - ‘वशिष्ठ जी की बात सुनकर वे सब के सब मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि वे मेरे गर्भ से जन्म लेना चाहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जन्म लेते ही उन्हें जल में फेंक देना। मैंने वैसा ही किया। यह आठवाँ पुत्र द्यौ नामक वसु है, जिसे यहीं धरती पर रहकर अपने कर्म भोगने हैं।’


यह कहकर गंगा अपने पुत्र के साथ वहाँ से चली गई। राजा शांतनु का मन शांत हो गया। लेकिन गंगा के चले जाने का दु:ख रहा। फिर भी वे अपनी प्रजा को सुखी रखते थे। कई वर्षों बाद एक दिन वे गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि गंगा का जल नदी में बहुत थोड़ा ही रह गया है। वे चकित रह गए। खोज करने पर उन्हें पता चला कि एक बड़ा ही बलवान् और सुन्दर बालक अपने अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है। उसने अपने बाणों से गंगा की धार को बाँध रखा है। वे उस बालक के पास गए। किन्तु, उस बालक ने उन्हें भी मोहित कर दिया और गुम हो गया।


राजा गंगा के पास गए और उससे इस रहस्य को जानने की प्रार्थना की। गंगा ने उनकी प्रार्थना सुन ली। स्त्री के रूप में उस बालक के साथ राजा के पास आई।

राजा ने पूछा - ‘गंगे ! यह कुमार कौन है?’

‘यह आपका ही पुत्र है, देवव्रत। यह सभी विद्याओं में पारंगत है। आप इसे अपने साथ ले जाइए।’ यह कहकर वह गंगा में विलीन हो गई।

राजा देवव्रत को लेकर हस्तिनापुर आ गए। उसे हस्तिनापुर का युवराज बनाया और सुखपूर्वक राज्य करने लगे। 
============================================================ विश्वजीत 'सपन'

Friday, December 14, 2012

One Ghazal on youtube.

Dear Friends Have a Nice Time with this Ghazal of Mine on Youtube. The link is below and Please do let me know your feelings about it.

प्रिय मित्रों, मेरी इस ग़ज़ल का आनंद उठायें और हमें अनुगृहीत करें. नीचे दिए लिंक को दबाएँ और अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं ..

http://youtu.be/BWX6Xy5EXd0

Tuesday, June 12, 2012

कुरुवंश की स्थापना (कथा 4)


गंधर्वराज चित्ररथ महापराक्रमी अर्जुन से पराजित हो गए। तब उन्होंने अर्जुन को तपतीनंदन कहकर संबोधित किया। अर्जुन ने उनसे पूछा कि वे तो कुन्ती के पुत्र हैं, फिर तपतीनंदन कैसे हुए। इस पर गंधर्वराज ने सूर्यपुत्री तपती की कथा सुनाई।


महाभारत, आदिपर्व

 

महाभारत में कुरुवंश का बहुत नाम है। अर्जुन के पूछने पर गंधर्वराज ने कुरुवंश की उत्पत्ति की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई।



सूर्य भगवान् की पुत्री का नाम तपती था। वह सावित्री की छोटी बहन थी। अपने पिता के समान तेज वाली और बहुत ही सुन्दर थी। उसकी इतनी सुन्दर थी कि उसकी सुंदरता से पाताल, पृथ्वी और स्वर्ग तीनों ही लोकों की स्त्रियाँ जलती थीं। वह मात्र सुन्दर ही नहीं थी, बल्कि नित्य-नियम से पूजा-पाठ भी करती थी। वस्तुत: अपनी तपस्या के कारण ही वह तीनों लोकों में ‘तपती’ के नाम से प्रसिद्ध थी। जब वह शादी करने के योग्य हुई तो उसके पिता सूर्य को इसकी चिंता सताने लगी। वे उसके लिए कोई योग्य वर की तलाश में थे। पुत्री के गुण एवं सुन्दरता के अनुकूल योग्य वर ढूँढना ही पिता की सबसे बड़ी चिंता होती है।

दैवयोग से उस समय पूरी धरती पर पुरुवंश का राज्य था और उसी समय इसी वंश के बड़े ही प्रतापी राजा संवरण का नाम समस्त धरा पर जगमगा रहा था। सौभाग्य से वे सूर्य के सच्चे भक्त थे। प्रतिदिन सूर्यदेव की वंदना बड़ी ही भक्ति-भाव से किया करते थे। सूर्यदेव भी उसकी पूजा से प्रसन्न थे। वे संवरण को अपनी बेटी के लिए योग्य वर भी मानते थे।
 
एक दिन की बात है। संवरण शिकार खेलने वन में निकले। उस दिन कोई अच्छा शिकार नहीं मिल पा रहा था। इसलिए वे आगे बढ़ते गए और पहाड़ की तराइयों में जा पहुँचे। उनकी पूरी सेना पीछे छूट गई। फिर भी वे आगे बढ़ते ही रहे। भूख और प्यास से तड़पकर उनका घोड़ा मर गया। तब वे पैदल ही चलने लगे। काफी देर चलते-चलते थक गए। एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। चारों तरफ बड़े-बड़े विशालकाय पेड़ थे। पहाड़ियों से घिरा वह निर्जन प्रदेश भयावह लग रहा था। तभी उनकी दृष्टि अद्वितीय सुन्दरी तपती पर पड़ी। उस सुनसान जंगल में इतनी रूपमती कन्या को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। इस वीराने में यह कौन हो सकती है? उन्होंने जानना चाहा और वे चुपके से उसके पास चले गए तो उसकी सुन्दरता को देखकर हैरान रह गए। अपनी थकान भी भूल गए। कुछ देर निहारने के बाद उन्होंने आवाज़ देकर कहा - ‘हे सुन्दरि ! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है और तुम इस निर्जन वन में क्या कर रही हो?’

तपती राजा की आवाज़ सुनकर चौंकी। उसे वहाँ किसी के होने का अंदेशा नहीं था। उसने मुड़कर संवरण को देखा। कामदेव की तरह सुन्दर संवरण थके-थके से जान पड़ रहे थे। क्षण भर के लिए वह स्तब्ध रह गई और उन्हें देखती ही रह गई। फिर अचानक ही बिना कुछ बोले उड़कर बादलों में गुम हो गई।

पहली बार देखते ही वह संवरण के मन को भा गई थी। उसके इस तरह अचानक गुम हो जाने से राजा को बहुत दु:ख पहुँचा। वे उसे ढूँढने लगे। इधर-उधर हर तरफ उसे पुकारने लगे। किन्तु वह नहीं मिली। कुछ देर बाद निराशा, थकान और भूख-प्यास के कारण वे बहोश होकर गिर पड़े।

तपती बादलों की ओट से उन्हें ही देख रही थी। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई यहाँ तक कैसे पहुँच सकता था। उसने मन ही मन विचार किया कि अवश्य ही दैवयोग के कारण ऐसा हुआ होगा। वह भी राजा को पसंद करने लगी थी, किन्तु वह नहीं जानती थी कि वे कौन थे, और इसी कारण से छुप गई थी। फिर जब उसने राजा को बेहोश होते देखा तो उसके पास आकर बोली - ‘उठिये राजन् उठिये। जंगल में इस प्रकार अकेले रहना ठीक नहीं।’

उसकी मीठी वाणी ने जैसे औषधि का काम किया और राजा उठ गए। उन्होंने फिर पूछा - ‘हे सुन्दरि ! तुम कौन हो और इस जंगल में क्या कर रही हो?’

तपती ने कहा - ‘मैं तपती हूँ। मेरे पिता सूर्यदेव हैं। मैं यहाँ अक्सर घूमने आती हूँ। लेकिन आप यहाँ कैसे?’

संवरण ने अपने शिकार वाली सारी बातें बता कर कहा - ‘सुन्दरि ! तुम्हें देखने के बाद मेरी थकान दूर हो गई है। अब मैं कोसों चल सकता हूँ। क्या तुम मेरा साथ दोगी?’

‘मैं आपका मतलब नहीं समझी !’ तपती ने पूछा।

‘मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ। तुम इंकार मत करना।’ राजा ने स्पष्ट किया।

तपती बोली - ‘राजन् ! मेरे पिता जीवित हैं। इसलिए यह निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। यदि आप सचमुच ही मुझसे प्रेम करते हैं तो आप मेरे पिता से कहिए। वे ही इस सम्बन्ध में निर्णय लेने के अधिकारी हैं।’
यह कहकर तपती उड़कर आकाशमार्ग से बादलों में जाकर गुम गई।

राजा संवरण बहुत दु:खी हुए। लेकिन वे अपनी कामना पर अटल रहे। इस बीच उन्हें ढूँढते हुए उनकी सेना भी वहीं आ पहुँची। लेकिन राजा संवरण ने जाने से इंकार कर दिया। वे अब किसी भी कीमत पर तपती से विवाह करने को उत्सुक थे। इसलिए उसी स्थान पर खड़े होकर सूर्यदेव की पूजा करने लगे और मन ही मन उन्होंने अपने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ का ध्यान किया। इस प्रकार तपस्या करते हुए बारह दिन बीत गए। बारहवें दिन उनकी इस कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर वशिष्ठ उनके पास आए। राजा संवरण को उस अवस्था में देखकर क्षण भर में उनके मन का हाल जान गए। फिर भी राजा ने अपने मन की बात कही तो बोले - ‘चिंता न करो पुत्र। मैं अभी जाकर सूर्यदेव से इस बारे में बात करता हूँ।’

यह कहकर वशिष्ठ सूर्य भगवान् से मिलने गए। सूर्यदेव ने महर्षि का स्वागत किया और आने का कारण पूछा तब उन्होंने सूर्यदेव को अपना परिचय देकर संवरण के मन का हाल और उनकी इच्छा के बारे में बताया। सूर्यदेव को लगा जैसे उन्होंने उनके मुँह की बात छीन ली थी। वे तो पहले से ही संवरण को तपती के लिए योग्य वर मान चुके थे। उन्होंने तुरन्त यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

वशिष्ठ उसी समय तपती को लेकर संवरण के पास आ गए। बड़ी धूमधाम के साथ उनका विवाह हुआ। कुछ वर्षों के बाद उनके एक पुत्र हुआ। उसका नाम था कुरु। इसी राजा कुरु के नाम से ही प्रसिद्ध कुरुवंश की स्थापना हुई।

विश्वजीत 'सपन'