ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
गीता
के चतुर्थ अध्याय में ‘ज्ञानकर्मसंन्यासयोग’ का वर्णन है। यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द विवेक का बोधक है और कर्म एवं संन्यास के विशेषण के
रूप में प्रयुक्त हैए अर्थात् ‘कर्म एवं संन्यास’ का सम्यक् ज्ञान ही ‘ज्ञानकर्मसंन्यासयोग’ है। यहाँ विवेक का अर्थ कर्म के औचित्य एवं अनौचित्य का
सूक्ष्म विवेचन और उसका बोध है। यह अध्याय अपने आप में कोई पूर्ण दर्शन न होकर
तृतीय अध्याय के परिशिष्ट के रूप में है और पंचम अध्याय की पूर्वपीठिका के रूप में
भी। इसे तृतीय अध्याय का ही विस्तार कहें तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी। कारण कि
प्रारंभ में कर्म में निष्कर्मता थी और संन्यास के लिए कर्म-त्याग की कोई आवश्यकता
नहीं थी,
किन्तु समय के साथ जब यज्ञादि कर्मों में सकामता का प्रवेश
हुआ तो कर्म को दोषयुक्त माना गया। तब कर्म-त्याग की अवधारणा विकसित हुई और सांख्य
अथवा ज्ञान-मार्ग की स्थापना हुई, जिसके परिणामस्वरूप कर्म मार्ग एवं ज्ञान मार्ग दो भिन्न
मार्ग स्थापित हो गए। तृतीय अध्याय में जिस कर्मयोग की स्थापना हुई उसी बात को
गीताकार ने आगे बढ़ाया और कहा कि कर्म का ज्ञान कैसे हो? वे कौन से कर्म हैं जो उचित हैं? वर्ण क्या हैं, कौन से यज्ञ क्या फल देते हैं, हमें कैसे कर्म करने चाहिए? ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर इस अध्याय के माध्यम से दिए गए
हैं। वस्तुतः देखा जाए तो इस अध्याय में कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातों पर विमर्श
हुए हैं,
जो जीवन-क्रम में सफल एवं मंगल हेतु आवश्यक हैं।
चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। गी.4.13।।
अर्थात्
मैंने ही गुण एवं कर्मों को आधार बनाकर चार वर्णों की रचना की है। इसे कुछ इस
प्रकार से समझा जा सकता है कि मनुष्य की चार प्रकृतियाँ होती हैं, जो केवल मानवमात्र में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों एवं
वनस्पतियों में भी पाई जाती हैं। ये प्रकृतियाँ तीन गुणों पर आधारित हैं -
सत्त्वगुण, रजोगुण
एवं तमोगुण। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण की, रजोगुण की प्रधानता एवं सत्त्वगुण की गौणता से से क्षत्रिय
की,
रजोगुण की प्रधानता एवं तमोगुण की गौणता से वैश्य की तथा
तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार गोवंश
ब्राह्मण-प्रकृतिक, शेर,
चीता आदि क्षत्रिय-प्रकृतिक, हाथी, ऊँट आदि वैश्य-प्रकृतिक एवं शूकर आदि शूद्र-प्रकृतिक हैं।
हंस,
कबूतर आदि ब्राह्मण-प्रकृतिक, बाज आदि क्षत्रिय-प्रकृतिक, चील आदि वैश्य-प्रकृतिक तथा कौवा आदि शूद्र-प्रकृतिक हैं।
इतना ही नहीं बल्कि शरीर में सिर ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य एवं पैर शूद्र प्रकृतिक हैं। वस्तुतः यह सारी
सृष्टि ही त्रिगुण आधारित है और तदनुसार ही व्यवहार भी करती है। यह सार्वभौमिक
व्यवस्था कर्म पर आधारित है। इसे आज जाति आधरित मानकर अनुचित कहा जाता है, किन्तु जो सार्वभौम सत्य और तथ्य है कि ये वस्तुतः मानवीय
प्रकृतियाँ हैं और कोई भी मानव अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता है अथवा उसकी
रुचि उन्हीं कर्मों में होती है।
श्रीकृष्ण
ने अर्जुन को कर्म की महत्ता और उसके प्रकार को बहुत विस्तार से समझाते हुए कहा है
कि यह ज्ञान नया नहीं है क्योंकि इसे उन्होंने बहुत पहले ही सूर्य को बताया था और
सूर्य ने मनु को बताया। उसके बाद मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था। यहीं पर वे कर्म, अकर्म और विकर्म की परिभाषा देते हुए सरलता से अपनी बात को
स्पष्ट करते हैं। सभी प्रकार के दैनिक कार्य और कर्तव्य कर्म हैं, इनमें सकाम भावना रहती है, अतः यह कर्म का सामान्य रूप है। जब हम वही कर्म हम कर्तव्य
समझ कर निर्लिप्त भाव से लोकहित में करते हैं तो वह कर्म अकर्म बन जाता है, जो आदर्श कर्म माना जाता है। तीसरी स्थिति विकर्म की होती
है,
जो ईर्ष्या-द्वेष, परपीड़न या संकुचित स्वार्थ के लिए किए जाते हैं। ये वस्तुतः
निषिद्ध माने जाते हैं और पाप की श्रेणी में आते हैं। अकर्म करने वाला कर्म-बन्धन
से मुक्त हो जाता है। अतः मानव को ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से दूर और सफलता-असफलता में सम मनःस्थिति वाला होना
चाहिए। ऐसे मनुष्य को कर्म-बन्धन कभी प्रताड़ित नहीं करता है।
इसी
अध्याय में ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याय ज्ञानयज्ञ आदि बारह प्रकार के यज्ञों के वर्णन
किए गए हैं। ये सभी यज्ञकर्म ही अपेक्षित हैं। इन्हें करने वाला अकर्म कर्म करता
है और पाप-कर्मों से मुक्त हो जाता है। यह तथ्य बहुत सुन्दरता से इस श्लोक में
बताया गया है।
यथैधांसि
समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः
सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। गी.4.37।।
अर्थात्
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को पूर्णतः भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि सम्पूर्ण पाप-कर्मों को पूर्णतः
भस्म कर देती है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्त करने वाला सभी प्रकार के
पाप-कर्म से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है। ज्ञान चाहे जब भी प्राप्त हो, यह स्थिति बनी रहती है। अतः मनुष्य को सम्यक ज्ञान की ओर
प्रवृत्त होना चाहिए और अकर्म करना चाहिए।
इसी
क्रम में वे कहते हैं -
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम्।। गी.4.7।।
परित्ऱाणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवानि युगे युगे।। गी.4.8।।
अर्थात्
हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब सज्जन पुरुषों के उद्धार के लिए, पापियों के विनाश करने के लिए एवं धर्म की स्थापना के लिए
मैं वैसे सभी युगों में प्रकट होता हूँ। ईश्वर इस बात का संकेत देते हैं कि उनका
आगमन प्रत्येक उस युग में होता रहेगा, किसी न किसी रूप में, जब-जब मानवता पर संकट आएगा।
अतः
हम सभी को आसक्ति के भाव का त्याग करना चाहिए एवं अपने कर्म इस प्रकार करने चाहिए
कि वे अकर्म बन जाएँ। वे स्वयं कहते हैं कि मैंने भी सृष्टि की रचना की किन्तु वह
मेरा अकर्म ही है क्योंकि उसके लिए मेरी कोई सकामता नहीं है। और इसलिए हे अर्जुन!
तुम हृदय में स्थित इस अज्ञान जनित संशय को तत्त्वज्ञान रूपी तलवार से काट डालो और
अपने कर्म करो क्योंकि विवेकहीन एवं संशय रखने व्यक्ति का पतन निश्चित है।
विश्वजीत 'सपन'
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