कर्मयोग
गीता को पढ़ते समय इस बात का अनुभव किया जा सकता है कि गीता
के द्वितीय अध्याय का प्रारंभिक भाग वेदान्त दर्शन से प्रभावित है। उस कालखण्ड में
सांख्य को ही सर्वोच्च दर्शन माना गया था, जिसमें ज्ञान की महत्ता को उचित और मोक्ष का कारण माना गया
था तथा कर्म त्याग को प्रश्रय दिया गया था। हमें इस बात को समझना होगा कि महाभारत
काल में सांख्ययोग एवं कर्मयोग की साधनाएँ बहुलता से प्रचलित थीं और वे विपरीत
दिशा में गमनशील थीं। स्थितियाँ इतनी विकट थीं कि संन्यासी कर्म नहीं करता था और
गृहस्थ संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता था। जबकि यह भी सत्य है कि भारतीय दर्शन में
कभी भी कर्म की महत्ता को कम नहीं किया गया था। ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ (यजु. 1.1) अर्थात् प्रत्येक शुभकर्म यज्ञ है, यह वैदिक काल से ही मान्यता रही थी। किन्तु समय के साथ
समाज में परिवर्तन नियम है और एक विचार को अधिक प्रश्रय देना भी स्वाभाविक है। ऐसे
में जब समाज दो धड़ों में बँट गया तो एक सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक हो गया था और
इसी पृष्ठभूमि में कर्म की महत्ता को स्थापित करना गीता का उद्देश्य था। वह कर्म
कैसा हो?
क्यों हो? यही विस्तार तृतीय अध्याय में मिलता है। अतः अर्जुन की
दुविधा मात्र उसकी नहीं है बल्कि समस्त समाज की है और इसलिए जब कर्म-त्याग को
प्रश्रय दिया गया और पुनः कर्म करने को कहा गया जो परस्पर विरोधी बातें थीं तो
अर्जुन का भ्रमित होना अपेक्षित था।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे
मां नियोजयसि केशव।।गी.3.1।।
अर्थात् हे जनार्दन, यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है तो हे केशव, मुझे आप युद्ध जैसे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
अर्जुन का कहना उचित था और प्रश्न भी उचित था कि जब इस संसार में ज्ञान की ही महत्ता है और उसे श्रेष्ठ माना गया है तो फिर युद्धकर्म को किस प्रकार उचित माना जाए। इसमें तो मानव-हत्या का भी दोष है। ऐसे कर्म करने को कहना क्या उचित है? अर्जुन का कथन इसलिए भी उचित प्रतीत होता है क्योंकि जब केवल ज्ञान से ही भ्रम दूर होगा और किसी का कल्याण संभव होगा तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है? जब श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय में पहले ज्ञानयोग और उसके पश्चात् कर्मयोग की बातें कीं तो अर्जुन का इस तरह भ्रमित होना एक सामान्य स्थिति थी और यह वह स्थिति थी जहाँ से कर्म और ज्ञान के समन्वय की स्थापना का बीज बोना था। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भ्रांति का निवारण करते हुए बताया कि कर्मत्याग के निर्देश नहीं हैं बल्कि दोनों ही योगों में कर्म आवश्यक हैं।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
अर्थात् हे जनार्दन, यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है तो हे केशव, मुझे आप युद्ध जैसे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
अर्जुन का कहना उचित था और प्रश्न भी उचित था कि जब इस संसार में ज्ञान की ही महत्ता है और उसे श्रेष्ठ माना गया है तो फिर युद्धकर्म को किस प्रकार उचित माना जाए। इसमें तो मानव-हत्या का भी दोष है। ऐसे कर्म करने को कहना क्या उचित है? अर्जुन का कथन इसलिए भी उचित प्रतीत होता है क्योंकि जब केवल ज्ञान से ही भ्रम दूर होगा और किसी का कल्याण संभव होगा तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है? जब श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय में पहले ज्ञानयोग और उसके पश्चात् कर्मयोग की बातें कीं तो अर्जुन का इस तरह भ्रमित होना एक सामान्य स्थिति थी और यह वह स्थिति थी जहाँ से कर्म और ज्ञान के समन्वय की स्थापना का बीज बोना था। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भ्रांति का निवारण करते हुए बताया कि कर्मत्याग के निर्देश नहीं हैं बल्कि दोनों ही योगों में कर्म आवश्यक हैं।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्सनादेव
सिद्धिं समधिगच्छति।।गी.3.4।।
अर्थात् मनुष्य न तो कर्मों को करना बंद करके निष्कामता को प्राप्त कर सकता है और न ही कर्मों के त्यागमात्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
कर्म तो प्राकृतिक हैं और उन्हें करना ही होता है और साथ ही गीता में स्पष्ट कहा गया है कि कर्म तो स्रष्टा का प्रथम आदेश है। इसलिए गीता में कर्म को यज्ञ कहा गया है और यज्ञकर्म करने के बाद अन्न ग्रहण करने वाले को पुण्यात्मा कहा गया है। वस्तुतः यज्ञकर्म में ही ब्रह्म नित्य स्थित है - "तस्मात् ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्" (गी.3.15)। यह इसलिए भी कि कर्म प्रणिमात्र का धर्म है और उसे चाहिए कि वह अच्छे कर्म करके एक आदर्श प्रस्तुत करे ताकि लोग उनका अनुसरण कर सकें - "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः" (गी.3.21)। यह भी एक सत्य है कि जैसे कर्म बड़े लोग करते हैं, छोटे भी उसी का अनुसरण करते हैं और इसलिए ईश्वर जो सबसे बड़े हैं, उन्हें सबसे अधिक सावधान होकर कर्म करना पड़ता है। किन्तु वे कर्म कैसे हों? इस पर भी विचार गीता के इस अध्याय में विस्तार से किया गया है।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
अर्थात् मनुष्य न तो कर्मों को करना बंद करके निष्कामता को प्राप्त कर सकता है और न ही कर्मों के त्यागमात्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
कर्म तो प्राकृतिक हैं और उन्हें करना ही होता है और साथ ही गीता में स्पष्ट कहा गया है कि कर्म तो स्रष्टा का प्रथम आदेश है। इसलिए गीता में कर्म को यज्ञ कहा गया है और यज्ञकर्म करने के बाद अन्न ग्रहण करने वाले को पुण्यात्मा कहा गया है। वस्तुतः यज्ञकर्म में ही ब्रह्म नित्य स्थित है - "तस्मात् ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्" (गी.3.15)। यह इसलिए भी कि कर्म प्रणिमात्र का धर्म है और उसे चाहिए कि वह अच्छे कर्म करके एक आदर्श प्रस्तुत करे ताकि लोग उनका अनुसरण कर सकें - "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः" (गी.3.21)। यह भी एक सत्य है कि जैसे कर्म बड़े लोग करते हैं, छोटे भी उसी का अनुसरण करते हैं और इसलिए ईश्वर जो सबसे बड़े हैं, उन्हें सबसे अधिक सावधान होकर कर्म करना पड़ता है। किन्तु वे कर्म कैसे हों? इस पर भी विचार गीता के इस अध्याय में विस्तार से किया गया है।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म
कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।गी.3.9।।
अर्थात् यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अलावा यदि कोई अन्य कर्म करता है तो वह कर्म-बंधन में बँधता है, अतः हे कुन्तीनन्दन! तुम यज्ञ में करणीय कर्म को अनासक्त होकर करो।
कर्तव्य पालन के कर्म का अर्थ है सभी प्रकार के कार्य अर्थात् खेती-बाड़ी, व्यापार, नौकरी आदि मनुष्य के कर्तव्य-पालन रूपी कर्म हैं। गृहस्थ कर्म तो मानवमात्र का सबसे का धर्म है। ऐसे कर्मों से ही जीवन का निर्धारण होता है, जिसका त्याग ईश्वरीय इच्छा का सम्मान नहीं हो सकता है। केवल इस बात का ध्यान रखना होगा कि मनुष्य को अपने मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्ति रहित होकर संयमपूर्वक निष्काम भाव से निर्धारित कर्म करना होगा और जो ऐसे कर्म करेगा, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। और इसलिए हे अर्जुन, तुम कर्तव्य के निमित्त किए जाने वाले कर्मों को अनासक्त होकर करो। तुम्हारा कर्म क्षत्रिय धर्म है और जब पाप का विनाश करना हो तो पाप के विरुद्ध युद्ध करना तुम्हारा यज्ञकर्म ही है।
इस प्रकार श्रीकृष्ण कर्म की महत्ता को समझाते हुए यह कहते हैं कि कर्म-विषयक हमारा दृष्टिकोण शुद्ध होना चाहिए। कर्म में स्वधर्म भी आवश्यक है। मानव को कामरूप शत्रु को अपनी बुद्धि मन एवं इन्द्रियों को संयमित करके नष्ट कर देना चाहिए। तभी निष्काम कर्म संभव है। वस्तुतः शरीर, इन्द्रिय आदि सभी प्रकृति के द्वारा निर्मित हैं किन्तु आत्मा उनसे पृथक है और जब इस तथ्य को समझ कर कोई स्वकर्म करते हुए निर्लिप्त रहते हुए अहंता-ममता से मुक्त रहते हैं तो वे ज्ञानी कहलाते हैं।
अर्थात् यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अलावा यदि कोई अन्य कर्म करता है तो वह कर्म-बंधन में बँधता है, अतः हे कुन्तीनन्दन! तुम यज्ञ में करणीय कर्म को अनासक्त होकर करो।
कर्तव्य पालन के कर्म का अर्थ है सभी प्रकार के कार्य अर्थात् खेती-बाड़ी, व्यापार, नौकरी आदि मनुष्य के कर्तव्य-पालन रूपी कर्म हैं। गृहस्थ कर्म तो मानवमात्र का सबसे का धर्म है। ऐसे कर्मों से ही जीवन का निर्धारण होता है, जिसका त्याग ईश्वरीय इच्छा का सम्मान नहीं हो सकता है। केवल इस बात का ध्यान रखना होगा कि मनुष्य को अपने मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्ति रहित होकर संयमपूर्वक निष्काम भाव से निर्धारित कर्म करना होगा और जो ऐसे कर्म करेगा, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। और इसलिए हे अर्जुन, तुम कर्तव्य के निमित्त किए जाने वाले कर्मों को अनासक्त होकर करो। तुम्हारा कर्म क्षत्रिय धर्म है और जब पाप का विनाश करना हो तो पाप के विरुद्ध युद्ध करना तुम्हारा यज्ञकर्म ही है।
इस प्रकार श्रीकृष्ण कर्म की महत्ता को समझाते हुए यह कहते हैं कि कर्म-विषयक हमारा दृष्टिकोण शुद्ध होना चाहिए। कर्म में स्वधर्म भी आवश्यक है। मानव को कामरूप शत्रु को अपनी बुद्धि मन एवं इन्द्रियों को संयमित करके नष्ट कर देना चाहिए। तभी निष्काम कर्म संभव है। वस्तुतः शरीर, इन्द्रिय आदि सभी प्रकृति के द्वारा निर्मित हैं किन्तु आत्मा उनसे पृथक है और जब इस तथ्य को समझ कर कोई स्वकर्म करते हुए निर्लिप्त रहते हुए अहंता-ममता से मुक्त रहते हैं तो वे ज्ञानी कहलाते हैं।
विश्वजीत ‘सपन’
बहुत बहुत आभार आपका ...
ReplyDeleteसादर आभार आपका sia जी. सादर नमन
Deleteसादर आभार आपका ब्लॉग बुलेटिन जी. आपने मेरे पोस्ट को सम्मान दिया उसके लिए हृदय से नमन आपको.
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