Tuesday, September 30, 2014

गीता ज्ञान - 9




                                                   राजविद्याराजगुह्ययोग

‘राजविद्याराजगुह्ययोग’ गीता के नवम् अध्याय में वर्णित है। राजविद्या का अर्थ है समस्त विद्याओं का राजा अर्थात् सर्वोपरि विद्या। उसी प्रकार राजगुह्य का अर्थ है - सर्वोत्कृष्ट तथ्य, जो सर्वाधिक गोपनीय है। श्रीकृष्ण ने इसके पूर्व कहा था कि इस सम्पूर्ण जगत् के महाकारण भगवान् ही हैं, ऐसा दृढ़तापूर्वक मानना ही ‘ज्ञान’ है और भगवान् के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसा अनुभव ही ‘विज्ञान’ है। यह ज्ञान-विज्ञान ही राजविद्या और राजगुह्य है। इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हुए इस नवम् अध्याय में बताया गया है।


    इस अध्याय में भी भक्तियोग का ही विस्तार देखने को मिलता है, जहाँ न केवल भगवान् के विराट स्वरूप का वर्णन मिलता है, बल्कि भक्तिमार्ग की सुगमता का वर्णन भी बहुत सुन्दरता से मिलता है। भक्तिमार्ग राजयोग की भाँति ही एक सरल मार्ग है, जिस पर गमन सुलभ है। अतः भगवान् कहते हैं कि मानव को इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, ताकि वे परमसत्ता का अनुभव सरलता से कर सकें। इसी क्रम में भगवान् अपने विराट स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषध, मन्त्र आदि, सबके जानने योग्य ओंकार एवं वेद और उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान और अविनाशी बीज सब कुछ मैं ही हूँ। मैं ही जीवन और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी। तात्पर्य यह कि इस जगत् में जो कुछ भी विद्यमान है, वह ईश्वर का ही अंश है। उनसे पृथक कुछ भी नहीं, किन्तु वे अंश केवल जगत् सत्य हैं, ईश्वर के समान अविनाशी नहीं। 


    मया ततमिदं सर्वं जगतव्यक्तमूर्तिना।
    मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।गी. 9.4।।
    न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
    भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।। गी. 9.5।।


    अर्थात् सम्पूर्ण जगत् मुझ निराकार रूप परमात्मा से परिपूर्ण है और सारे प्राणी मेरे सहारे सत्तावान् हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। मेरी इस योगशक्ति को देखो। सम्पूर्ण प्रणियों को उत्पन्न करने वाला और उनको धारण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। 


    इस वक्तव्य में भगवान् बहुत ही गूढ़ बात बता रहे हैं कि भगवान् वैसे तो संसार के महाकारण हैं, वे अन्तर्यामी रूप में सब में सर्वत्र व्याप्त हैं, किन्तु स्वरूप में भिन्न होने के कारण उनसे पृथक हैं। इसका सरल कारण यही है कि संसार तो परिवर्तनशील एवं नश्वर है, किन्तु भगवान् एकरूप और अनश्वर हैं। संसार के व्यक्तियों एवं वस्तुओं में एकदेशीयता है अर्थात् वे एक स्थान पर हैं और दूसरे स्थान पर नहीं, किन्तु ईश्वर सर्वव्यापक हैं। वे एक ही साथ एवं एक ही समय सर्वत्र व्याप्त हैं। इसके बाद भी अज्ञानी भगवान् को मानव-शरीरधारी समझते हैं। वे इस बात को नहीं जान पाते हैं कि यह मानव-शरीर धारण संसार के उद्धार हेतु उनका लोक-व्यवहार है। ईश्वर तो निराकार ब्रह्म हैं, वे साकार स्वरूप तो केवल किसी उद्देश्यपूर्ति हेतु ही धारण करते हैं।


    मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
    राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।। गी. 9.12।।


    तात्पर्य यह कि जो अज्ञानी ऐसा मानते हैं, वे आसुरी प्रकृति के होते हैं और उनके सारे अनुष्ठान निष्फल होते हैं। उनके सारे ज्ञान और उनकी आशायें निष्फल हैं। वे विक्षिप्तों जैसा अशान्त जीवन जीते हैं और उनकी प्रकृति राक्षसी एवं आसुरी अर्थात् मूढ़ता भरी बन जाती हैं। जबकि मेरा पूजन बहुत ही सुगम है। इसके लिये किसी विशेष उपादान की कोई आवश्यकता नहीं है। 


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। गी. 9.26।।


जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि वाले निष्काम प्रेमी भक्त उन सभी अर्पण को मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ। अर्थात् इसके लिये आडम्बरों की कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि सरल एवं सच्चे हृदय से प्रेमपूर्वक पूजन की ही आवश्यकता है। सच तो यह है कि 


    समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
    ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। गी. 9.29।।


    भगवान् तो सभी प्राणियों में व्याप्त हैं। उनका न कोई अप्रिय है और न ही प्रिय, तथापि जो भक्त उनको अनन्य भाव से प्रेमपूर्वक भजते हैं, उनमें ईश्वर का वास सहज ही होता है। यदि दुराचारी भी समर्पित भाव से मेरा भजन करता है, तो वह भी साधु मानने योग्य है क्योंकि उसे बोध हो जाता है कि प्रभु के भजन के समान और कुछ भी नहीं है। और इसलिये समर्पित भाव से भजन करने वाला पापी भी शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और अखण्ड शान्ति को प्राप्त करता है। यह तथ्य सत्य है कि ईश्वर का भजन करने वाला सच्चा भक्त कभी पतन की ओर नहीं जाता है। 


    मं हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
    स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। गी. 9.32।।


    अर्थात् हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा अन्य अधम योनिवाले चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे सभी यदि शरणागत होकर मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, तो वे परमगति को प्राप्त करते हैं। अतः सभी को भगवान् की शरण में जाना चाहिये और भक्ति-भाव से पूजन करना चाहिये। यही कल्याण-मार्ग कहा गया है। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य यहाँ वर्णित है कि भगवान् का पूजन सबके लिये है, किसी के लिये यह कदापि वर्जित नहीं है। गीता ग्रन्थ को यही तथ्य अत्यधिक महान् बना देता है, जो छुआ-छूत एवं भेदभाव को मान्यता नहीं देता है। साथ ही यह पापियों के लिये भी उद्धारक है। ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि यदि कोई पापी है तो वह ईश्वर की शरण में नहीं जा सकता। समाज-सुधार को लेकर की गई उक्ति इस ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता है, जो सहज ही दर्शनीय है।


    इस प्रकार इस अध्याय में ज्ञान और विज्ञान, राजविद्या, राजगुह्य एवं भगवद्भक्ति की सरलता एवं उसके लाभ को बड़ी सरलता से बताया गया है। तात्पर्य यह कि गीता में वर्णित ज्ञान-विज्ञान की मान्यता है कि समग्र दृष्टि भगवद्रूप है और निर्गुण रूप में अव्यक्त ब्रह्म ही व्यक्तरूप में सगुण वासुदेव श्रीकृष्ण हैं। इनकी उपासना बहुत सरल है एवं राजमार्ग की भाँति सुगम है, अतः राजविद्या है। गीता-ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ और गोपनीय होने के कारण ही इसे राजविद्या एवं राजगुह्य कहा गया है। राजगुह्य कहने का तात्पर्य आगे के अध्यायों में और स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। 

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विश्वजीत ‘सपन’

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