Tuesday, September 25, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 50


महादैत्य धुन्धु

किसी समय में अयोध्या नगरी पर बृहदश्व नामक राजा राज्य करते थे। वे सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु वंश के बड़े प्रतापी राजा थे। उस समय पृथ्वी पर उनके जैसा पराक्रमी राजा कोई न था। उसके पुत्र का नाम कुवलाश्व था, जो सभी विद्याओं में पारंगत और बड़ा बलवान् था। कुवलाश्व जब राज्य सँभालने के योग्य हो गया तो उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं तपस्या करने का मन बनाकर वन की ओर जाने लगे। प्रजा ऐसा नहीं चाहती थी। उन्होंने रोकने का प्रयास किया, किन्तु बृहदश्व न माने।


जब वो वन-गमन हेतु तैयार हुए, तभी महर्षि उत्तंक उनकी राजधानी में आये और उन्हें वन जाने से रोकते हुए राजा बृहदश्व से कहा - ‘‘राजन्! आप वन को न जायें। आप पहले हमारी रक्षा करें।’’


राजा ने महर्षि का स्वागत किया और पूछा - ‘‘मुनिवर, हमें बताइये कि आपको किस प्रकार का कष्ट है? मेरे योग्य कोई सेवा तो अवश्य बताइये। ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसके लिये मुझे वन-गमन से आप रोकना चाहते हैं?’’


तब महर्षि उत्तंक ने बताया - ‘‘राजन्! तो सुनिये। मेरा आश्रम मरुदेश में है। उस आश्रम के निकट ही रेत से भरा हुआ एक समुद्र है, जिसका नाम उज्जालक सागर है। वहाँ एक बड़ा ही बलवान् और क्रूर महादैत्य रहता है। उसका नाम धुन्धु है। वह मधुकैटभ का पुत्र है। उसने ब्रह्मा जी से वर प्राप्त किया हुआ है, अतः देवता भी उसको मारने में असमर्थ हैं। वह पृथ्वी के भीतर छिपकर रहता है। वर्षभर में मात्र एक बार ही साँस लेता है और जब साँस छोड़ता है, तो सारी धरती डोलने लगती है। रेत का ऊँचा बवंडर उठने लगता है, जिससे सूर्य तक छिप जाता है। अग्नि की लपटें उठने लगती हैं और धुएँ से सारा आकाश भर जाता है। अग्नि की लपटें, चिंगारियाँ और धुएँ उठते रहते हैं। ऐसे में आश्रम में रहना दूभर हो जाता है। जब तक उसका वध नहीं होता, हम कभी भी निर्विघ्न होकर तप नहीं कर पायेंगे। अतः आप उससे हमारी रक्षा कीजिये।’’


राजा ने महर्षि को आश्वस्त किया और बोले - ‘‘ब्रह्मन्! आप चिंतित न हों। मेरा पुत्र कुवलाश्व यह कार्य करेगा। यह पराक्रम एवं तपोबल में धनी है। इसके जैसा पराक्रमी इस भूमण्डल पर कोई नहीं है। यह अवश्य ही इस कार्य को पूर्ण करेगा। इसमें इसके पुत्र भी साथ देंगे। मैंने तो शस्त्रों का त्याग कर दिया है।’’


उत्तंक ने कहा - ‘‘जैसा आप उचित समझें राजन्।’’ ऐसा कहकर महर्षि तपोवन में चले गये। उन्हें नारायण की कही बात स्मरण हो आयी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने कहा था कि बृहदश्व का पुत्र कुवलाश्व ही एक पराक्रमी दैत्य का वध करेगा।


उधर कुवलाश्व अपनी सेना लेकर महर्षि के आश्रम की ओर चल पड़ा। वह अपनी सेना के साथ शीघ्र ही समुद्र तट के उस किनारे पर पहुँच गया, जहाँ वह दैत्य धरती के भीतर सोया हुआ था। उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि रेती को खोदकर उस दैत्य को निकाला जाये। सात दिनों तक निरन्तर खुदाई होने के बाद वह दैत्य दिखाई पड़ा। उसका शरीर अत्यधिक विशाल था और बाहर आते ही ब्रह्माजी के वरदान के कारण देदीप्यमान होकर चमकने लगा। कुवलाश्व की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया। उसे वर प्राप्त था कि देवता, दानव, यक्ष, राक्षस या सर्प से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी। इसी कारण भगवान् विष्णु ने कुवलाश्व में अपना तेज स्थापित कर दिया, ताकि वह धुन्धु का वध कर सके।


बाणों की वर्षा होने से धुन्धु क्रोधित हो उठा। वह उन अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। उसके बाद वह अपने मुख से संवर्तक अग्नि के समान आग की लपटें उगलने लगा। कुवलाश्व की सेना बड़ी थी, किन्तु कुछ ही देर में उन लपटों में जलकर कुवलाश्व की पूरी सेना भस्म हो गयी। उसने क्रोध से कुवलाश्व को देखा, जैसे उसे वह अभी निगल जायेगा। उसने कुवलाश्व की ओर बढ़ना प्रारंभ किया। कुवलाश्व उससे कदापि भयभीत न था। वह भी उसकी ओर बढ़ा। उसके बाद उसने तपोबल से अपने शरीर से जल की वर्षा की। उस वर्षा ने धुन्धु के मुख से निकलती हुई अग्नि को पी लिया। अग्नि के बुझ जाने पर धुन्धु का बल क्षीण हो गया। तभी आकाशवाणी हुई - ‘यह राजा कुवलाश्व स्वयं अवध्य रहकर धुन्धु का वध करेगा और धुन्धुमार के नाम से विख्यात होगा।’


ऐसी आकाशवाणी होते ही देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजा दीं। वे पुष्प की वर्षा करने लगे। चारों दिशाओं में तीव्र हवा चलने लगी। तब धूल को शान्त करने के लिये इन्द्र ने वर्षा प्रारंभ कर दी। इस मध्य कुवलाश्व ने ब्रह्मास्त्र चलाकर उस दैत्य को मार गिराया। इस कारण से कुवलाश्व धुन्धुमार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने अनेक वर्षों तक निष्कंटक पृथ्वी पर राज्य किया। उसके तीन पुत्र हुए - दृढ़ाश्व, कपिलाश्व एवं चन्द्राश्व। इन तीनों से ही इक्ष्वाकु वंश की परम्परा आगे बढ़ी। 



- विश्वजीत 'सपन'

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