Thursday, December 24, 2015

गीता ज्ञान -18 (भाग-1)


अथाष्टादशोऽध्यायः
 
(मोक्षसंन्यास योग)
(भाग-1)

यह अध्याय गीता का अंतिम अध्याय है, अतः उपसंहारात्मक है। उपसंहार में पूर्व कथ्यों पर विहंगम दृष्टि, रचनाकार के मत की स्थापना अथवा निष्कर्ष होता है। इसी कारण से यह गीता का सबसे बड़ा अध्याय है। इसका नामकरण ‘‘मोक्षसंन्यास योग’’ किया गया है, क्योंकि इसमें मोक्ष का भी संन्यास अर्थात् त्याग हो जाता है। इस अध्याय का समापन प्रपत्तिवाद के साथ होता है। प्रपत्ति का अर्थ पूर्ण शरणागति है। इसमें भक्त भगवान् पर पूर्णरूपेण आश्रित होकर चिन्ता-निर्मुक्त हो जाता है। अध्याय बड़ा होने के कारण इसे कुछ भागों में इस ब्लॉग पर प्रस्तुत किया जायेगा, ताकि पाठक को आसानी हो सके।


इस अध्याय में त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्त्ता, बुद्धि, धृति, सुख, वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के लक्षण, कर्म की महत्ता, परब्रह्म-प्राप्ति का सहज साधन, गीता के पठन एवं श्रवण का माहात्म्य आदि के बारे में कथन उपलब्ध है। अतः इस अध्याय को गीता-सार के रूप में समझने में भी कोई हानि नहीं होगी। चूँकि यह सार-संक्षेप है, अतः इसकी व्याख्या विस्तार से की जायेगी। 


इस अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन ने संन्यास एवं त्याग के तत्त्व को जानने का आग्रह किया, तो भगवान् कहते हैं कि कुछ विद्वान् काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और कुछ विद्वान् सम्पूर्ण कर्मों के फल-त्याग को त्याग कहते हैं। कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मों को दोष की भाँति त्याग देना चाहिए, जबकि कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूपी कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ पर यह कहना उचित होगा कि त्याग से सम्बन्धित चार सिद्धान्त हैंः-


1) काम्य कर्मों का त्याग - अर्थात् इष्ट की प्राप्ति एवं अनिष्ट की निवृत्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उनका त्याग संन्यास है।


2) फल की कामना का त्याग अर्थात् फल की इच्छा न कर कर्मों को करते रहना ही त्याग है।


3) कर्म मात्र का त्याग अर्थात् कर्म को ही दोष के समान जानकर उनका त्याग करना चाहिए।


4) यज्ञ, दान, तप आदि का त्याग न करना अर्थात् इनके अलावा अन्य कर्मों के त्याग करना।


इस विषय में मनुष्य को यह तथ्य जानना बहुत आवश्यक है कि यज्ञ, दान और तपरूपी कर्मों के त्याग नहीं करने चाहिए। ये तो पवित्र करने वाले होते हैं। इनमें जो आसक्ति है और फल की कामना है, उसका त्याग करना चाहिए। नियत कर्मों का त्याग उचित नहीं है। त्याग सात्त्विक, राजस और तामस तीन श्रेणियों का होता है। नियत कर्मों का मूढ़ता के कारणवश त्याग करना तामस त्याग कहा गया है, क्योंकि नियत कर्मों से छुटकारा संभव नहीं है और यह उचित भी नहीं है। यज्ञ, दान आदि कर्म करने में अनेक कष्टों को उठाना पड़ता है। अनेक प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं। किसी कर्म को, कि वह दुःख है, ऐसा समझकर किसी शारीरिक क्लेश के कारण कर्तव्य कर्मों का त्याग राजस त्याग कहलाता है। ऐसे त्याग से वास्तविक त्याग का फल नहीं मिलता है। 


इसके बाद सात्त्विक त्याग के बारे में भगवान् कहते हैं कि जो कर्म शास्त्रसम्मत है, जब उसे कर्तव्य भाव से आसक्ति एवं फल-त्याग करके किया जाता है, तो वह सात्त्विक त्याग कहलाता है। शरीरधारी पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का त्याग चाहकर भी नहीं कर सकता है, अतः जो कर्मफलासक्ति का त्याग करता है, वही सच्चा त्यागी है। जो मनुष्य कर्मफल का त्याग नहीं करता है, उसे मृत्यु के बाद भी तीन प्रकार के फल मिलते हैं। ये हैं इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित। इष्ट कर्म वे हैं, जिस परिस्थिति को मनुष्य चाहता है और जिस परिस्थिति को नहीं चाहता वे अनिष्ट कर्म हैं। साथ ही कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनमें इष्ट एवं अनिष्ट का मिश्रण होता है। ऐसे कर्मों के फल उन सभी को भोगने ही पड़ते हैं, यदि उन्होंने कर्मफल का त्याग नहीं किया है। 


कर्म के बारे में समझने के लिये हमें समझना होगा कि पुरुष एवं प्रकृति भिन्न हैं। पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता, जबकि प्रकृति कभी भी परिवर्तन रहित नहीं होती। जब यह पुरुष प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता है, तब प्रकृति की क्रिया पुरुष का कर्म बन जाती है। ये कर्म तीन प्रकार के होते हैं - क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। जो वर्तमान में कर्म किये जाते हैं, वे क्रियमण कर्म हैं। वर्तमान से पहले इस जन्म में किये गये तथा अन्य मनुष्य जन्मों के किये गये कर्म संचित कर्म कहलाते हैं। इस संचित कर्मों से जो कर्मफल देने के लिये उन्मुख हो गये हैं, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं।


क्रियमाण कर्म दो प्रकार के होते हैं - शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं, वे शुभ कर्म कहलाते हैं। इसके विपरीत काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति से प्रेरित शास्त्रनिषिद्ध कर्म अशुभ कर्म कहलाते हैं। इन समस्त क्रियमण कर्म के एक तो फल-अंश बनता है और दूसरा संस्कार-अंश। इस फल-अंश के दो भाग होते हैं - दृष्ट और अदृष्ट। इसमें दृष्ट के भी दो भेद होते हैं - तात्कालिक और कालान्तरिक। जैसे भोजन करने के समय उसका रस आदि दृष्ट कर्म का तात्कालिक फल है, जबकि उसे भोजन के कारण आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना कालान्तरिक फल है। इसी प्रकार अदृष्ट फल-अंश के भी दो प्रकार होते हैं - लौकिक और पारलौकिक। अपने जीवन में ही यज्ञादि कर्मों के द्वारा पुत्र, धन, यश आदि का मिलना लौकिक फल है। जबकि यज्ञादि कर्मों से जब स्वर्गादि की प्राप्ति होती है तो वह पारलौकिक फल है। यहाँ इस बात को समझना होगा कि इस जीवन में धरती पर भोगे गये फल को लौकिक फल कहते हैं। मनुष्य अपने पापकर्मों को यहीं कैद, जुर्माना, अपमान आदि के रूप में भोगने के बाद यह समझने लगता है कि अब उसे कुछ नहीं भोगना है, किन्तु मनुष्य को यह गणना नहीं होती कि उसने पूरा फल होगा है अथवा अधूरा। ईश्वर को इसकी गणना होती है और फिर उसे वे फल भी भोगने ही पड़ते हैं। चाहे यहाँ इस लोक में अथवा परलोक में। 


क्रियमाण कर्म के संस्कार-अंश भी दो प्रकार के होते हैं - शुद्ध एवं पवित्र संस्कार तथा अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार। शास्त्र विहित कर्म करने से जो संस्कार बनते हैं वे पवित्र संस्कार कहलाते हैं और शास्त्रनिषिद्ध कर्म करने से जो संस्कार बनते हैं, वे अपवित्र संस्कार कहलाते हैं। 


संचित कर्म के भी फल-अंश और संस्कार-अंश दो होते हैं। संचित कर्म के फल-अंश से मनुष्य का प्रारब्ध बनता है और संस्कार-अंश से स्फुरणा होती रहती है। ये स्फुरणायें मनुष्य को प्रदत्त कार्य करने को विवश करती रहती हैं। यह तब तक होती रहती हैं, जब तक कि मनुष्य परमात्मा प्राप्ति नहीं कर लेता है। परमात्मा की प्राप्ति पर ये स्फुरणायें नहीं आती हैं। अतः जीवनमुक्त महापुरुष के मन में अपवित्र विचार कभी नहीं आते।


प्रारब्ध कर्म उसे कहते हैं, जो संचित कर्म के फल देने के सम्मुख होते हैं। इन प्रारब्ध कर्मों के फल अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में सामने आते हैं, किन्तु इन प्रारब्ध कर्मों के भोगने के लिये मनुष्य की प्रवृत्ति के तीन प्रकार होते हैं - (1) स्वेच्छापूर्वक (2) अनिच्छापूर्वक और (3) परेच्छापूर्वक। इन स्थितियों को उदाहरण से समझा जा सकता है।


एक व्यापारी धन लगाकर व्यापार करता है और उसे लाभ होता है। दूसरा व्यापारी धन लगाकर व्यापार करता है और उसे हानि होती है। तो यहाँ लाभ और हानि प्रारब्ध के कर्मों के फल हैं, जबकि धन लगाना स्वेच्छापूर्वक है। 


किसी व्यक्ति को गड़ा हुआ धन मिल गया। उधर एक व्यक्ति घोड़े से गिरकर अपने पाँव तुड़वा बैठा। धन मिलना एवं पाँव का टूटना शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं, किन्तु धन का मिलना और पाँव का टूटना अनिच्छापूर्वक है। 


किसी व्यक्ति ने एक बच्चे को गोद ले लिया, तो उस व्यक्ति का सारा धन उस बालक को मिल गया, जिसे बाद में चोरों ने चुरा लिया। यहाँ बच्चे को धन मिलना और चोरों द्वारा चुरा लेना शुभ-अशुभ कर्मों के फल हैं, किन्तु गोद में जाना अथवा चोरी होना परेच्छापूर्वक है।


यहाँ जो बात समझने वाली है कि कर्मों का फल कर्म नहीं होता है, बल्कि परिस्थिति होती है। तात्पर्य यह कि प्रारब्ध कर्मों के फल परिस्थिति के रूप में सामने आते हैं। प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल भी प्राप्त फल एवं अप्राप्त फल दो प्रकार के होते हैं। जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ आ रही हैं, वे प्राप्त फल हैं और जो आगे आने वाली हैं, वे अप्राप्त फल हैं। जब तक संचित कर्म रहते हैं, प्रारब्ध की परिस्थितियाँ बनती ही रहती हैं। यहाँ सामान्य मानव-मन में प्रारब्ध और करने वाले कर्म के मध्य शंका उपस्थित होती है। यदि सभी परिस्थितियाँ प्रारब्ध के कर्मफल के अनुसार ही हों, तो नये कर्म का क्या अर्थ? ऐसे में प्रारब्ध और पुरुषार्थ को जानना आवश्यक हो जाता है। 


मनुष्य में चाहना चार प्रकार की होती है - धन की, धर्म की, भोग की और मुक्ति की। इन्हें सरल शब्दों अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की कामना कहा जाता है। इनमें अर्थ और काम में प्रारब्ध की मुख्यता और पुरुषार्थ की गौणता है, जबकि धर्म और मोक्ष में पुरुषार्थ की मुख्यता और प्रारब्ध की गौणता होती है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ दो अलग-अलग क्षेत्र हैं और इनमें भिन्नता है। प्रारब्ध निश्चित है, क्योंकि यह संचित कर्म के फल के रूप में प्राप्त होता है। पुरुषार्थ व्यक्ति द्वारा किया गया कर्म है, जिसका फल उस कर्म के अनुसार प्राप्त होता है। यह शरीर पुरुषार्थ के लिये मिला है। इसी पुरुषार्थ से धर्मादि कार्यों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। मानव-शरीर सुख-दुख भोगने के लिये नहीं है, क्योंकि उसके लिये स्वर्ग-नरक आदि हैं। यह तो कर्मयोनि है, जहाँ उसे कर्म करना है, जिसका लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है, ताकि वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सके।

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विश्वजीत ‘सपन’

Thursday, November 5, 2015

गीता ज्ञान - 17




                                                         अथ सप्तदशोऽध्यायः
                                                         श्रद्धात्रय-विभागयोग

 

सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि जो पुरुष शास्त्र-विधि का उल्लंघन कर मनमाने ढंग से आचरण करता है, वह सिद्धि, सुख एवं परम गति को प्राप्त नहीं कर सकता है। इसी बात पर सतरहवें अध्याय की भूमिका रखी जाती है, जब अर्जुन प्रश्न करते हैं कि ऐसे आराधकों की क्या गति होती है। इस पर भगवान् उन्हें विस्तार से श्रद्धा के सभी वर्गों के बारे में बताते हैं, यज्ञ, तप एवं दान के वर्गीकरण भी बताते हैं और बाद में ओम्, तत् एवं सत् शब्दों की व्याख्या भी करते हैं। 

श्रद्धा ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूलाधार है। श्रद्धा ही साधना और सिद्धि का द्वार है। मनुष्य श्रद्धा प्रधान है - ‘श्रद्धामयोऽये पुरुषः’। श्रद्धा के अनुसार ही क्रिया में प्रवृत्ति होती है। सभी मनुष्य दुःख से मुक्ति और सुख से संयोग की कामना रखते हैं, किन्तु इस प्रयोजन हेतु क्रिया में प्रवृत्ति उनकी श्रद्धा के अनुसार होती है। इन्हीं के वर्गीकरण को इस प्रकार बताते हैं।


त्रिविधा भवित श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।गी.17.2।।


भगवान् कहते हैं कि स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी इन तीनों प्रकार की होती है। सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। अस्तु जो जैसी श्रद्धा करता है, वैसा ही बन जाता है। इस प्रकार इस अध्याय में श्रद्धा का वर्गीकरण किया गया है और उनके बारे में सविस्तार बताया गया है।


सात्त्विक पुरुष देवोपासक होते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों के, जबकि तामस पुरुष भूत-प्रेतों के उपासक होते हैं। भोजन भी प्रकृति के अनुसार सात्त्विक, राजस और तामस होते हैं। वैसे ही यज्ञ, तप और दान की भी तीन श्रेणियाँ होती हैं। सात्त्विक आहार आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले होते हैं। कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, तीखे, रूखे, जलन पैदा करने वाले, दुःख, चिंता एवं रोगोत्पादक आहार राजस कहलाते हैं। अधपका, रसहीन, दुर्गन्ध युक्त, बासी और उच्छिष्ट एवं अपवित्र आहार तामस कहलाते हैं। 


ठीक उसी प्रकार शास्त्र-विहित, कर्तव्य भावना से प्रेरित और फल की आसक्ति से रहित यज्ञ सात्त्विक कहलाता है। प्रदर्शन के लिये और फल की आसक्ति से सम्पन्न यज्ञ राजसी यज्ञ कहलाता है। शास्त्र-विध से विहीन, अन्न-दान रहित, बिना मंत्र और दक्षिणा के तथा बिना श्रद्धा से किये गये यज्ञ तामस कहलाते हैं। 


देवता, ब्राह्मण एवं गुरुजनों के पूजन से युक्त, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा से प्रेरित सम्पन्न होने वाले कार्य शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है। मनःप्रसाद, सौम्यता, मौन, आत्मनिग्रह एवं अत्नःकरण के भावों की पूर्ण पवित्रता मन सम्बन्धी तप कहे जाते हैं। ये तीनों प्रकार के तप सात्त्विक कहे गये हैं। सत्कार, मान और पूजा के लिये, अन्य किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिये घमण्ड से किया गया, अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप राजस कहलाता है। मूढ़ता एवं हठपूर्वक, कष्टसहित अथवा दूसरों का अनिष्ट करने के लिये किया गया तप तामस कहलाता है।


देश, काल एवं पात्रता को ध्यान में रखकर निःस्वार्थ भाव से दिया गया दान सात्त्विक कहा गया है। क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल की दृष्टि से किया गया दान राजस कहा गया है। तिरस्कारपूर्वक अथवा बिना सत्कार के देश, काल और पात्रता को ध्यान में न रखकर कुपात्र को दिया गया दाप तामस कहा गया है।
इसके पश्चात् ओम्, तत् एवं सत् की महिमा के बारे में इस अध्याय में बताया गया है।


ऊँ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणस्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।गी.17.23।।


अर्थात् ‘ऊँ तत् सत्’ इन तीन शब्दों को ब्रह्म का नाम कहा गया है। उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये।


‘ओम’ परमात्मा का ही नाम है। अतः शास्त्र-विहित यज्ञ, दान और तप की क्रियायें सदा ही ‘ओम’ नाम के उच्चारण करके ही प्रारम्भ होती है। तैतिरीय उपनिषद के अष्टम अनुवाक् में कहा गया है - ‘ओमिति ब्रह्म, ओमिति सर्वम्’। ‘तस्य वाचकः प्रणवः’। प्रणव परमात्मा का वाचक है। ऊँ और प्रणव समानार्थी हैं। जो प्राणों के साथ संचरण करे, वह प्रणव है, अतः प्रत्येक मन्त्र के पूर्व प्रणव अथवा ओम जोड़ा जाता है। ‘तत्’ शब्द परमसत्ता परमेश्वर का संकेत-सूचक है, अर्थात् ‘तत्’ नामधारी परमात्मा का ही सब-कुछ है। मेरा कुछ नहीं, सभी उसी परमात्मा का है। इस भाव से फल की कामना न करते हुए यज्ञादि क्रियायें कर्मबन्धन से मुक्ति पाने वाले द्वारा की जाती है। ‘सत्’ परमात्मा की नित्यता और श्रेष्ठता का सूचक है। वही सर्वोपरि है, वही सर्वोत्तम है। इस प्रकार से परमात्मा का नाम जानकर सत्य भाव में ‘सत्’ का प्रयोग किया जाता है। यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति आती है, वह भी ‘सत्’ ही है। परमात्मा को समर्पित किया गया कर्म भी ‘सत्’ ही है। इसके विपरीत बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और किया गया तप ‘असत्’ है। ओम, तत् और सत् इन तीनों शब्दों में पूरा अध्यात्म सिमटा हुआ है।


जो मनुष्य शास्त्र-विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तपस्या करते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भरे हैं, वे आसुरी स्वभाव वाले कहे गये हैं। अतः श्रद्धाहीन कर्म न तो जीवन-काल में और नहीं मृत्यु के बाद ही श्रेयस्कर होता है। इस प्रकार भगवान् अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं।


विश्वजीत ‘सपन’

Monday, August 24, 2015

गीता ज्ञान - 16



 
 अथ षोडशोऽध्यायः

दैवासुसम्पद्विभागयोग



सोलहवें अध्याय में दैव एवं असुर सम्पदाओं का बड़ा ही स्पष्ट और सुन्दर वर्णन है। गीता के तेरहवें से पन्द्रहवें अध्यायों तक जीव-जगत्, प्रकृति, ब्रह्म विषयक दार्शनिक विचारों के चिंतन मिलते हैं, वहीं सोलहवें अध्याय में व्यावहारिक, नैतिक एवं अध्यात्म प्रधान विचारों को दैवी सम्पदा और उनके विपरीत विचारों को आसुरी सम्पदा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।गी. 16.6।।


अर्थात् हे अर्जुन! इस लोक में मानव-समुदाय दो वर्गों में विभक्त है। प्रथम दैवी प्रकृति वाला और द्वितीय आसुरी प्रकृति वाला। उन दैवी एवं आसुरी प्रकृति वाले मानव-समुदाय के लक्षण तुम सविस्तार सुनो।


सर्वप्रथम दैवी प्रकृति वाले पुरुष का वर्णन इस अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में किया गया है और बाद में विस्तार से आसुरी सम्पदा का वर्णन विशेष है। दैवी-सम्पदा के लक्षण हैं - भय का सर्वथा अभाव अर्थात् अभय। यह भय दो प्रकार का होता है। बाहर का एवं भीतर का। चोर, डाकू, सर्प आदि का भय बाहरी भय है, जबकि मानव जब पाप, अन्याय अत्याचार करता है, तब उसे भीतर का भय होता है। जब ईश्वर से संबंध जुड़ जाता है तब यह भय समाप्त हो जाता है। 


इनमें अन्तःकरण की शुद्धि होती है। तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान में दृढ़ स्थिति होती है एवं इनका ज्ञान सात्त्विक होता है। ये इन्द्रियों का दमन करना जानते हैं। ये यज्ञ, स्वाध्याय और तप में लीन रहते हैं। इनमें अन्तःकरण की सरलता होती है। इनमें अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति आदि के गुण होते हैं। ये निन्दा, चुगली आदि नहीं करते। ये प्राणियों पर दया करते हैं। ये अनाशक्त होते हैं। इनका स्वभाव कोमल होता है। ये बुरे कार्यों को करने में लज्जा का अनुभव करते हैं। ये व्यर्थ चेष्टा नहीं करते। इनमें तेज और धैर्य होता है। इनमें शत्रुता का भी अभाव होता है। ये पवित्र होते हैं और स्वयं में पूज्यता के अभिमान का अभाव रखते हैं। ऐसा व्यक्ति दैवी सम्पदा से युक्त होता है। 


इसके विपरीत आसुरी प्रकृति वाले मानव प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते। वे नहीं जानते कि क्या करना है और क्या नहीं। अतः उनमें न शुद्धि, न सदाचार और न ही सत्य का सन्निवेश रहता है। ये जगत् को आश्रयरहित, असत्य और निरीश्वर मानते हैं। इनका लक्ष्य केवल काम होता है और इसी से संसार की उत्पत्ति मानते हैं। ये दूसरों का अहित करने वाले, क्रूरकर्मी तथा जगत् की हानि करने के लिये ही जन्म लेते हैं। इनमें दम्भ, मान, मद पूर्णतः होता है। ये अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके, अपवित्र धारणाओं को धारण करके संसार में विचरण करते हैं। ये विषय भोगों को ही सुख मानते हैं। ये धनादि के संग्रह में विश्वास करते हैं। ये धन के पीछे भागते रहते हैं। ये स्वयं को सिद्ध, बलवान् और सुखी मानते हैं। मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, ऐसा अभिमान इनका रहता है। शत्रुओं को मारकर ये स्वयं को बड़ा सिद्ध करते हैं। स्वयं श्रेष्ठ मानने वाले ये घमण्डी धन और मान के मद से युक्त केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र-विधि से रहित यजन करते हैं। ऐसे असुरी प्रकृति वाले पुनः-पुनः संसार के इन्हीं आसुरी योनियों में जन्म लेते हैं। बार-बार आसुरी योनि में गिरकर बाद में और भी अधोगति को प्राप्त होते हैं और घोर नरक में गिरते हैं।


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतस्त्रयं त्यजेत।।गी. 16.21।।


अर्थात् काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। ये आत्मा को अधोगति में डालकर उसके आनन्द तत्त्व को नष्ट कर देने वाले हैं, अस्तु इन तीनों को त्याग देना चाहिए।


तात्पर्य यह कि इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष स्वयं के कल्याण का कार्य कर लेता है और इस प्रकार वह ईश्वर को प्राप्त कर परमगति को प्राप्त हो जाता है। 


भौतिकवादी अहं-प्रेरित महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति और समाज के हित में नहीं है। इसके द्वारा व्यक्ति में अशान्ति और तनाव तथा समाज में ध्वंसात्मकता का प्रचार-प्रसार होता है। आसुरी सम्पद् वाले पुरुष रजोगुण प्रधान होने के कारण भौतिक वैभव अर्जन करते हैं। वे दूसरों के दुःख पर अपने सुख का निर्माण करते हैं, अतः नरक में जाते हैं। जबकि दैवी सम्पद् वाले पुरुष दूसरों को सुखी देखना चाहते हैं। कहते हैं कि दूसरों को सुखी देखने की चाह वाला कभी दुःखी नहीं हो सकता। अतः दैवी सम्पद् को अपना कर अपना कार्य सिद्ध करना चाहिए। यही गीता के इस अध्याय का संदेश है।


विश्वजीत ‘सपन’

Tuesday, August 4, 2015

गीता ज्ञान - 15


अथ पञ्चदशोऽध्यायः

पुरुषोत्तमयोग

पन्द्रहवें अध्याय को पुरुषोत्तम योग कहा गया है। इस अध्याय में जगत्, जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। संसार के स्वरूप को पीपल के वृक्ष के प्रतीक के रूप में समझाने की चेष्टा की गयी है, जो अति-विलक्षण वृक्ष है।


ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।। गी. 15.1।।


सामान्य वृक्ष की जड़ें नीचे होती हैं और शाखायें ऊपर, किन्तु इस संसार वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर और शाखायें नीचे की ओर हैं। इसके मूल में परमात्मा का वास है तथा इसकी उत्पत्ति का कारण परमात्मा ही हैं। इसके पत्ते वेद हैं। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। ज्ञान के कारण प्राणी जीवित है और वेद वर्णित ज्ञान ही संसार के विकास का प्रमुख साधन है। इस वृक्ष को जिसने जान लिया, उसने समस्त वेदों को जान लिया। इसकी शाखायें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सिंचित होकर बढ़ती आयी हैं। इनमें जो कोंपलें हैं, वे ही विषय हैं। इसमें कर्मबंधन वाली अहंता (मैं-पन), ममता (मेरा-पन) और वासनारूपी जड़ें और ऊपर सभी लोकों में फैली हुई हैं।


इस संसार रूपी वृक्ष की गति भी विलक्षण है। इसका स्वरूप असल में भिन्न है, जैसा इसे देखा अथवा बताया गया है। तत्त्वज्ञान होने पर इसका स्वरूप भिन्न दिखायी देता है। यह संसार प्रतिपल परिवर्तनशील है। इस संसार में व्यक्ति, वस्तु अथवा प्राणियों का विकास-क्रम समाप्त नहीं होता है। वह अनादि काल से चलता आ रहा है और अनन्त काल तक चलता ही रहेगा। इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं, क्षर (नाशवान्) तथा अक्षर (अनश्वर), इनमें प्राणियों का शरीर क्षर है और जीवात्मा का अक्षर। यही अपरा और परा प्रकृति है। यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी कहा गया है।


ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थनि कर्षति।। गी.15.7।।


अर्थात् इस देह में स्थित जीवात्मा जो सनातन है, वह मेरा ही अंश है, परन्तु प्रकृति में स्थित होने पर वही मन एवं इन्द्रियों को आकर्षित करता है तथा उन्हें सजातीय मान लेता है। तात्पर्य यह कि जीवात्मा तो परमात्मा का ही अंश है, किन्तु वह मन एवं इन्द्रियों से अपनत्व जोड़ लेता है, जबकि यह वास्तविकता नहीं है। वास्तव में मात्र एक ही सत्य है, परमात्मा। इसी कारण मनुष्य नव शरीर धारण करता है, क्योंकि वह जिस शरीर का त्याग करता है, उसके समस्त संस्कारों को समेट लेता है। साथ ही इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन करता है। शरीर को त्याग कर तीनों गुणों से युक्त आत्मा को अज्ञानीजन नहीं जान पाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया होता है। मोहवश वे इन्द्रियों के बंधन में बंध जाते हैं और नवीन शरीर धारण करते हैं, किन्तु विवेकशील ज्ञानी इस आत्मा को तत्त्वपूर्वक जान लेते हैं। 


इसके पश्चात् भगवान् परमात्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! जो तेज सम्पूर्ण जगत् का प्रकाशक है तथा जो तेज सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा में व्याप्त है, वह परमात्मा का ही हैं। वे ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को धारण करते हैं और वे ही रसरूप चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को पुष्ट करते हैं। वे समस्त प्राणियों के हृदय में सूक्ष्म रूप से स्थित होते हैं और उनसे ही स्मृति, ज्ञान और बुद्धि में रहने वाले संशय दूर होते हैं। वे ही परब्रह्म और वेदज्ञ हैं। 


उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृत।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। गी.15.17।।


श्री भगवान् कहते हैं कि इस संसार में नाशवान् और अनश्वर दो प्रकार के पुरुष हैं और इन दोनों से उत्तम परमपुरुष वह है, जो इनसे पृथक् तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पोषण करता है, जो अविनाशी, परमेश्वर, परमात्मा नामों से पुकारा जाता है। वह नश्वर जड़वर्ग ‘क्षेत्र’ से सर्वथा अतीत हैं और जीवात्मा से भी उत्तम हैं। अस्तु वे लोक और वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हैं। जो भी ज्ञानी उन्हें इस प्रकार तत्त्वपूर्वक से पुरुषोत्तम रूप में जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है। पुरुषोत्तम में भक्ति जीव की मुक्ति का कारण है। यही परमात्मा अथवा ईश्वर है और यही सत्य है।

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विश्वजीत ‘सपन’ 

Saturday, June 13, 2015

गीता ज्ञान -14


 
अथ चतुर्दशोऽध्यायः

 
गुणत्रयविभाग योग


 
प्रस्तुत 14वाँ अध्याय ‘गुणत्रयविभाग योग’ कहलाता है। 13वें अध्याय के अंत में भगवान् ने कहा कि ज्ञानचक्षु से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के भेद को देखने वाला परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। तब प्रश्न उठता है कि वह ज्ञान क्या है? उसका स्वरूप क्या हैं? उसे प्राप्त करने के उपाय क्या हैं? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर हमें इस अध्याय में प्राप्त होते हैं और इसमें प्रकृति के तीन विशेष गुणों के संदर्भ में विस्तार से बताया गया है। 

इस अध्याय के प्रारम्भ के दो श्लोकों में इसी ज्ञान की महिमा बताई गयी है कि संसार में प्रकृति-पुरुष के भेद बताने वाला ज्ञान किसी भी प्रकार के ज्ञान से उत्तम है। इस ज्ञान से मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। सभी योनियों से जितने शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उनकी योनि तो प्रकृति है और ईश्वर बीज की स्थापना करने वाला पिता है अर्थात् परमात्मा ही पिता है और प्रकृति माता, जिनके संसर्ग से सृष्टि का विकास होता है। समस्त प्राणियों और जड़जंगम की उत्पत्ति होती है। यही ज्ञान सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। इसी प्रकृति के गर्भ से तीन गुण उत्पन्न होते हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण।


सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।गी.14.5।।


अर्थात् हे महाबाहो! प्रकृति के गर्भ से तीन गुण उत्पन्न होते हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। ये तीनों गुण अक्षय हैं और जीवात्मा को शरीर में बाँधकर परवश कर देते हैं।


सत्त्वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और ज्ञान के आकर्षण के सम्बन्ध से जीव को बाँधता है। सृष्टि में जो दीप्ति, प्रकाश, ज्ञान एवं सात्त्विकता का अंश है, उसका कारण सत्त्वगुण ही है। 


रजोगुण रागात्मक है। यह विषयों के प्रति तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होता है और जीवात्मा को उसके कर्मों के फल की आसक्ति के द्वारा बाँधता है। जो गति, प्रकृति अथवा क्रियाशीलता है, उसका कारण रजोगुण है। 


तमोगुण भटकाने वाला है। यह जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है। अर्थात् जो आलस्य, प्रमाद, जड़ता, अज्ञान, अंधकार है, उसका कारण तमोगुण ही है। और इस प्रकार प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। इस विषय पर गीताकार विस्तृत व्याख्या करते हैं।


रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण तथा सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण की अभिवृद्धि होती है। सत्त्वगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है। मन शुद्ध होता है। रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, स्वार्थ और बुद्धि से कर्मों को सकाम भाव से आरम्भ करने की प्रवृत्ति जगती है। तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अज्ञान का अंधकार, कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और निद्रादि वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार कहा जाये, तो सत्त्वगुण से ज्ञान, रजोगुण से लोभ और तमोगुण से प्रमाद एवं मोह उत्पन्न होते हैं।


ऐसे गुणों वाले मानव की मृत्यु होने पर क्या-क्या संभव है, इस पर गीताकार विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सत्त्वगुण के वृद्धिकाल में शरीर छोड़ने वाले को स्वर्गादि लोक प्राप्त होते हैं, रजोगुण के वृद्धिकाल में शरीर छोड़ने वाले मर्त्यलोक में रहते हैं, वे कर्मासक्त घरों में पैदा होते हैं। तमोगुण के वृद्धिकाल में शरीर छोड़ने वाले नरकादि में जाते हैं और कीट, पशु आदि योनियों में उनके जन्म होते हैं।
इन गुणों के कारण ही व्यक्ति के आचरण में अच्छाई या बुराई, तृष्णा या त्याग, प्रवृत्ति या निवृत्ति, चेतना या आलस्य के रूप में विशेषतायें आती हैं। ये गुण स्वभाव बनाते हैं। मनुष्य उसी प्रकार के स्वभाव से बँधा रहता है। सत्त्वगुण का लौकिक परिणाम और स्वरूप श्रेष्ठ माना जाता है, किन्तु वह भी ‘मैं अच्छा हूँ’, ‘मैं महान हूँ’, ‘मैं गुणी हूँ’, ‘मैं त्यागी हूँ’, आदि सात्त्विक अभिमान से बाँधता है। गुण शब्द ही बंधनकारक है। अतः गुणातीत की बात बताई गयी है। पातंजल योगसूत्र के अनुसार भी गुणातीत को ही कैवल्य का अधिकारी बताया गया है। यहाँ भगवान् भी यही कहते हैं।


गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।गी.14.20।।


अर्थात् यह सम्पूर्ण शरीर, मन-बुद्धि आदि और इन्द्रियों के उपभोग विषय और वस्तुयें, प्रकृति से उत्पन्न होने वाले तीनो गुणों आदि के ही कार्य हैं और जो ऐसा समझकर गुणातीत जीवन बिताता है, वह जन्म-मृत्यु आदि दोषों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।


कहने का अर्थ यह है कि जो इन गुणों से उत्पन्न होने वाले प्रभावों में विचलित नहीं होता है, ‘‘मैं आत्मा हूँ’’ ऐसा निरन्तर भाव रखता है, मान-सम्मान, निन्दा-स्तुति में समान भाव वाला रहता है, परमात्मा पर दृढ़ निश्चयपूर्वक आश्रित रहता है, वह पुरुष गुणातीत कहलाता है। ऐसा पुरुष जब भगवान् में पूर्ण समर्पण भाव से लिप्त होता है, तो वह जन्म-मृत्यु आदि दुःख-दोषों से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त होता है।
 

*** विश्वजीत ‘सपन’

Thursday, March 5, 2015

गीता ज्ञान - अध्याय 13


                                                                     


  
                                     अथ त्रयोदशोऽध्यायः

                                                                     
                                                                   क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग
   

गीता की अध्याय योजना अनुपम है। जीवन-दर्शन को इतनी सरलता, सहजता एवं तारतम्य से समझाया गया है कि देखते ही बनता है। इस तेरहवें अध्याय को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग कहा गया है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण अध्याय है, जहाँ भगवान् आत्मतत्त्व-ज्ञान की ओर पुनः उन्मुख होते हैं। हमने पूर्व में जाना कि ज्ञान, कर्म एवं भक्ति क्या है? उनका महत्त्व क्या है? इस अध्याय में उस ज्ञान को संक्षेप में बताया गया है, जिसका भ्रम ही मानव को परमात्मा के मिलन से दूर रखता है। अध्याय के प्रथम श्लोक में ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के इस संदर्भ में बताया गया है।
 

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।गी.13.1।।

 

अर्थात् हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ नाम वाला कहा गया है और जो इसको जानता है, ज्ञानीजन उसे ही ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। तो यह शरीर ही ‘क्षेत्र’ है और शरीरी आत्मा ही ‘क्षेत्रज्ञ’ है।
 

इसके बाद भगवान् क्षेत्र का स्वरूप, क्षेत्रज्ञ की स्थिति, प्रकृति-पुरुष आदि का वर्णन करते हुए सगुण-निर्गुण बह्म आदि के सम्यक् ज्ञान द्वारा प्ररब्रह्म की प्राप्ति को बताते हैं। यह अध्याय सूक्ष्म रूप से तत्त्वज्ञान को प्रतिपादित करता है।
 

क्षेत्र का स्वरूप बताते हुए भगवान कहते हैं कि संक्षेप में पंच महाभूत - आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी, दस इन्द्रियाँ, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति, एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहपिण्ड, चेतनाशक्ति और धृति इनका समूह ही क्षेत्र कहा जाता है। इन सभी को ही सत्य मान लेना मानव-भ्रम है। इनसे छुटकारा पाकर ही मनुष्य ज्ञान का अधिकारी होता है। इस विषय पर वे कहते हैंः-
 

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।। गी.13.20।।

 

क्षेत्र के स्वरूप को जान लेने के बाद यह समझना आसान होगा कि जो भी होता है, वह ‘कार्य’ है, जिसके माध्यम से कार्य होता है, वह ‘करण’ अथवा साधन है। ये पंच महाभूत और उसके पाँच गुण - दस ‘कार्य’ हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन-बुद्धि-अहंकार - ये तेरह ‘करण’ हैं। ये तेईस तत्त्व प्रकृति से सम्बन्धित हैं। इनसे भिन्न पुरुष होता है, जो अजर-अमर है। जो भी मानवीय विकार आदि होते हैं, वे इसी प्रकृति में होते हैं और पुरुष जब इसे अपना लेता है, तो वह कष्ट पाता है। जो प्रकृतिस्थ (प्रकृति द्वारा प्रदत्त शरीर को अपना मान लेना) होता है अर्थात् प्रकृतिजन्य त्रिगुणात्मक का भोक्ता बनता है तथा सत्त्व, रजस् एवं तमस् गुणों से प्रभावित होता है, वही विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहता है और अनेक योनियों में फँसकर कष्ट पाता रहता है।
 

वास्तव में इस शरीर में यह पुरुष (आत्मा) ही परमात्मा है। अतः जो मनुष्य प्रकृति को गुणों सहित और पुरुष को जान जाता है, वह कर्म-बन्धन से मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छूट जाता है।
 

यहीं पर ईश्वर पुनः कहते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के अनेक साधन हैं। कोई ध्यान से उनमें मन लगता है (ध्यानयोग), तो कई अन्य ज्ञानयोग द्वारा उन्हें प्राप्त करते हैं और भी कई अन्य कर्मयोग द्वारा उन्हें प्राप्त करते हैं। कितने तो ऐसे भी हैं, जो इनसे भी मंदबुद्धि वाले होते हैं और तत्त्वज्ञ (ज्ञानीजन) की बातें सुनकर तदनुसार उपासना करके इस संसार-सागर को पार कर जाते हैं। लक्ष्य एक ही है - ईश्वर-प्राप्ति। साधन अनेक हो सकते हैं, किन्तु यह ज्ञान होना भी आवश्यक हैं कि जितने भी जड़-चेतन जीव उत्पन्न होते हैं, वे क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही होते हैं। यथार्थ द्रष्टा वही है, जो विनाशशील चराचर भूतों में उस एक परमेश्वर को समभाव से देखता है, जो समस्त क्रियाओं को प्रकृति द्वारा किया हुआ देखता है अर्थात् अपनी आत्मा को अकर्ता देखता है, जो समस्त प्राणियों के पृथक् भावों को एक परमात्मा में स्थित और परमात्मा से ही समस्त प्राणियों का विस्तार देखता है।
 

क्योंकि परमब्रह्म अनादि है, अनंत है और सत्-असत् से परे अत्यन्त सूक्ष्म है। उसके ही आकार-प्रकार सर्वत्र विद्यमान हैं, वह इस संसार में सबमें व्याप्त होकर स्थित है। वह समस्त इन्द्रियों से रहित भी इन इन्द्रिय-विषयों का ज्ञाता है। वह अनासक्त होने पर भी सबका भरण-पोषण करता है। वह निर्गुण है, किन्तु गुणों का भोक्ता है। वह वैसे तो समस्त चराचर के भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर समस्त रूप में स्थित भी है, किन्तु अति-सूक्ष्म होने से मानव-मन और बुद्धि की पकड़ से बाहर रह जाता है। यही परमात्मा जानने के योग्य है और यही तत्त्वज्ञान के द्वारा प्राप्त है।
 

इस प्रकार यदि हम इस अध्याय के सार-तत्त्व को संक्षेप में कहें, तो आध्यात्म ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है।
 

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। गी.13.11।।

 

अर्थात् अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के प्रयोजन के रूप में परमात्मा को सर्वत्र देखने की प्रवृत्ति ही ‘ज्ञान’ है और इसके विपरीत सभी अज्ञान है। यही ज्ञान क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा) और उसकी भ्रान्ति के कारण उत्पन्न विकारों से मुक्ति का उपादान है। इस ज्ञान का ज्ञेय और कोई नहीं, श्रेष्ठ, अजर-अमर, अनासक्त परमात्मा ही है। वह परम-सत्ता अविभक्त होते हुए भी विभक्त दिखाई देती है, क्योंकि विकार मन उस सूक्ष्म को नहीं जान पाता है। यही मानव के जानने योग्य ज्ञान है और यही ईश्वर प्राप्ति का साधन है।
 

विश्वजीत ‘सपन’

Saturday, January 31, 2015

गीता ज्ञान - अध्याय 12

                                               अथ द्वादशोऽध्यायः
 



गीता के सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक भक्त, भक्ति, आराधना, आराधक, उपासना आदि विषयों पर व्यापक विचार हुआ है। बारहवें अध्याय में साकार एवं निराकार उपासना के प्रकार एवं निराकार ब्रह्म के स्वरूप के साथ-साथ ईश्वर प्राप्ति के उपाय और भक्त के लक्षण को महत्ता दी गयी है। इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि साकार उपासना किस प्रकार सहज और सुलभ है।

गीताकार ने अर्जुन के प्रश्न द्वारा सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के उपासकों की जिज्ञासा रखी है कि एक ओर कुछ ऐसे लोग हैं, जो ईश्वर के अनन्य प्रेमी हैं। वे निरन्तर ध्यान करके प्रभु के साकार स्वरूप की उपासना करते हैं, जबकि दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो अव्यक्त और निराकार स्वरूप की उपासना करते हैं। ऐसा क्यों है और इनमें श्रेष्ठ कौन हैं?


इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर भगवान् इस प्रकार देते हैं -
 

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।गी.12.2।।


अर्थात् मुझमें ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करके, परम श्रद्धा से युक्त होकर, मेरे सगुण रूप की जो उपासना करते हैं, मेरे मत से वे ही अधिक उत्तम हैं।


विचारणीय है कि सगुण उपासना सहज एवं सरल है। सकारोपासना की सहजता इस तथ्य पर निर्भर है कि मनुष्य की प्रवृत्ति में आसक्ति का भाव सहज है। जीवन-क्रम में इसी आसक्ति से सांसारिक बंधन में वह बँधा रहता है और यही आसक्ति उसे इष्ट की ओर सहजता से मोड़ देती है, क्योंकि साकार भक्ति में वात्सल्य, सख्य, कान्ता, दास्य आदि भाव हमेशा ही उपस्थित रहते हैं। निराकार उपासना में वैराग्य की परमावश्यकता होती है, जबकि साकार उपासना अपने कर्म के साथ, अपने कर्तव्य के साथ एक आम जीवन में जीकर भी संभव है। ईश्वर निराकार उपासना में भी मिलते हैं, किन्तु कठिन मार्ग का अनुसरण आम व्यक्ति के लिये कठिनाइयों के आमंत्रण ही कहे जायेंगे। निराकारोपासना में चंचल मन को आसक्ति-रहित करना अति आवश्यक हो जाता है, जो एक आसक्ति भरे चित्त वाले व्यक्ति के लिये संभव करना आसान नहीं होता है। अत्यधिक तप आदि से और सांसारिक माया-मोहों के त्याग करना सहज ही दुष्कर कार्य है। इसमें आलम्बन के सूक्ष्म होने से साधक को मन-इन्द्रियों को टिकाने का आधार मिलना कठिन होता है। सगुण उपासक अपनी भावना के अनुसार ईश्वर से जुड़ जाते हैं, अपने अनुसार उनके स्वरूप को अपना लेते हैं, वे चाहे किसी भी देवी-देवता का स्वरूप हो और अपने सभी कर्म उन्हें समर्पित कर देते हैं, तो यह अनन्य भक्ति में साध्य का मिलना तय है। उन्हें आवश्यकता होती है केवल ध्यान लगाने की।


ध्यान किस प्रकार लगाना चाहिये, तो इसके बारे में ईश्वर बताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को ईश्वर में मन और बुद्धि को लगाकर एकाग्रता प्राप्त करनी चाहिये, क्योंकि इसी ध्यानावस्था की प्रगाढ़ता में ध्याता-ध्येय का भेद मिट जाता है और मात्र ध्येय ही शेष रह जाते हैं। यह प्रगाढ़ता सरलता से नहीं आती, किन्तु मनुष्य निरन्तर अभ्यास से इसे प्राप्त कर सकता है। कभी अभ्यास में भी समय लग सकता है, तो इससे निराश न होकर अपने कर्म करते जाना चाहिये, क्योंकि वे कर्म ही उनके कर्तव्य होने से ईश्वर के निकट लाने का साधन बनते हैं। निष्काम कर्मयोग ही मनुष्य-जीवन का आधार होना चाहिये।


श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।गी.12.12।।


अर्थात् तत्त्वज्ञान के अभ्यास से तत्त्वज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त होती है।


इसके बाद गीताकार भक्त के लक्षण आठ श्लोंकों में इस प्रकार बताते हैं -


जो किसी से द्वेष नहीं करता, स्वार्थरहित होकर सबसे प्रेम करता है, बिना किसी हेतु के दयालु है, ममता एवं अहंकाररहित है, सुख-दुःख की प्राप्ति में सम एवं क्षमाशील है, वह योगी जो निरन्तर सन्तुष्ट है, मन, बुद्धि, इन्द्रियों को वश में करने वाला है, ईश्वर में दृढ़-विश्वासी है और उन्हें मन और बुद्धि को समर्पित करने वाला है, जो कभी उद्विग्न, भयभीत या परेशान नहीं होता, जिससे कोई उद्विग्न, भयभीत या परेशान नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग से रहित है, जो कोई अपेक्षा या आकांक्षा नहीं रखता, बाहर-भीतर पवित्र है, तटस्थ, व्यथारहित तथा सांसारिक प्रपंचों का परित्याग करता है, जो शत्रु और मित्र में मान एवं सम्मान का समभाव रखता है, जो सभी प्रकार के द्वन्द्वों में सम रहता है, निंदा या स्तुति को समान समझता है, मननशील है, जीवन-क्रम में प्राप्य में ही संतुष्ट रहता है, जिसकी बुद्धि स्थिर है अर्थात् स्थितप्रज्ञ है और भक्तियुक्त है, वही सच्चा भक्त है और ईश्वर को प्रिय है।


इस अध्याय का मूलाधार सगुण एवं निराकार उपासना का भेद बतलाना है। लोगों को ईश्वर-प्राप्ति का साधन बतलाना, भक्त के लक्षण बतलाना और भक्तिमार्ग को प्रशस्त करना ही है। यह अध्याय इस आवश्यकता को भी प्रमाणित करता है कि मनुष्य स्वयं को ईश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। उनमें तल्लीन कर ले। यही भक्ति-मार्ग है और यही जीवन के लिये उपयुक्त एवं सरल मार्ग है।


विश्वजीत ‘सपन’

Monday, December 22, 2014

गीता ज्ञान - 11



विश्वरूपदर्शनयोग
 
गीता का एकादश अध्याय ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ के नाम से प्रचलित है। यह अध्याय आध्यात्म को परिपूर्ण ढंग से समझने के लिये अति-महत्त्वपूर्ण है। भगवान् के दो रूप होते हैं - ऐश्वर्य एवं मधुर। ऐश्वर्यमय रूप में ज्ञानशक्ति, बल, वीर्य और तेज समाविष्ट होता है। यही भगवान् का विश्वरूप अथवा विराट् रूप है। यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि प्रारंभ में भागवत धर्म में ऐश्वर्य भाव की ही उपासना होती थी और कालान्तर में मधुर भाव का प्रवेश हुआ, जिसका विकसित प्रारूप श्रीभद्भागवत-महापुराण में भली-भाँति उल्लेख है। वस्तुतः एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से देखें तो परमसत्ता के ऐश्वर्य को देखना किसी भी भक्त का सपना होता है और इसी दर्शन से भक्ति का संचार होता है। एक बार इस रूप को देखने पर उसकी आत्मा तृप्त हो जाती है और उसे बोध हो जाता है कि वह उस परमसत्ता के हाथों का एक खिलौना मात्र है। उसका रहा-सहा गर्व भी ढह जाता है और परमसत्ता में उसका विश्वास अटल हो जाता है। 

इस अध्याय में इसी ज्ञानतत्त्व का वर्णन है और भगवान् के नारायण स्वरूप का अति-सुन्दर वर्णन है। अर्जुन को इस बात का विश्वास हो गया कि उसके रथ की बागडोर सम्भालने वाले वासुदेव श्रीकृष्ण कोई नर नहीं हैं, बल्कि स्वयं नारायण हैं और उनकी इच्छा हुई कि वे भगवान् के ऐश्वर्यरूप का दर्शन करें ताकि उनका रहा-सहा भ्रम भी पूर्णतः दूर हो जाये। अर्जुन ने भगवान् से प्रार्थना की -


मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मनमव्ययम्।। गी. 11.4।।


अर्थात् हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका यह विराट् रूप प्रत्यक्ष देखा जाना संभव है और उसके लिये आप मुझे पात्र मानते हैं, तो हे योगेश्वर! आप मुझे अपने उस अविनाशी विराट् रूप का दर्शन कराइये। 


भगवान् ने अर्जुन की बात मानकर कहा कि हे पार्थ! अब तुम मेरे सैकड़ों, सहस्रों, नाना प्रकार के, नाना वर्ण के और नाना आकृतियों वाले अलौकिक रूप को देखो। मुझमें द्वादश आदित्यों, आठ वसुओं, एकादश रुद्र, दोनों अश्विनी कुमारों, उनचास मरुतों को देखो। मेरे इस शरीर में स्थित चराचर सम्पूर्ण जगत् को देखो और जो कुछ और भी देखना चाहते हो, उसे भी देखो। किन्तु तुम अपने इन नेत्रों से उन्हें नहीं देख सकते, अतः इस हेतु मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। इस दिव्य दृष्टि के बिना ईश्वर रूप को देखना असंभव है। यही दिव्य दृष्टि संजय के पास भी थी, जो महाराज धृतराष्ट्र को महाभारत के उस युद्ध को पल-पल होते दिखा रहा था। (संजय को यह दिव्य दृष्टि भगवान् वेदव्यास ने प्रदान की थी।) उसने महाराज धृतराष्ट्र को बताया कि ऐसा कहकर महायोगेश्वर ने अपना परम ऐश्वर्यरूप दिखाया।


अनेक मुखों और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनों वाले, अनेक दिव्याभूषणों से युक्त, अनेक दिव्यायुध धारण किये हुए, दिव्य माला और वस्त्रों से सुशोभित, दिव्य सुगन्धों का अनुलेपन किये हुए, सम्पूर्ण आश्चर्यों से भरे, असीम, सभी दिशाओं में मुख किये हुए विराट् रूप परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। उस समय फैला प्रकाश सहस्रों सूर्यों के एक साथ उदय होने पर जितना प्रकाश हो, उससे भी कहीं तीव्र और अधिक था। अनेक प्रकार से विभक्त सम्पूर्ण जगत् को उस परमसत्ता के शरीर में एक साथ स्थित हुए देखकर अर्जुन ने आश्चर्यचकित, कंपनयुक्त शरीर के साथ परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होकर कहा।


हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण वेदों को, अनेक भूतसमुदायों को, कमलासन पर स्थित ब्रह्मा को, महादेव को, सम्पूर्ण ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। अनेक भुजाओं, उदरों, मुखों और नेत्रों से युक्त, सभी ओर अनेक रूपों वाला देखता हूँ, जिसका न आदि, न मध्य और न ही अंत देख पा रहा हूँ। अनन्त भुजा वाले, चन्द्र, सूर्य रूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाले और इस जगत् को स्वतेज से संतप्त होते देखता हूँ। स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का समग्र आकाश तथा सभी दिशायें आपसे ही परिपूर्ण हैं और आपके इस अलौकिक रूप को देखकर तीनों लोक भय से व्यथित हो रहे हैं। सभी देव-दानव, ऋषि-मुनि, सिद्ध-गंधर्व सभी विस्मित हैं। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रादि, उनके सभी योद्धा और वीर आपके विकराल बने मुख में प्रवेश कर रहे हैं। कई तो चूर्णित सिरों समेत आपकी दाँतों के मध्य लटके हुए-से दिख रहे हैं। सभी प्रजातियाँ, वनस्पति आदि अति वेग से उड़कर आपके मुखों द्वारा ग्रास बनाये जा रहे हैं। इस उग्र रूप वाले आप कौन है? आप प्रसन्न हों, हे देवों के देव। 


अर्जुन को पूरी तरह से भयभीत और प्रार्थना करते देखकर श्री भगवान् बोले - मैं लोकों का विनाशक बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। ये योद्धागण बिना तुम्हारे भी नष्ट हो जायेंगे। अतः उठो और युद्ध करो। तुम भय मत करो, क्योंकि निश्चित ही तुम उनके विनाश के कारण बनोगे।


असल में यह विराट् रूप भगवान् के ऐश्वर्य का चरम विकास था। ऐसा ऐश्वर्य रूप को देखकर किसी का भी गर्व चकनाचूर हो सकता है और उसे इस बात का अनुभव होता है कि वह कुछ भी नहीं। अर्जुन को भी अनुभव हुआ कि वह बिना बात के ही स्वयं पर सभी योद्धाओं के संहार का आरोप लगा रहा था। उसका अहंकार ही मिथ्या था। यही जगत् सत्य है। ईश्वर ही कर्ता हैं, वही पालनहार एवं संहारक भी हैं। मानव को मात्र उनके उद्देश्यों के अनुसार ही जीवनयापन करना चाहिये।


अर्जुन को इस बात की अनुभूति भी हो रही थी कि उसके सखा कोई आम मनुष्य नहीं थे, बल्कि स्वयं ईश्वर थे, जिनके समक्ष मनुष्य स्वयं को दीन-हीन ही समझ सकता है। अपने कर्मों के लिये क्षमा ही माँग सकता है। अर्जुन बोल उठे - आप इस जगत् के परम आश्रय एवं उसे जानने वाले तथा जानने योग्य परम धाम हैं। आपको मैं बारंबार नमन करता हूँ। आपको जिस भी प्रकार से मैंने संबोधित किया वह मात्र प्रेम के कारण ही हुआ, उसके लिये मुझे क्षमा करें। तात्पर्य यह कि उन्होंने बिना यह जाने कि श्रीकृष्ण स्वयं नारायण हैं, उन्हें, मित्र, सखा, कृष्ण आदि नामों से पुकारा था। अतः जिस प्रकार पिता पुत्र के, सखा अपने सखा के और पति अपनी प्रियतमा के अपराध को सहन कर क्षमा करते हैं, आप भी करें। आपके इस आश्चर्यजनक विराट् रूप को देखकर मन हर्षित है, साथ ही भय से व्याकुल भी है। अतः हे देवेश, आप मुझे मुकुटधारी, गदा और चक्र धारण किये हुए रूप को दिखाइये। आप अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट होइये।


सामान्य मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं कि वह ईश्वर के विराट् रूप को निरन्तर देखता रह सके। उस रूप में जो कार्य सम्पादित होते हैं, वे ईश्वर के अतिरिक्त न कोई समझ सकता है और न ही सहन कर सकता है, क्योंकि निर्लिप्तता आवश्यक है। मनुष्य मानसिक रूप से इतना सशक्त नहीं है। अतः अर्जुन का भयभीत होना एक स्वाभाविक आचरण था।


अतः श्री भगवान् बोले कि हे अर्जुन, जिस रूप को तुमने देखा, वह सामान्य रूप से कभी नहीं देखा सकता। यह मैंने ही तुम्हारे लिये संभव किया, किन्तु तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये। तुम निर्भय हो जाओ औ मेरे चतुर्भुज रूप को फिर से देखो। इसके साथ ही भगवान् श्रीकृष्ण पुनः अपने सामान्य रूप में आ गये।


इस विराट् विश्वरूप को केवल अर्जुन एवं संजय ही देख पाये थे। इसके पूर्व भी भगवान् ने अक्रूर, यशोदा और दुर्योधन आदि को अपना विश्वरूप दिखाया था, किन्तु यह सबसे विलक्षण था। यह ऐश्वर्य प्रधान उग्र रूप था, जिसमें विकराल वीर योद्धाओं के महाविनाश का रोमांचकारी दृश्य भी सम्मिलित था। यह कहना अत्युक्ति नहीं कि आराध्य की महत्ता की गम्भीर आधारशिला पर भक्ति के भव्य प्रसाद का महल खड़ा होता है। इस कारण इस अध्याय की महत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है।


भगवान् के सहज रूप को देखकर अर्जुन पुनः शांत हो गये तब श्री भगवान् ने पुनः कहा - मेरे इन रूपों को कोई भी व्यक्ति आसानी से नहीं देख सकता। सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला, मेरे परायण, मेरा भक्त, जो आसक्ति रहित है और जो सम्पूर्ण प्राणियों से प्रेमभाव रखने में सक्षम है, वही भक्त मुझे प्राप्त कर सकता है।


गीता के सातवें अध्याय से दसवें अध्याय तक भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन सर्वेश्वरत्व, अनन्तरूप का वर्णन किया है, उसका प्रायोगिक रूप इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया है। अर्जुन की स्वीकृति इस महत्ता को प्रतिपादित करती है कि समस्त वैदिक देवताओं का समाहार श्रीकृष्ण में है। उन्हें पाने का सर्वसुलभ मार्ग भक्ति ही है। साथ ही भक्ति के वात्सल्यभाव, सख्यभाव एवं कान्ताभाव के बीज का अंकुरण भी इस अध्याय में स्पष्ट दिखाई देता है। 


विश्वजीत ‘सपन’

Saturday, November 8, 2014

गीता ज्ञान - 10


विभूतियोग

सातवें से नवें अध्याय में भगवान् के निराकार एवं साकार रूप का निरूपण ज्ञान एवं विज्ञान के रूप में होता आया है। दशवाँ अध्याय भी उसी क्रम में है। इस अध्याय को ‘विभूतियोग’ नाम दिया गया है। ‘विभूति’ का अर्थ है - ऐश्वर्य। विभूतियोग का विस्तार से वर्णन इस अध्याय को भगवान् की अलौकिकता की स्थापना का अध्याय कहा जा सकता है। भगवान् क्या हैं और क्या नहीं, इस ज्ञान को बड़ी सुन्दरता एवं सरलता से प्रतिपादित किया गया है। 

गीता के पिछले अध्यायों में भक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठापित किया गया है। भगवान् ही भक्ति के आलम्बन हैं। उनकी भक्ति में मानव का कल्याण छुपा है। इस सम्बन्ध में कोई भ्रान्ति नहीं हो सकती और अर्जुन को भी नहीं हुई, किन्तु वे योगेश्वर श्रीकृष्ण से उनकी दिव्य विभूतियों को सुनने का अनुरोध करते हैं और इस अध्याय की भूमिका बनती है।


    इस अध्याय में भगवत् तत्त्व की व्यापकता का वर्णन देखते ही बनता है। प्रारंभ में भगवान् बताते हैं कि उनकी उत्पत्ति को अर्थात् लीलापूर्वक प्रकट होने के रहस्य को न देवता और न ही महर्षि जानते हैं क्योंकि वे ही देवताओं एवं महर्षियों के भी आदिकारण हैं। बुद्धि, तत्त्वज्ञान, चेतना, क्षमा, इन्द्रियों को वश में रखना, मन का निग्रह, सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय, भय-निर्भयता, अहिंसा, समता, संन्तोष, तप, दान, कीर्ति-अपकीर्ति आदि ऐसे अनेक प्रकार के भाव उन्हीं के कारण होते हैं। उन्हीं की संकल्पशक्ति से चौदह मनु, उसके पश्चात् सनकादि चार ऋषि और पुनः सप्तर्षिगण उत्पन्न हुए हैं और इन्हीं की संतानें इस संसार में चारों ओर फैली हुई हैं। वे वासुदेव श्रीकृष्ण ही समस्त संसार की उत्पत्ति के कारण हैं और संसार में गति एवं चेष्टायें उन्हीं के कारण हैं। और जो इन विभूतियों के योग को जान लेता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है।


    एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
    सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।। गी. 10.7।।


    अर्थात् जो मेरे इस ऐश्वर्य को एवं मेरी विलक्षण शक्ति एवं अनन्त सामर्थ्य को तत्त्व से जान लेता है, वह भक्तियोग में स्थिर हो जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं है।


    इस विस्तृत जानकारी को भली-भाँति समझकर अर्जुन कहते हैं कि हे पुरुषोत्तम! आप ही देवों के देव हैं और आप ही स्वयं को जानने एवं समझने में सक्षम हैं। अतः आप ही अपनी योगशक्ति एवं विभूति को विस्तारपूर्वक कहिये। उन विभूतियों के सम्बन्ध में बताइये जिनके द्वारा आप सम्पूर्ण लोकों को आच्छादित करके स्थित हैं। उन भावों एवं रूपों के सम्बन्ध में बताइये जो मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं।


    तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे इन दिव्य विभूतियों को अर्जुन से संक्षेप में बतायेंगे क्योंकि इनके विस्तार का अन्त नहीं है। ये विभूतियाँ दसवें अध्याय के 20 से 40 श्लोकों में वर्णित हैं। 


भगवान् कहते हैं कि वे ही एकादश रुद्रों में शंकर हैं और यक्ष तथा राक्षसों में धन के स्वामी कुबेर हैं। द्वादश आदित्यों में विष्णु, ज्योतियों में रश्मिमाल सूर्य, मरुतों का तेज और नक्षत्रों के अधिपति चन्द्रमा वे ही हैं। वे ही सामवेद हैं, देवों में इन्द्र हैं, इन्द्रियों में मन हैं और प्राणियों में चेतना हैं। 


वे ही आठ वसुओं में अग्नि और शिखरधारी पर्वतों में सुमेरु पर्वत हैं। पुरोहितों के मुख्य पुरोहित बृहस्पति वे ही हैं और सेनापतियों में कार्तिकेय तथा महर्षियों में भृगु और शब्दों में आंेकार वे ही हैं। वे ही सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और पर्वतों में स्थिर हिमालय, जलाशयों में समुद्र और वृक्षों में पीपल वृक्ष हैं। देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल, अश्वों में अमृत सहित उत्पन्न उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, आयुधों में वज्र, गायों में कामधेनु, कामदेव और सर्पराज वासुकि वे ही हैं। शेषनाग, वरुणदेव, आर्यमा पितर और यमराज भी वे ही हैं। वे ही दैत्यों में प्रह्लाद, गणना हेतु समय, पशुओं में मृगेन्द्र, पक्षियों मे गरुड़, पवित्र करने वाले पवन, शस्त्रधारियों में राम, जलचरों में मगर, नदियों में गंगा हैं।


वे केशव ही हैं, जो सृष्टियों के आदि, अन्त एवं मध्य में स्थित हैं। ब्रह्मविद्या और वादात्मक स्वरूप भी वे ही हैं। वे ही अक्षरों में आकार, समासों में द्वन्द्व समास, अक्षय काल, विराट् स्वरूप और सर्वधारणकर्त्ता भी हैं। मृत्यु एवं उत्पन्न होने के उद्भव और स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा और क्षमा भी वे ही हैं। गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्मास, वैदिक छन्दों में गायत्री, छल करने वालों में जुआ, तेजस्वियों में तेज, निश्चय करने वालों में निश्चय, सात्त्विक मनुष्यों में सात्त्विक भाव, यादवों में श्राीृकष्ण, पाण्डवों में अर्जुन, मुनियों में वेदव्यास, कवियों में उशना कवि (शुक्राचार्य), बाहर महीनों में मार्गशीर्ष, छः ऋतुओं में वसन्त, दमनकर्ताओं में दण्ड शक्ति, विजय की इच्छा रखने वालों में नीति, गोपनीय भावों में मौन, ज्ञनवानों में ज्ञान आदि सभी वे ही हैं।


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। गी.10.39।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तारो मया।।गी.10.40।।


अर्थात् हे अर्जुन! सभी प्राणियों की उत्पत्ति का मूल कारण अथवा बीजरूप मैं ही हूँ। चराचर जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मुझसे रहित है।
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। अतः मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तुमसे अति संक्षेप में बताया है।


तात्पर्य यह है कि संसार में स्थूल तथा सूक्ष्म वस्तु एवं भाव दोनों का समावेश है। स्थूल एवं सूक्ष्म, वस्तु तथा भाव इन दोनों रूपों में भगवान् विराजमान हैं। भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे ही सभी प्राणियों के हृदय में आत्मा बनकर स्थित हैं और सभी प्राणियों का आदि, मध्य और अंत भी हैं।


‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व एव प्रवर्तते। (गीता, 10.8)


इसके पश्चात् भगवान् कहते हैं कि जो भी विभूतियुक्त, कान्तियुक्त एवं शक्तियुक्त है, उस वस्तु को तुम मेरे तेज के अंश की अभिव्यक्ति जानो। मानव को बहुत अधिक जानने की आवश्यकता भी नहीं है। उन्हें तो मात्र इतना जान लेना चाहिये कि ईश्वर ही सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हैं। 


ऐश्वर्य को देखकर ऐश्वर्यवान् का स्मरण सहज हो जाता है। ऐश्वर्यवान् और कोई नहीं, बल्कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं। इस अध्याय में भगवान् ने विशिष्ट व्यक्तियों एवं वस्तुओं का विवरण प्रस्तुत किया है, जिनके दर्शन एवं स्मरण से ईश्वर की स्मृति सहज-सुलभ हो जाती है। इन विभूतियों का स्मरण भगवान् से योग कराने में सहायक है, अतः यह अति-महत्त्वपूर्ण ‘विभूतियोग’ है।


विश्वजीत ‘सपन’

Tuesday, September 30, 2014

गीता ज्ञान - 9




                                                   राजविद्याराजगुह्ययोग

‘राजविद्याराजगुह्ययोग’ गीता के नवम् अध्याय में वर्णित है। राजविद्या का अर्थ है समस्त विद्याओं का राजा अर्थात् सर्वोपरि विद्या। उसी प्रकार राजगुह्य का अर्थ है - सर्वोत्कृष्ट तथ्य, जो सर्वाधिक गोपनीय है। श्रीकृष्ण ने इसके पूर्व कहा था कि इस सम्पूर्ण जगत् के महाकारण भगवान् ही हैं, ऐसा दृढ़तापूर्वक मानना ही ‘ज्ञान’ है और भगवान् के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसा अनुभव ही ‘विज्ञान’ है। यह ज्ञान-विज्ञान ही राजविद्या और राजगुह्य है। इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हुए इस नवम् अध्याय में बताया गया है।


    इस अध्याय में भी भक्तियोग का ही विस्तार देखने को मिलता है, जहाँ न केवल भगवान् के विराट स्वरूप का वर्णन मिलता है, बल्कि भक्तिमार्ग की सुगमता का वर्णन भी बहुत सुन्दरता से मिलता है। भक्तिमार्ग राजयोग की भाँति ही एक सरल मार्ग है, जिस पर गमन सुलभ है। अतः भगवान् कहते हैं कि मानव को इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, ताकि वे परमसत्ता का अनुभव सरलता से कर सकें। इसी क्रम में भगवान् अपने विराट स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषध, मन्त्र आदि, सबके जानने योग्य ओंकार एवं वेद और उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान और अविनाशी बीज सब कुछ मैं ही हूँ। मैं ही जीवन और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी। तात्पर्य यह कि इस जगत् में जो कुछ भी विद्यमान है, वह ईश्वर का ही अंश है। उनसे पृथक कुछ भी नहीं, किन्तु वे अंश केवल जगत् सत्य हैं, ईश्वर के समान अविनाशी नहीं। 


    मया ततमिदं सर्वं जगतव्यक्तमूर्तिना।
    मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।गी. 9.4।।
    न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
    भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।। गी. 9.5।।


    अर्थात् सम्पूर्ण जगत् मुझ निराकार रूप परमात्मा से परिपूर्ण है और सारे प्राणी मेरे सहारे सत्तावान् हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। मेरी इस योगशक्ति को देखो। सम्पूर्ण प्रणियों को उत्पन्न करने वाला और उनको धारण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। 


    इस वक्तव्य में भगवान् बहुत ही गूढ़ बात बता रहे हैं कि भगवान् वैसे तो संसार के महाकारण हैं, वे अन्तर्यामी रूप में सब में सर्वत्र व्याप्त हैं, किन्तु स्वरूप में भिन्न होने के कारण उनसे पृथक हैं। इसका सरल कारण यही है कि संसार तो परिवर्तनशील एवं नश्वर है, किन्तु भगवान् एकरूप और अनश्वर हैं। संसार के व्यक्तियों एवं वस्तुओं में एकदेशीयता है अर्थात् वे एक स्थान पर हैं और दूसरे स्थान पर नहीं, किन्तु ईश्वर सर्वव्यापक हैं। वे एक ही साथ एवं एक ही समय सर्वत्र व्याप्त हैं। इसके बाद भी अज्ञानी भगवान् को मानव-शरीरधारी समझते हैं। वे इस बात को नहीं जान पाते हैं कि यह मानव-शरीर धारण संसार के उद्धार हेतु उनका लोक-व्यवहार है। ईश्वर तो निराकार ब्रह्म हैं, वे साकार स्वरूप तो केवल किसी उद्देश्यपूर्ति हेतु ही धारण करते हैं।


    मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
    राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।। गी. 9.12।।


    तात्पर्य यह कि जो अज्ञानी ऐसा मानते हैं, वे आसुरी प्रकृति के होते हैं और उनके सारे अनुष्ठान निष्फल होते हैं। उनके सारे ज्ञान और उनकी आशायें निष्फल हैं। वे विक्षिप्तों जैसा अशान्त जीवन जीते हैं और उनकी प्रकृति राक्षसी एवं आसुरी अर्थात् मूढ़ता भरी बन जाती हैं। जबकि मेरा पूजन बहुत ही सुगम है। इसके लिये किसी विशेष उपादान की कोई आवश्यकता नहीं है। 


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। गी. 9.26।।


जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि वाले निष्काम प्रेमी भक्त उन सभी अर्पण को मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ। अर्थात् इसके लिये आडम्बरों की कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि सरल एवं सच्चे हृदय से प्रेमपूर्वक पूजन की ही आवश्यकता है। सच तो यह है कि 


    समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
    ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। गी. 9.29।।


    भगवान् तो सभी प्राणियों में व्याप्त हैं। उनका न कोई अप्रिय है और न ही प्रिय, तथापि जो भक्त उनको अनन्य भाव से प्रेमपूर्वक भजते हैं, उनमें ईश्वर का वास सहज ही होता है। यदि दुराचारी भी समर्पित भाव से मेरा भजन करता है, तो वह भी साधु मानने योग्य है क्योंकि उसे बोध हो जाता है कि प्रभु के भजन के समान और कुछ भी नहीं है। और इसलिये समर्पित भाव से भजन करने वाला पापी भी शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और अखण्ड शान्ति को प्राप्त करता है। यह तथ्य सत्य है कि ईश्वर का भजन करने वाला सच्चा भक्त कभी पतन की ओर नहीं जाता है। 


    मं हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
    स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। गी. 9.32।।


    अर्थात् हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा अन्य अधम योनिवाले चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे सभी यदि शरणागत होकर मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, तो वे परमगति को प्राप्त करते हैं। अतः सभी को भगवान् की शरण में जाना चाहिये और भक्ति-भाव से पूजन करना चाहिये। यही कल्याण-मार्ग कहा गया है। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य यहाँ वर्णित है कि भगवान् का पूजन सबके लिये है, किसी के लिये यह कदापि वर्जित नहीं है। गीता ग्रन्थ को यही तथ्य अत्यधिक महान् बना देता है, जो छुआ-छूत एवं भेदभाव को मान्यता नहीं देता है। साथ ही यह पापियों के लिये भी उद्धारक है। ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि यदि कोई पापी है तो वह ईश्वर की शरण में नहीं जा सकता। समाज-सुधार को लेकर की गई उक्ति इस ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता है, जो सहज ही दर्शनीय है।


    इस प्रकार इस अध्याय में ज्ञान और विज्ञान, राजविद्या, राजगुह्य एवं भगवद्भक्ति की सरलता एवं उसके लाभ को बड़ी सरलता से बताया गया है। तात्पर्य यह कि गीता में वर्णित ज्ञान-विज्ञान की मान्यता है कि समग्र दृष्टि भगवद्रूप है और निर्गुण रूप में अव्यक्त ब्रह्म ही व्यक्तरूप में सगुण वासुदेव श्रीकृष्ण हैं। इनकी उपासना बहुत सरल है एवं राजमार्ग की भाँति सुगम है, अतः राजविद्या है। गीता-ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ और गोपनीय होने के कारण ही इसे राजविद्या एवं राजगुह्य कहा गया है। राजगुह्य कहने का तात्पर्य आगे के अध्यायों में और स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। 

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विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, September 10, 2014

गीता ज्ञान - 8




                                                                   अक्षरब्रह्मयोग

गीता के आठवें अध्याय में ब्रह्म के निराकार स्वरूप की विशेष चर्चा की गई है, जो श्वेताश्वर उपनिषद् के तृतीय अध्याय से विशेष प्रभावित है। ‘बृहं’ धातु से व्युत्पन्न ‘ब्रह्म’ शब्द परमशक्ति के सर्वव्यापकत्व का विशेष द्योतन करता है। उधर ‘अक्षर’ का अर्थ कोष में अच्युत, स्थिर, नित्य, अविनाशी है। यह विष्णु के लिये भी प्रयुक्त है एवं ब्रह्म के विशेषण के रूप में भी।
सातवें अध्याय के अन्त में भगवान् कहते हैं कि ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ - इन छः तत्त्वों को जान लेने एवं स्मरण से भगवत् स्वरूप की प्राप्ति होती है। यही आठवें अध्याय का प्रारंभ बनता है, जो ‘अक्षर’ एवं ‘ब्रह्म’ को विस्तार से समझने में सहायक होता है। भक्ति मार्ग पर चलने के पूर्व मानव को यह ज्ञान होना आवश्यक है कि ‘अक्षर-ब्रह्म’ क्या है? इसकी विस्तृत विवेचना के कारण ही इस अध्याय का नाम ‘अक्षरब्रह्मयोग’ पड़ा है।


इस अध्याय में जाने के पूर्व यह याद करना आवश्यक है कि पिछले अध्याय में भगवान् ने बताया था कि ब्रह्म जीव-जगत्, इन सभी रूपों में ईश्वर का ही विस्तार है। वे ही सृष्टि के महाकारण हैं। अतः जो इन छः तत्त्वों के स्वरूप को समग्रता में समझकर अन्तकाल में भगवत्स्मरण करते हैं, वे ईश्वर को प्राप्त हो जाते हैं। इनके बारे में सुनकर अर्जुन को जिज्ञासा हुई। अर्जुन ने सात प्रश्न किये कि हे पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण! - (1) ब्रह्म क्या है? (2) अध्यात्म क्या है? (3) कर्म क्या है? (4) अधिभूत क्या है? (5) अधिदैव किसे कहते हैं? (6) अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीर में कैसे रहता है? (7) तथा नियतात्मा मनुष्य के द्वारा अंतकाल में आप किस प्रकार जाने जाते हैं? उनकी इस जिज्ञासा को भगवान् शांत करते हुए कहते हैं। 


अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावो
वकरो विसर्गः कर्मसञ्चितः।।गी.8.3।।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिवैतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।गी.8.4।।


तात्पर्य यह है कि अविनाशी तत्त्व ही ‘ब्रह्म’ है, जो सर्वोपरि है। ब्रह्म का जीवात्मा रूप में प्राणियों में प्रवेश ही ‘अध्यात्म’ है, अर्थात् शरीरों की स्थिति जिसके कारण है, वह जीवात्मा ही ‘अध्यात्म’ है। एक ही ब्रह्म का अनेक प्राणियों में क्रियाशील होने का संकल्प ही कर्मों का आरंभ है। तात्पर्य यह है कि सृष्टि के आरंभ में प्राणियों की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई। तब मैं एक ही हूँ जबकि लोग नानाविध मानते हैं, इस भाव का त्याग अथवा यज्ञादि में याजकों द्वारा हव्यद्रव्यों का त्याग ही ‘कर्म’ है। उत्पत्ति और विनाशशील समस्त वस्तुयें ‘अधिभूत’ हैं। हिरण्यमय पुरुष ही ‘अधिदैव’ है और परमात्मा का अन्तर्यामी परम चैतन्य मुक्त रूप ही ‘अधियज्ञ’ है। वे यह भी कहते हैं कि इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ।


प्रथम छः प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में बताने के बाद वे सातवें प्रश्न को विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि अन्तकाल में जो-जो मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उस भाव से ही उसका पुनर्जन्म होता है। जबकि वह साधक जो ईश्वर को स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग करता है तो वह ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करता है। इसे ही मोक्ष कहते हैं।


इसकी विधि का वर्णन करते हुए वे कहते हैं।


सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणम्।।गी. 8.12।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।गी.8.13।।


वस्तुतः यहाँ ईश्वर ने योगबल से प्राण-त्याग की बात कही है कि इन्द्रिय द्वारों को संयमित कर, मन को हृदय के स्थान में स्थिर कर, मन द्वारा प्राण को प्राणायाम की क्रियाओं के द्वारा मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थिर होना चाहिए। अर्थ यह कि इन्द्रियों से कोई भी चेष्टा न करना, उसके बाद परमात्मा में ध्यान स्थिर करना ही योगधारणा है। उसके पश्चात् एक अक्षर ‘ॐ’ का जाप करते हुए एवं ईश्वर को स्मरण करते हुए जो शरीर का त्याग करता है, वही परमगति को प्राप्त करता है। किन्तु यह सरल नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति योगबल से अपरिचित होता है और उसकी साधना उसके लिये दुष्कर है। अतः वे आगे कहते हैं कि यह नहीं तो जो कोई भी एकनिष्ठ भाव से ईश्वर का निरन्तर स्मरण करता है, उसे भी ईश्वर स्वरूप की प्राप्ति होती है।


अन्यथा पुनर्जन्म अवश्यंभावी है। इस हेतु दो मार्गों के वर्णन किये गये हैं कि ये शुक्ल और कृष्ण मार्ग हैं अर्थात् देवयान एवं पित्रयान। शुक्लमार्ग से गया हुआ निष्काम कर्मयोगी पुनः लौटकर नहीं आता, जबकि कृष्णमार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी पुनर्जन्म हेतु वापस लौटकर आता है। इसका कारण यह है कि ब्रह्मलोक सहित जितने भी लोक हैं, वे सभी पुनरावर्ती हैं। तात्पर्य यह कि उन लोकों की कामना करने पर एवं उन्हें पाकर निश्चित समय के पश्चात् उन सभी को पुनः संसार में आना ही पड़ता है। केवल वही पुनः नहीं आता, जो अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त करता है अथवा जो उसमें लीन हो जाता है। इसी क्रम में भगवान् सृष्टि की उत्पत्ति एवं प्रलय के संदर्भ में बताते हैं कि इस संसार में चार युग हैं - सत्ययुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग। इन्हें चतुर्युग कहते हैं। मर्त्यलोग की एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है और उतने ही काल की रात्रि भी होती है। ऐसे सौ वर्षों के पश्चात् ब्रह्मा जी परम ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। तब सृष्टि में महाप्रलय होता है, जो उनके सौ वर्षों की आयु तक रहता है। जब ब्रह्मा जी सूक्ष्म शरीर से पुनः उत्पन्न होते हैं, तब सृष्टि का आरम्भ होता है। यह क्रम चलता रहता है।


परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।गी.8.20।।


यह जान लेना चाहिये कि इस अव्यक्त अथवा ब्रह्मा अथवा मूल प्रकृति से भी परे दूसरा विलक्षण और सनातन अव्यक्त रूप होता है, जो है निराकार ब्रह्म। इस निराकार स्वरूप का कभी नाश नहीं होता है। वही स्वरूप परब्रह्म परमेश्वर है, जिसमें भक्ति रखने वाला परमधाम को प्राप्त करता है।


मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।गी.8.15।।


अर्थात् इस प्रकार परम सिद्धि को प्राप्त महात्मा लोग मुझको प्राप्त होकर दुःखालय एवं क्षणभंगुर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और परमगति को प्राप्त करते हैं।


इन सभी प्रकार के सत्य को जानने वाले ही काल-तत्त्वविद् कहलाते हैं। अतः हे अर्जुन! तुम भी इन सभी प्रकार के सत्य को जानो और केवल मुझमें अपना ध्यान करो। यही जीवन में वास्तविक मोक्षमार्ग है। ईश्वर भक्ति ही परम है। इस बात को इस अध्याय में बड़ी सुन्दरता से स्थापित किया गया है। साथ ही निराकार ब्रह्म की स्थापना की गई है, तो परम सत्ता है, जिसका कभी भी, किसी भी अवस्था में विनाश संभव नहीं है। और वे परम सत्ता और कोई नहीं बल्कि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। उनका स्मरण करने वाला जगत् में पुनर्जन्म के बंधन से हमेशा के लिये मुक्त होकर परमतत्त्व में हमेशा के लिये विलीन हो जाता है। यही मोक्ष है।

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विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, August 20, 2014

गीता ज्ञान - 7



                               ज्ञान-विज्ञानयोग


छठे अध्याय में अंतिम श्लोक में भगवान् कहते हैं कि जो श्रद्धावान् भक्त हैं और तल्लीन होकर भगवान् के भजन करते हैं, वे ही ईश्वर के मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। हम इसे सातवें अध्याय की पूर्वपीठिका के रूप में देख सकते हैं कि भगवान् ने भक्तियोग का संकेत दे दिया है। इस सातवें अध्याय का नाम ज्ञान-विज्ञानयोग है, जिसमें ज्ञान एवं विज्ञान की आध्यात्मिक व्याख्या की गयी है। 

    इस अध्याय में प्रवेश से पूर्व इस बात को समझना बहुत आवश्यक है कि एक सांसारिक मनुष्य में अहंता एवं ममता के भाव रहते हैं, जबकि समता का अभाव रहता है। ‘मैं’ अंहता भाव एवं ‘मेरा’ ममता भाव है। यही ‘मैं’ और ‘मेरा’ माया है। जन्म-मरण, दुःख-सुख, हानि-लाभ, राग-द्वेष, मान-अपमान आदि द्वन्द्व मानव के जीवन में स्वाभाविक हैं। उनसे प्रभावित होकर मानव माया के बंधन में पड़ जाता है। इन सभी में समदृष्टि रखना ही ‘समता’ है। अहंता एवं ममता के भावों को मिटाने एवं समता के भाव को लाने के लिये ही गीता में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति ये तीन मार्ग प्रतिपादित किये गये हैं। ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के प्रतिपादन के बाद भगवान् भक्तियोग का प्रतिपादन कर रहे हैं, जिसका प्रारंभ इस अध्याय में हुआ है।


    ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
    यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातमव्यमवशिष्यते।।गी.7.2।।


    अर्थात् मैं तुम्हारे निमित्त विज्ञान सहित सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान को बताऊँगा, जिसे जानकर संसार में और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 


    यह संदर्भ सुन्दर एवं विस्तृत प्रकार से इस अध्याय में वर्णित है। भगवान् कहते हैं कि भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहंकार ये आठ प्रकार की जड़ प्रकृति हैं, जिसे ‘अपरा’ प्रकृति कहा गया है। दूसरी प्रकृति चेतन प्रकृति है, जिसे ‘परा’ प्रकृति कहा गया है। इन दोनों ही प्रकृतियों के संयोग से सम्पूर्ण प्राणि जगत् उत्पन्न हुआ है। इनकी उत्पत्ति एवं प्रलय का मूल कारण ईश्वर ही है। पंचमहाभूतों अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथवी की उत्पत्ति पाँच तन्मात्राओं से होती है, जो हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध। ये पंचमहाभूत उत्पन्न होकर पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं और यही सृष्टि एवं प्रलय का रहस्य है।


    भगवान् कहते हैं कि भावनाएँ सत्त्वगुण, राजोगुण एवं तमोगुण से समय-समय पर प्रभावित होती रहती हैं। इन्हीं गुणों से मोहित होकर मनुष्य त्रिगुणातीत परमात्मा को नहीं जान पाता है और जीवन में कष्ट पाता है। अतः भगवान् कहते हैंः


    दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
    मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।गी.7.14।।


    अर्थात् त्रिगुणमयी यह मेरी माया अपार एवं अद्भुत है। जो इस संसार को ही सत्य मानकर चलते हैं, इसका पार नहीं पाते हैं, किन्तु जो त्रिगुणातीत मुझ परमात्मा की उपासना करते हैं, वे इस माया का पार पा जाते हैं और उनका उद्धार होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा में ध्यान करने वाला और उसे ही सत्य मानने वाला मुक्त होता है और माया के बंधन से कष्ट नहीं पाता है। इसी क्रम में भगवान् भक्तों के प्रकार बताते हुए कहते हैं।


    चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जन।
    आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। गी.7.16।।


    अर्थात् भरतवंशियों में हे श्रेष्ठ अर्जुन! मेरे पुण्यात्मा भक्तों के चार प्रकार हैं - (1) अर्थार्थी - जो सांसारिक सुख-साधनों को प्राप्त करने के लिये मेरे भक्त बनते हैं। (2) आर्त्त - जो संकट निवारण के लिये मेरे भक्त बने हैं। (3) जिज्ञासु - जो मेरे रहस्य एवं मेरी रचना सृष्टि के बोध की जिज्ञासा रखते हैं। (4) ज्ञानी - जो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर ही मूल कारण हैं, वे ही सत्य हैं, वे ही एकमात्र ध्येय एवं उपास्य हैं और ऐसा मानकर वे निःस्वार्थ भाव से मेरी उपासना करते हैं। ये ज्ञानी भक्त ही मेरे प्रिय हैं और मैं उनका प्रिय हूँ। वस्तुतः ऐसा ज्ञानी भक्त मेरा ही स्वरूप है। 


    यहीं पर एकदेववाद की स्थापना करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं।


    यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
    तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।गी.7.21।।


    अर्थात् जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धापूर्वक पूजना चाहते हैं, उन-उन सकाम भक्तों की श्रद्धा को मैं उस देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। कहने का तत्पर्य यह है कि सभी देवता एक समान हैं और किसी भी देवता की उपासना से उसे वही फल प्राप्त होता है, जो सत्य है। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन है, जो एकेश्वरवाद को पूर्णतः स्थापित करता है। इसी के क्रम में वे कह उठते हैं।


    स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
    लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।।गी.7.22।।


    अर्थात् मेरे द्वारा श्रद्धा से युक्त वह पुरुष जिस देवविशेष की पूजा करता है, वह उस देवता से इच्छित फल पाता है, किन्तु फल-विधान करने वाला कोई दूसरा नहीं है, बल्कि वह मैं ही हूँ। देव भी मेरे द्वारा प्रदत्त वस्तु ही भक्त को देते हैं क्योंकि सबका स्रष्टा मैं ही हूँ। कहने का तात्पर्य यही है कि सभी एक ही हैं और ईश्वर एक ही है। उन्हें केवल अनेक रूपों में पूजा जाता है।


    आगे भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जरा और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये जो भक्त मेरा आश्रय लेकर साधना द्वारा संसारचक्र से मोक्ष पाने के लिये प्रयत्नशील होते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण आध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान लेते हैं। तब वे तत्त्ववेत्ता ज्ञानी मुझे जान लेते हैं और मुझे प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार भक्ति को इस अध्याय में सर्वश्रेष्ठ मार्ग के रूप में दर्शाया गया है, जो निश्चित रूप से सर्वकल्याणकारी है।


    इस प्रकार ज्ञान-विज्ञानयोग के इस अध्याय में कहा गया है कि इस सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति के मूल कारण ईश्वर ही हैं और इसका दृढ़ विश्वास ही ‘ज्ञान’ है। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, वे कण-कण में विद्यमान हैं, वे ही अपरा एवं परा प्रकृति हैं, इस जगत् की उत्पत्ति के निमित्त एवं उपादान दोनों के ही कारण हैं - इस बात को मान लेना ही ‘विज्ञान’ है। इसे सरलीकरण करके देखें तो हम कह सकते हैं कि अपने शरीर और उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों और वस्तुओं को प्रकृति मान लेना ‘ज्ञानयोग’ है। संसार को मान लेना और उसके अनुसार कर्म करना ही ‘कर्मयोग’ है और ईश्वर की परमसत्ता में दृढ़ विश्वास ही ‘भक्तियोग’ है।

विश्वजीत ‘सपन’