Thursday, April 3, 2014

गीता ज्ञान - प्रथम 1





प्रथम अध्याय
 

श्रीमद्भागवद्गीता में प्रवेश से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि यह महाग्रंथ महाभारत के भीष्मपर्व के २५ से ४२ वें अध्याय तक का अंश है। कथा कुछ इस प्रकार है कि बारह वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात् पांडव जब वापस आये तो उन्होंने अपना आधा राज्य माँगा। दुर्योधन ने जब अस्वीकार कर दिया तो युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का महासमर प्रारंभ हुआ। सैन्य निरीक्षण के दौरान अर्जुन को अपने ही सगे-सम्बन्धियों से युद्ध करना उचित नहीं लगा और उसके विषादयोग का प्रारंभ हुआ।

गीता के प्रथम अध्याय में विषादयोग का वर्णन किया गया है। विषाद अर्थात् मनोव्यथा ही दुःख है। विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाना ही मानवीय सहज प्रवृत्ति है। दुःख से सभी दूर रहना चाहते हैं, तो इसे कैसे ईश्वर से योग का साधन माना जाए। इसी तथ्य को इस अध्याय में बताया गया है।

महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन का सामना भी इसी विषाद के साथ हुआ था, जब उसने देखा कि जो युद्धरत थे, वे कोई अन्य नहीं थे, बल्कि उसके अपने ही सगे-संबंधी थे। अपनों को शत्रु के रूप में देखकर अर्जुन विषादयुक्त हो उठा था।

          अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
        यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।

अर्थात् यह अत्यंत ही शोक एवं आश्चर्य की बात है कि हम बुद्धिमान होकर भी जान-बूझ कर इस कुलाघात के महापाप करने को तत्पर हो गए हैं और राज्य सुख के लोभ में स्वजनों के वध को ही तत्पर हो गए हैं।

ऐसे ही अनेक प्रकार के शोक मानव को जीवन भर सताते रहते हैं। किन्तु क्या इसे पकड़कर रखना चाहिए और जीवन भर संतप्त होकर जीना चाहिए? यह एक सामान्य प्रश्न है। इस प्रश्न को गीतकार ने सम्मुख रखकर इस अध्याय का सृजन किया है कि यदि हम दुःख को प्रभु का प्रसाद मानकर एवं इनके उपचार हेतु स्वयं को प्रभु की शरण में उपस्थित कर दें तो यही विषाद प्रभु से मिलन की पहली सीढ़ी भी बन जाती है। अर्जुन ने भी यही किया और स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया।


          कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
       यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यतेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

अर्थात् हे प्रभु, कायरतारूपी दोष से उपहत स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में चित्त डगमगाने वाला हुआ मेरा मार्ग प्रशस्त करें क्योंकि मैं आपका शरणागत शिष्य हूँ।

यहीं से अर्जुन के भगवद्योग का प्रारंभ हो जाता है। जब आस्तिकता और आस्था की डोर पकड़कर विषाद को मानव ईश्वरार्पित कर देता है तो ईश्वर उसका समाधान अवश्य करते हैं और अपने भक्त की सुधि लेते हैं। जिस प्रकार जीवन-चक्र चलता है, ठीक उसी प्रकार हर्ष एवं विषाद का चक्र भी सत्य है अर्थात् हर्ष के पहले विषाद एक सत्य है और सागर-मंथन का यही प्रथम रत्न है। यही विषादयोग है और यह वेदान्त दर्शन के प्रथम सूत्र "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" के समान है।

यहाँ यह कहना उपयुक्त होगा कि अर्जुन की चिंता मानवता से परे कदापि नहीं थी, किन्तु वह प्रासंगिक नहीं थी। अवसर के अनुकूल नहीं थी क्योंकि यह स्वधर्म से पृथक थी। एक युद्ध के लिए तैयार हो जाने के पश्चात् रणभूमि को त्यागना क्षत्रिय धर्म नहीं कहा जा सकता था। साथ ही वह अधर्म के विरुद्ध खड़ा था, जिसका नाश करना उसका कर्तव्य भी था।

                                                                                                                            विश्वजीत 'सपन'

No comments:

Post a Comment