Thursday, November 8, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 58)



महाभारत की कथा की 83वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

लोभ का फल
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प्राचीन काल की बात है। गौतम नामक एक मुनि हुआ करते थे। वे बड़े धर्मात्मा पुरुष थे। उनके तीन पुत्र थे - एकत, द्वित एवं त्रित। ये तीनों ही वेदवेत्ता थे। सभी तप करते थे, नियम से रहते थे एवं इन्द्रिय-निग्रह के लिये जाने जाते थे। समय के साथ गौतम परलोकवासी हुए, तब यजमानों ने इन तीनों को भी आदर-सम्मान दिये। इनमें त्रित मुनि अपने पिता के समान ही सम्मानित हुए और यजमानों में उनकी प्रसिद्धि स्थापित हुई।


एकत एवं द्वित समय के साथ धन की कामना करने लगे। उनके धन की पूर्ति त्रित से ही संभव थी, अतः उन्होंने विचारकर त्रित से कहा - ‘‘त्रित, तुम सबसे छोटे हो, किन्तु यजमान तुमसे ही यज्ञ करवाना चाहते हैं। हम दोनों तुम्हारी सहायता करेंगे और यजमानों को इसके लिये मनायेंगे, ताकि हम भी धन और पशु प्राप्त कर सकें। उसके उपरान्त हम सभी मिलकर सोमपान करेंगे।’’


त्रित ने कहा - ‘‘ठीक है भइया, आपलोग जैसा कहें।’’


उसके बाद एकत एवं द्वित यजमानों के पास गये और त्रित द्वारा यज्ञ करवाकर उन्होंने असंख्य पशु प्राप्त किये। उन तीनों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। त्रित मुनि अपनी क्षमता पर प्रसन्न थे, किन्तु एकत एवं द्वित एक अलग ही योजना बना रहे थे। 


एकत ने कहा - ‘‘द्वित, ऐसा कौन-सा उपाय किया जाये कि ये सारे पशु हमारे पास ही रहें और त्रित के पास न जाने पाये?’’


द्वित ने कहा - ‘‘आप उचित कह रहे हैं भइया। त्रित तो विद्वान् है। लोग उसका सम्मान भी करते हैं। वह तो कभी भी यज्ञ करवाकर अपने लिये पशुओं को एकत्रित कर सकता है। हम इन गायों को हाँककर कहीं और चले जाते हैं, त्रित तो अपने लिये धन इकट्ठा कर ही लेगा।’’


एक दिन की बात है। पशुओं के साथ वे तीनों भाई चले जा रहे थे। त्रित सबसे आगे चल रहा था और उसे अपने दोनों भाइयों की योजना की भनक भी न थी। दैवयोग से उसी मार्ग से सहसा एक भेड़िया उनकी ओर आ गया। त्रित मुनि ने भेड़िये को देखा तो वे भय से भागने लगे। भागते-भागते वहीं बगल में एक कुएँ में गिर पड़े। उस कुएँ में पानी न था। बालू अधिक था, तो त्रित को अधिक चोट नहीं आई। सब ओर लताओं से घिरे होने के कारण वह कुआँ ऊपर से दिखाई नहीं देता था। त्रित ने पुकार लगाई, किन्तु एकत एवं द्वित ने उनकी पुकार न सुनी। एक तो उस भेड़िये का भय था तथा लोभ ने भी उनके मन को अपने चंगुल में फँसा रखा था। उन्होंने सोचा कि वे तो त्रित से पीछा छुड़ाने की ही योजना बना रहे थे और दैवयोग से उनकी योजना स्वयमेव पूरी हो गयी। अवश्य ही भूख-प्यास से त्रित की मृत्यु हो जायेगी और सारे पशु अब उनके हो जायेंगे। ऐसा विचारकर त्रित को वहीं कुएँ में छोड़कर वे दोनों भाई अपने स्थान की ओर चले गये।


उधर त्रित को भी भय हुआ कि अब उनकी मृत्यु निश्चित थी, किन्तु सोमपान की इच्छा अभी पूरी न हुई थी। वे सोचने लगे कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बुद्धिमान तो थे ही, तो आस-पास की वस्तुओं का निरीक्षण करने लगे। उन्हें उपाय मिल गया। उन्होंने उस बालू के कूप में संकल्प के द्वारा अग्नि की स्थापना की। लता में सोम की भावना से मन ही मन ऋग्, यजुः और साम का चिंतन किया। उसके उपरान्त कंकड़ों में शिला की भावना से उस लता से पीसकर सोमरस निकाला। फिर वेद मन्त्रों से उसकी पूजा की। उनकी वेद-ध्वनि स्वर्ग तक जा पहुँची। 


देव पुरोहित बृहस्पति को वह सुनाई पड़ी, तो उन्होंने देवताओं से कहा - ‘‘त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा है। हम सभी को वहाँ चलना चाहिये। वे बड़े तपस्वी हैं, यदि न गये, तो वे क्रोध में आकर दूसरे देवताओं की सृष्टि कर डालेंगे।’’


तब सभी देवतागण देव पुरोहित के साथ त्रित मुनि के पास गये। त्रित मुनि उस कूप में यज्ञ में लीन थे और बड़े तेजस्वी दिखाई दे रहे थे।
देवताओं ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम अपना भाग लेने आये हैं।’’
त्रित मुनि मन्त्र पढ़ते हुए विधिपूर्वक देवताओं को अपने भाग अर्पण किये।


देवताओं ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम आपसे प्रसन्न हैं। अपनी इच्छानुसार वर माँगिये।’’


त्रित मुनि ने कहा - ‘‘हे देवगण, आप देख ही रहे हैं कि मैं किस गति में पड़ा हूँ। सर्वप्रथम तो इस कूप से मेरी रक्षा कीजिये। साथ ही ऐसा वर दीजिये कि जो इसमें आचमन करे, उसे सोमपान करने वाले की गति प्राप्त हो।’’


उनके इतना कहते ही वह कूप सरस्वती नदी के जल भरने लगा। उस जल के साथ उठकर त्रित मुनि भी कूप से बाहर आ गये। देवताओं ने ‘‘तथाऽस्तु’’ कहकर उनको वरदान दिया और अपने-अपने स्थल पर चले गये।


त्रित मुनि प्रसन्नतापूर्वक अपने घर आ गये। वहाँ अपने भाइयों को देखकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने उन्हें शाप देते हुए कहा - ‘‘आपलोगों ने मुझे कूप में मरने के लिये छोड़ दिया और महान् पाप किया। इसका दण्ड आपको मिलना ही चाहिये। आपलोगों ने धन के लोभ ऐसा किया, अतः आप अभी भेड़िये बन जाओ और उन्हीं के समान वन में विचरण करो।’’


त्रित मुनि के ऐसा कहते ही एकत एवं द्वित के मुख भेड़िये के समान दिखने लग गये। वे मुँह छुपाकर वहाँ से भाग खड़े हुए। इसी कारण कहा गया है कि कभी भी लोभ नहीं करना चाहिये। इसका परिणाम बुरा ही होता है।


विश्वजीत ‘सपन’

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को गोवर्धन पूजा और अन्नकूट की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 08/11/2018 की बुलेटिन, " गोवर्धन पूजा और अन्नकूट की हार्दिक शुभकामनाएं “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. सादर आभार आपका। सादर नमन

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