Wednesday, October 31, 2018
महाभारत की लोककथा भाग - 57
महाभारत की कथा की 82वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
मुनि जैगीषव्य की लीला
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पूर्वकाल की बात है। देवल नामक एक मुनि हुए। वे गृहस्थ-धर्म का आश्रय लेकर जीवन-यापन करते थे। वे बड़े ही धर्मात्मा एवं तपस्वी थे। मन, वाणी तथा क्रिया से वे समस्त जीवों का समान रूप से सम्मान करते थे। उन्हें क्रोध स्पर्श भी न कर पाता था। प्रतिकूल वचन पर भी वे सामान्य भाव ही प्रदर्शित करते थे। वे सदा ही देवता, ब्राह्मण, अतिथि आदि की सेवा में तत्पर रहा करते थे।
एक दिन की बात है। महान् धर्मात्मा मुनि जैगीषव्य उनके आश्रम में एक भिक्षुक बनकर आये। वे सिद्धिप्राप्त योगी थे तथा उनकी स्थिति योग में ही बनी रहती थी। मुनि देवल ने उनका आथित्य स्वीकार किया एवं उनकी बड़ी सेवा की। जैगीषव्य मुनि देवल के आतिथ्य से प्रसन्न होकर वहीं रहने लगे, किन्तु वे हमेशा ही योग में लीन रहते थे। वे बोलते भी न थे। उधर मुनि देवल कभी भी योग साधना उनकी उपस्थिति में नहीं करते थे। इस प्रकार अधिक समय बीत गया।
कुछ समय के बाद जैगीषव्य मुनि बड़ा कम दिखाई देने लगे। मात्र भोजन के समय ही वे देवल मुनि को दिखाई देते थे। मुनि देवल को बात खटकती थी, क्योंकि अब तक उन्होंने देवल से एक शब्द भी कहा न था। यह बात भी मुनि देवल को परेशान करती थी। तब देवल मुनि ने उनके रहस्य को जानने का मन बनाया। वे जानना चाहते थे कि जैगीषव्य का उनके यहाँ आने एवं ऐसा विचित्र व्यवहार करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था?
इसी क्रम में एक दिन वे सत्य जानने के लिये आकाशमार्ग से समुद्र तट की ओर चल पड़े। जैसे ही वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि मुनि जैगीषव्य वहाँ पूर्व से ही उपस्थित थे। मुनि देवल को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी तो वे आश्रम में थे, किन्तु उनके पहुँचने के पूर्व ही समुद्र तट पर पहुँच गये थे तथा उन्होंने उनसे पूर्व स्नान भी कर लिया था। यह कैसे संभव था? ऐसा विचार करते हुए वे भी स्नानकर आश्रम आये, तो देखा कि मुनि जैगीषव्य पूर्व से ही आश्रम में उपस्थित थे। अब उन्हें यह रहस्य जानने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई। उन्हें प्रतीत होने लगा कि जैगीषव्य में कोई न कोई अद्भुत शक्ति अवश्य है।
ऐसा सोचकर वे आकाश में उनके रहस्य को जानने के लिये उड़ चले। अंतरिक्ष में पहुँचकर उन्होंने सिद्धों को देखा और सबसे बड़े आश्चर्य की बात थी कि वे सिद्ध मुनि जैगीषव्य की पूजा कर रहे थे। उसके उपरान्त तो और भी अद्भुत संयोग हुआ। जैगीषव्य को उन्होंने स्वर्गलोग में जाते देखा, वहाँ से चन्द्रलोक और पुनः चन्द्रलोक से अग्निहोत्रियों के उत्तमलोक में जाते देखा। अब मुनि देवल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वे जहाँ भी जाते उन्हें मुनि जैगीषव्य के दर्शन हो जा रहे थे। कुछ समय तक ऐसा ही चलता रहा, फिर सहसा वे कहीं अन्तर्धान हो गये। तब मुनि देवल को लगा कि वे अवश्य ही कोई असाधारण प्राणी थे। इस रहस्य को जानने के लिये उन्होंने सिद्धों से पूछा - ‘‘बड़े आश्चर्य की बात है कि मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, मुनि जैगीषव्य वहाँ-वहाँ दिखाई देते हैं, किन्तु अभी अचानक ही वे कहीं चले गये। इसका क्या रहस्य है। इसे मुझे विस्तार से बतायें।’’
सिद्धों ने कहा - ‘‘मुनिवर! आप व्यथित न हों। जैगीषव्य एक सिद्ध पुरुष हैं। उनकी लीला वे ही जानें, किन्तु अब वे ब्रह्मलोक चले गये हैं। वहाँ आपकी गति नहीं है, अतः आप आश्रम लौट जायें। वे अवश्य आपकी समस्या का समाधान करेंगे।’’
सिद्धों की बात सुनकर मुनि देवल अपने आश्रम की ओर लौट गये, किन्तु उनका मन अशान्त था। वे मन ही मन विचार कर रहे थे कि यदि इस बार उनका सामना मुनि जैगीषव्य से हुआ, तो वे उनसे मोक्षधर्म का मार्ग अवश्य पूछेंगे। ऐसा विचार करते हुए जब वे आश्रम में पहुँचे, तो उनकी दृष्टि आश्रम में पूर्व से ही बैठे मुनि जैगीषव्य पर पड़ी। तत्काल ही उन्होंने जैगीषव्य को प्रणाम किया और बोले - ‘‘भगवन्! मैं आपको पहचान न सका। इस भूल के लिये मुझे क्षमा करें।’’
मुनि जैगीषव्य के मुख पर मात्र मुस्कान थी। देवल मुनि फिर बोले - ‘‘मुनिवर! मैं संन्यास का आश्रय लेना चाहता हूँ। कृपाकर मुझे मोक्षधर्म का मार्ग बतायें।’’
अब मुनि जैगीषव्य को विश्वास हो गया कि मुनि देवल शिक्षा ग्रहण करने हेतु तैयार थे। तब उन्होंने मुनि देवल को ज्ञान का उपदेश दिया। फिर उन्हें योग की विधि बताई और उसके उपरान्त उनको कर्तव्य एवं अकर्तव्य का भी उपदेश दिया।
इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मुनि देवल ने गृहस्थ-धर्म का परित्याग कर दिया। उन्होंने मोक्ष-धर्म में अपनी प्रीति लगाई। इस प्रकार उन्होंने परा सिद्धि एवं परम योग को प्राप्त किया।
विश्वजीत 'सपन'
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