Sunday, November 25, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 60)




महाभारत की कथा की 85वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

राजा का धर्म
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प्राचीन काल की बात है। मिथिला नगरी में राजा जनक का राज्य था। वे बड़े ही सिद्ध पुरुष थे। उन्हें आत्म-ज्ञान हुआ और वे द्वन्द्वों से बिल्कुल मुक्त हो गये थे। वे जीवन के बारे में हमेशा विचार किया करते थे। समय के साथ उनमें विरक्ति का भाव उत्पन्न हो गया। उन्हें लगा कि जो जीवन वे जी रहे थे, वह वास्तविक जीवन न था। ऐसा विचारकर एक दिन उन्होंने सभी से कहा - ‘‘दूसरों की दृष्टि में मेरे पास अनन्त धन है, राज-पाट है, धन-सम्पदा है। यदि देखा जाये, तो मेरा उसमें कुछ भी नहीं है। यदि समस्त मिथिला जल जाये, तोे मेरा कुछ भी न जलेगा। व्यक्ति अकेला आता है और अकेला ही जाता है। उसके साथ कुछ भी नहीं जाता।’’


इस विरक्ति-भाव के आ जाने पर उन्होंने धन, संतान, स्त्री तथा अग्निहोत्र का भी त्याग कर दिया और एक भिक्षुक की भाँति मुट्ठी भर जौ खाकर रहने लगे। इस प्रकार राजा का व्यवहार देख उनकी रानी को बड़ा कष्ट हुआ। ऐसी प्रवृत्ति से राज्य का भला न होने वाला था, अतः उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने पति को राजा के धर्म से अवगत करायें। इस प्रकार उन्होंने अपने पति को समझाना प्रारंभ किया।


कौसल्या बोली - ‘‘राजन्! आपका एक भिक्षुक की भाँति मुट्ठी भर जौ खाकर रहना उचित नहीं है। यह सर्वथा राजधर्म के विरुद्ध है। आपने अपने कर्मों का त्याग किया है, अतः देवता, अतिथि एवं पितरों ने भी आपका परित्याग कर दिया है। मानव-जीवन में कर्म की महत्ता सर्वविदित है। देखिये, आपके रहते हुए भी आपकी माता पुत्रहीना हुई और मैं पतिविहीना। कभी आप समस्त जीवों की भूख मिटाया करते थे, किन्तु अब मुट्ठी भर जौ के लिये आपको हाथ फैलाना पड़ता है। तब इस त्याग में और राज्य करने में अंतर ही क्या रहा?


जो लगातार दान देता है और दान लेता है, उनके मध्य का अंतर समझिये। इस संसार में साधु-संतों को दान देने वाला राजा होना चाहिये। यदि दान देने वाले राजा न रहे, तो मोक्ष की इच्छा रखने वाले महात्माओं का क्या होगा? अन्न से प्राण की पुष्टि होती है, अतः अन्न देने वाला प्राणदाता होता है। सच्चाई तो यही है कि गृहस्थ-धर्म का त्याग करने वाले भी गृहस्थों के सहारे ही जीवन-यापन करते हैं। मुक्ति तो कर्म से भी संभव है। बहुत से लोग जो गेरुए वस्त्र पहन कर घर से निकल जाते हैं, वे नाना प्रकार के बंधनों में बँधे होकर भोगों की खोज में जीवन बिता देते हैं। ऐसे वस्त्र धारण करने का क्या लाभ? असल में वे अपनी आजीविका चलाने हेतु ही ऐसा करते हैं। ऐसा बनकर जीना कभी भी मोक्ष-प्राप्ति का साधन नहीं बन सकता।


आप समझने का प्रयास कीजिये कि आप साधु-महात्माओं का पालन-पोषण कर सकते हैं। उनके लक्ष्य-प्राप्ति में आप उनके सहायक बन सकते हैं। इसके बाद भी आप जितेन्द्रिय होकर पुण्यलोक के अधिकारी बन सकते हैं। थोड़ा विचार कीजिये कि जो प्रतिदिन गुरु के लिये समिधा लाता है अथवा जो बहुत-सी दक्षिणाओं वाले यज्ञ करता है, उससे बड़ा धर्म परायण कौन हो सकता है? प्रत्येक मानव का अपना धर्म होता है। ठीक उसी प्रकार राजा का भी अपना धर्म होता है। 


आपने एक निष्क्रिय जीवन बिताने का निर्णय किया है। इससे जगत् का क्या भला हो सकता है? आप समझने का प्रयास करें कि जो लोग सर्वदा दान और तप में तत्पर रहकर अपने धर्म का पालन करते हैं, जो दया आदि गुणों से सम्पन्न रहते हैं, काम, क्रोध आदि दोषों का त्याग करते हैं, अच्छी तरह से दान देते हुए प्रजापालन करते हैं तथा वृद्धजन की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं, उन्हें अभीष्ट लोक की प्राप्ति होती है। यदि हम सत्यभाषी होकर हमेशा देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों की सेवा करते हुए ब्राह्मणसेवी बने रहते हैं, तो हमें इष्ट लोक की प्राप्ति का अधिकार प्राप्त हो जाता है, अतः हे प्राणनाथ, आप भी गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए प्रजा के रक्षक बनें। अपने राजधर्म का पालन करना ही राजा का असली धर्म होता है। आप स्वयं को कष्ट न दें, वरन् आप सभी के कष्टहारक बनें।’’


इस प्रकार रानी के कहने पर राजा जनक ने साधु-संतों की भाँति जीवन यापन करने का निर्णय त्याग दिया और वे पुनः प्रजापालक बनकर रहने लगे। कहा गया है कि सभी प्राणियों को अपने धर्म का पालन करना चाहिये। उचित समय पर ही वैराग्य की कामना करनी चाहिये। अपने कर्मों से ही मुक्ति संभव होती है। कर्म-त्याग जीवन का लक्ष्य कभी नहीं हो सकता।


विश्वजीत ‘सपन’

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