Tuesday, December 4, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 61)


महाभारत की कथा की 86वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

मानव धर्म का रहस्य
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प्राचीन काल की बात है। विदेहराज जनक को शोक हुआ। वे इससे मुक्ति पाना चाहते थे। तब उन्होंने विप्रवर अश्मा से पूछा - ‘‘हे विप्रवर! मुझे शोक हुआ है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे में क्या करना चाहिये। कृपा कर अपना कल्याण करने वाले मानव का व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसका ज्ञान मुझे दीजिये?’’


अश्मा महान् ज्ञानी एवं तत्त्ववेत्ता थे। वे राजा की दुविधा को समझ रहे थे। उन्होंने कहा - ‘‘राजन्! मानव जीवन को भली-भाँति समझना आवश्यक होता है। इस बात को मन में अच्छी तरह से बिठा लें कि जन्म लेते ही प्रत्येक मानव दुःख एवं सुख का अनुभव करने लगता है। इसी कारण उसका ज्ञान अंधकार में छुप जाता है। जिस प्रकार वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, ठीक उसी प्रकार ये सुख-दुःख भी मानव के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। असल में सुख एवं दुःख प्रारब्ध के अनुसार आते ही हैं और आयेंगे ही। इनसे मुक्ति संभव नहीं है। विधाता की करनी बड़ी विचित्र है। भूख-प्यास, रोग, आपत्ति, ज्वर, मृत्यु आदि सब के सब जीव के जन्म के समय ही निश्चित हो जाते हैं। नियम के अनुसार समस्त प्राणियों को इनसे होकर ही जाना पड़ता है। इस प्रकार काल के प्रभाव से जीवों का सम्बन्ध इष्ट एवं अनिष्ट दोनों से होता है। यही जीवन है तथा जीवन का यही ज्ञान वास्तविक ज्ञान कहलाता है।’’


जनक ने पूछा - ‘‘हे ब्राह्मण देवता, आपने सही कहा। मुझे यह बताने का कष्ट करें कि क्या मृत्यु पर विजय नहीं पायी जा सकती?’’


अश्मा ने कहा - ‘‘यह संभव नहीं है राजन्, मृत्यु सभी को आनी है, तब वह चाहे आज हो अथवा कल। मनुष्य जब मृत्यु के निकट होता है अथवा जब वह वृद्धावस्था में जाता है, तब कोई औषधि, मन्त्र, होम अथवा पूजा उसे बचा नहीं सकते। मृत्यु का यह लम्बा मार्ग समस्त जीवों को तय करना ही पड़ता है। तपस्वी, दानी एवं बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले भी वृद्धावस्था तथा मृत्यु को पार नहीं कर सकते।’’ 


राजा जनक ने कहा - ‘‘उचित है विप्रवर, कृपया ये भी बतायें कि हमारे संबंधी, नाते-रिश्तेदार आदि के संदर्भ में क्या सत्य है? हमारा मोह उनसे लगा ही रहता है।’’


अश्मा ने कहा - ‘‘राजन्! बड़ा ही सुन्दर प्रश्न किया आपने। इसके उत्तर को समझ लेने वाले को कभी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता है। ये रिश्ते-नातेदार भी उसी प्रकार मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं, जिस प्रकार समुद्र में दो लक्कड़ मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं। इस संसार में माता-पिता, स्त्री, पुत्र, पुत्री आदि किसके हुए हैं? विचार करें, तो इस जीव का न तो कोई सम्बन्धी हुआ है तथा न कभी होगा। याद कीजिये कि आपके बाप-दादा कहाँ चले गये? अब न वे आपको देख सकते हैं और न आप उन्हें। सब के सब एक दिन मिट जाते हैं। स्वर्ग एवं नरक को मनुष्य अपनी आँखों से कभी देख ही नहीं सकता। उन्हें देखने के लिये सत्पुरुष शास्त्ररूपी नेत्रों से काम लेते हैं। अतः इस बात को समझिये कि यह संसार ही अनित्य है एवं चक्र के समान घूमता रहता है। सभी को आना है तथा पुनः जाना है। यही नियम है, अतः जीव को सभी प्रकार के शोकों को भूल जाना चाहिये। उसे स्वयं से पूछना चाहिये कि शोक किसके लिये करना है? मेरा तो कोई है ही नहीं। किसी के प्रति मोह मात्र जीव का भ्रम है।’’


राजा जनक ने पूछा - ‘‘विप्रवर! यदि यह संसार ही भ्रम है, तो ऐसे में एक मानव का स्वभाव क्या होना चाहिये? उसे किस प्रकार का आचरण करना चाहिये?’’


अश्मा ने कहा - ‘‘जिसे अपने कल्याण की चिंता है, उस मनुष्य को शास्त्रों का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये। उसे चाहिये कि वह पितरों का श्राद्ध एवं देवताओं के पूजन करे। पहले मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। उसके बाद उसे गृहस्थ आश्रम का पालन करना चाहिये। पितरों एवं देवताओं के ऋण से मुक्त होकर संतान उत्पन्न करना चाहिये तथा यज्ञादि करना चाहिये। उसे हृदय का शोक त्याग कर इहलोक, स्वर्गलोक अथवा परमात्मा की आराधना करनी चाहिये। जो राजा शास्त्र के अनुसार धर्म का आचरण करता है तथा द्रव्य-संग्रह करता है, उसका सम्पूर्ण विश्व में सुयश फैलता है, अतः राजन् तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिये।’’


अश्मा मुनि के इस प्रकार कहने से राजा जनक का शोक दूर हो गया। उन्हें धर्म के रहस्य की प्राप्ति हुई तथा उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उनका मनोरथ पूर्ण हुआ और वे प्रसन्नचित्त होकर अपने महल वापस लौट गये। यही जीवन का रहस्य है। यही मानव का धर्म है। जो मानव इस प्रकार अपना जीवन यापन करता है, उसे अंततः अंतिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।


विश्वजीत 'सपन'

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