Friday, February 8, 2019

महाभारत की लोककथा - (भाग 69)




महाभारत की कथा की 94 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

पाप का निवारण
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प्राचीन काल की बात है। तब राजा को यदि कुछ शंका होती थी, तो वे अपने राज्य के ऋषि-मुनियों से उसका समाधान पूछते थे। वे ऋषि-मुनि भी उनकी समस्याओं अथवा पृच्छाओं के उचित समाधान किया करते थे। एक बार राजा अंगरिष्ठ को इसी प्रकार की शंका हुई, तो कामन्दक ऋषि के पास गये। ऋषि ने आश्रम पर उनका अतिथि के समान उचित स्वागत एवं सत्कार किया और बोले - ‘‘कहिये राजन्, हमारे आश्रम पर आपके आने का प्रयोजन क्या है? मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ।’’


राजा ने कहा - ‘‘मुनिवर! आप सभी तो जीवन से विलग होकर अपना जीवन यापन करते हैं, अतः आपसे कोई अनुचित कर्म नहीं होता, किन्तु हम सभी एक सामान्य जीवन जीते हैं, ऐसे में अनेक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। तब निर्णय लेना कठिन हो जाता है।’’


ऋषि ने कहा - ‘‘आपकी बात उचित है महाराज। आपने जीवन की सच्चाई का अनुभव किया है। बताइये आपकी शंका क्या है?’’


राजा ने कहा - ‘‘धर्म, अर्थ एवं काम का निर्णय कैसे करना चाहिये? ये कहीं एक साथ मिले हुए एवं कहीं अलग-अलग क्यों रहते हैं?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘जब मनुष्यों का चित्त शुद्ध होता है तथा वे धर्मपूर्वक किसी अर्थ की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं, तो उस समय धर्म, अर्थ एवं काम तीनों ही एक साथ मिले हुए प्रतीत होते हैं। धर्म, अर्थ का कारण होता है एवं काम, अर्थ का फल कहा जाता है। यहाँ दर्शनीय बात यह है कि इन तीनों का मूल कारण संकल्प होता है। संकल्प ही विषय होते हैं, जो इन्द्रियों के उपभोग करने के लिये बने होते हैं। फल की इच्छा धर्म का मल होता है। साथ ही छुपाकर धन को रखना, उसका कोई उपयोग न करना, स्वार्थ-सिद्धि हेतु उपभोग कराना आदि अर्थ का मल होता है। संतान की उत्पत्ति के आलावा आमोद-प्रमोद करना काम का मल होता है। इनसे मुक्ति पाना ही मनुष्यों का कर्तव्य होना चाहिये।’’


राजा ने पूछा - ‘‘धर्म, अर्थ एवं काम से जीवन का उद्देश्य किस प्रकार साधा जा सकता है?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘फलेच्छा को त्यागना आवश्यक होता है राजन्। जब बिना परिणाम की इच्छा करते हुए इस त्रिवर्ग का सेवन किया जाये, तो अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि अर्थ के लिये धर्मानुष्ठान करने पर कभी अर्थ की सिद्धि होती है तथा कभी नहीं। कभी-कभी कामों से भी अर्थ की सिद्धि संभव है, किन्तु अर्थ नष्ट भी होते रहते हैं। नष्ट नहीं होने वाला कार्य मोक्ष है। इसी को ध्यान में रखकर जीवन जीना चाहिये।’’


राजा ने कहा - ‘‘जीवन में हमें किस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिये कि पाप न हो?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘राजन्! जो धर्म एवं अर्थ का परित्याग कर देता है तथा मात्र काम का ही सेवन करने लगता है, तब उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। यही मोह है, जो धर्म एवं अर्थ दोनों को नष्ट कर देता है। इसी कारण से व्यक्ति में नास्तिकता आ जाती है तथा वह दुराचारी हो जाता है। अतः सभी प्रकार के मोहों से बचने की आवश्यकता होती है।’’
राजा ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम सावधानी रखें, फिर भी पाप हो जाता है। ऐसे में हमें क्या उपाय करना चाहिये?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘उचित है महाराज, मनुष्य इन्द्रियों का दास होता है। यदि हमने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया, तो पापाचार होने की संभावना बनी ही रहती है। एक मनुष्य को चाहिये कि कभी भी इन्द्रियों का दास न बने।’’


राजा ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर, मान लीजिये कि कभी एक राजा काम एवं मोह के वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किन्तु बाद में उसे पश्चात्ताप भी हो, तो ऐसे पाप को दूर करने का क्या उपाय हो सकता है?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘सर्वप्रथम तो एक राजा को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यदि वह पापाचार करता है, तो प्रजा उसका साथ नहीं देती। साधु एवं ब्राह्मण भी उसका साथ छोड़ देते हैं। उसका अंत कभी भी भला नहीं होता। अतः उसे अपने पापों की निंदा करनी चाहिये। उसे निरन्तर वेदों का अध्ययन करना चाहिये तथा ब्राह्मणों का सत्कार करना चाहिये। उसे अपना मन धर्म में लगाना चाहिये। उसे उदार एवं क्षमाशील बनकर प्रजा की सेवा करनी चाहिये। जल में खड़ा होकर गायत्री मंत्र का जाप करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। उसे पापियों को राज्य से बाहर निकलवाकर धर्मात्माओं के साथ सत्संग करना चाहिये। मीठी वाणी एवं उत्तम कर्म के द्वारा सभी को प्रसन्न करना चाहिये। गुणवान् लोगों की प्रशंसा करनी चाहिये तथा गुणहीनों की निन्दा। राजन्, जो भी राजा अपना आचारण इस प्रकार का बना लेता है, उसे शीघ्र ही प्रजा का सम्मान प्राप्त हो जाता है। ऐसा आचरण करते रहने से वह निष्पाप हो जाता है एवं प्रजावत्सल कहलाता है।’’ 


इसके बाद राजा अंगरिष्ठ ने मुनि को प्रणाम किया और अपनी राजधानी लौट गये। उनकी शंका का समाधान हो चुका था। उन्होंने मुनि के बताये गये मार्ग का पालन किया और अनेक वर्षों तक सुख से प्रजा-पालन करते रहे।
 

विश्वजीत 'सपन'

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