Wednesday, February 20, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 70)


महाभारत की कथा की 95 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

प्रायश्चित्त ही पाप का निवारण

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पूर्वकाल की बात है। राजा परिक्षित का पुत्र जनमेजय बड़ा पराक्रमी राजा था। एक दिन की बात है, उसे बिना जाने ही ब्रह्महत्या का पाप लग गया। पुरोहित एवं ब्राह्मणों ने उसका त्याग कर दिया। इस प्रकार वह अकेला हो गया। उससे राज्य का कार्य भी अच्छी तरह से देखा न जाता था। वह पाप की अग्नि में जलने लगा। कुछ उपाय न जानकर इस पाप से मुक्ति के लिये वह वन में जाकर तप करने लगा। अनेक वर्षों तक उसने तप किया, किन्तु उसे संतुष्टि न मिली। तदुपरान्त वह इधर-उधर भटकने लगा। उसने इस दौरान अनेक लोगों से अपने पाप के प्रायश्चित्त के बारे में पूछा, किन्तु उसे कोई समाधान न मिला। हाँ एक सुझाव मिला कि वह महातपस्वी शुनकवंशी इन्द्रोक्त मुनि के पास जाये। वही उनका कल्याण कर सकते थे। तब वह दीन-हीन बनकर मुनि इन्द्रोक्त के आश्रम गया।


मुनि ने उसे देखते ही कहा - ‘‘अरे महापापी, ब्राह्मण को मारने के कारण तेरा चित्त अशुद्ध हो गया है। तुम्हारा जीवन व्यर्थ है। तू अभी यहाँ से चला जा। तेरे जैसे पापी का इस आश्रम में कोई कार्य नहीं। तू नीच है, पापी है।’’


जनमेजय ने कहा - ‘‘मुने! मैं अवश्य ही धिक्कार के योग्य हूँ। मैं पापी हूँ, किन्तु इसकी चिंता करते हुए मुझे तनिक भी चैन नहीं है। आपके पास इस कारणवश आया हूँ कि आप इससे मुक्ति का कोई उपाय बतायें। मेरी रक्षा कीजिये। आप तो ज्ञानी हैं। आपको मेरे जैसे पापी को क्षमा कर देना चाहिये। मुनियों का धर्म ही क्षमा करना होता है।’’
इन्द्रोक्त मुनि कुछ शान्त हुए तथा बोले - ‘‘ठीक है, तुमने उचित कहा। यदि तुम सच में इससे मुक्ति की कामना रखते हो, तो जाओ ब्राह्मणों की शरण लो। उनसे ही तुम्हारे परलोक की रक्षा होगी। यदि तुम अपने पापों का पश्चात्ताप करते हो, तो अपनी गति धर्म में रखो। ऐसे कर्म करो जिससे तुम्हें शान्ति मिले।’’


जनमेजय ने कहा - ‘‘उचित कहा आपने मुनिवर। मैं अपने पापकर्म से संतप्त हूँ। मैं आज के बाद से कभी भी धर्म का लोप नहीं करूँगा। किसी भी अवस्था में धर्म का पालन करूँगा। मुझे कल्याण की इच्छा है तथा इसी कारण आपकी शरण में आया हूँ। मुझ पर कृपा कीजिये। आपकी कृपा के बिना मेरा जीवन व्यर्थ है। इस पाप के कारण मेरा जीना भी व्यर्थ है।’’


इन्दोक्त मुनि कहा - ‘‘तुम बदल गये लगते हो। इसी कारण मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहो। धर्म को कभी न छोड़ो। ब्राह्मणों के प्रति हमेशा सद्भव रखो। आज यह प्रतिज्ञा करो कि ब्राह्मणों से कभी द्रोह न करूँगा।’’


जनमेजय ने कहा - ‘‘हे गुरुवर, मैं आपके चरणों को स्पर्श करके प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब कभी भी मन, वचन या कर्म से ब्राह्मणों के प्रति द्रोह नहीं करूँगा।’’


मुनि इन्द्रोक्त ने राजा के चरण-स्पर्श पर उसको आशीर्वाद देते हुए कहा - ‘‘राजन्! तुम्हारा चित्त बदल गया है। अतः अब मैं तुम्हें धर्म का उपदेश दूँगा। इसे ध्यान से सुनो।


यदि राजा दुश्चरित्र हो तो वह समस्त राज्य को संतप्त कर डालता है। एक मनुष्य उदार, सम्पन्न अथवा कृपण या तपस्वी कुछ भी हो सकता है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि बिना विचार के किये गये कर्म से दुःख ही मिलता है। यज्ञ, दान, दया, वेद एवं सत्य - ये पाँचों पवित्र हैं। इसके अलावा विधिपूर्वक किया गया तप परम-पवित्र है। यही किसी राजा को पूर्णतः पवित्र करने वाला होता है। पवित्र स्थलों की यात्रा से भी पुण्य मिलता है। सरस्वती नदी सबसे पवित्र है। इसमें स्नान करो एवं स्वयं को पवित्र करो। नियम बना लो कि तुम कभी ब्राह्मणों का तिरस्कार न करोगे। तुमने पश्चात्ताप किया, तो तुम्हें उस पाप से आवश्य मुक्ति मिलेगी। कभी दुबारा पाप हो जाये, तो पुनः उचित रूप से उसका पश्चात्ताप करना चाहिये। अग्नि की उपासना एक वर्ष तक करो। तुम्हारा पाप दूर हो जायेगा। कहा गया है कि जिस मनुष्य ने जितने प्राणियों की हिंसा की हो, यदि वह उतने प्राणियों की प्राण-रक्षा करता है, वह पापमुक्त हो जाता है। मनु जी का कहना है कि जल में डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण मन्त्र का जाप करने से उसी प्रकार पाप नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ के बाद अवभृथ स्नान करने से होता है। बृहस्वति जी का कहना है कि यदि कोई मनुष्य बिना जाने कोई पाप कर देता है, तो उसे बुद्धिपूर्वक पुण्यकर्म करने चाहिये। इस प्रकार उसका पूर्व का पाप नष्ट हो जाता है।’’


इस प्रकार समाधान बताने के बाद मुनि इन्द्रोक्त ने राजा जनमेजय से विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ करवाया, जिससे उसके सारे पाप धुल गये। उसके बाद उसने धर्म में अपनी गति रखी तथा अनेक वर्षों तक सच्ची निष्ठा से प्रजा की सेवा करते रहे।


पाप चाहे जान-बूझकर हो अथवा अनजाने में, उसका निवारण करना ही उचित होता है। पाप धुलने के उपरान्त पुनः पापकर्म न हो, तभी जीवन सुखमय रहता है तथा ईश्वर की कृपा बनी रहती है। 


विश्वजीत 'सपन'

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