Friday, February 1, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 68)




महाभारत की कथा की 93 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

दण्ड की उत्पत्ति
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    प्राचीन काल की बात है। अंगदेश के राजा वसुहोम थे। वे बड़े ही धर्मात्मा थे। उनका ध्यान हमेशा धर्म में लगा रहता था। एक बार वे हिमालय पर मुंजपृष्ठ नामक स्थल पर गये। यह वही शिखर है, जहाँ कभी परशुराम ने अपनी जटायें बाँधी थी। इसी कारण इसका नाम ‘मुंजपृष्ठ’ पड़ा। वहाँ जाकर उन्होंने वेदोक्त गुणों को अपनाया एवं अपनी रानी के साथ रहने लगे। उनके तप का प्रताप दूर-दूर तक फैलने लगा। वे महर्षि के तुल्य हो गये।


    एक दिन की बात है। राजा मन्धाता उनके दर्शन करने के लिये गये। उन्हें दण्ड की उत्पत्ति के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता थी। महाराज वसुहोम उस समय ध्यानमग्न थे। राजा मन्धाता विनीत होकर वहीं खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। जब वसुहोम का ध्यान टूटा, तो उन्होंने मन्धाता को देखा। उनको पूरा सम्मान देकर उनसे कुशल-क्षेम पूछा। समस्त प्रजा का हाल पूछने के उपरान्त उन्होंने मन्धाता से कहा - ‘‘महाराज! मुझे बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? आप किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं?’’


    मन्धाता ने कहा - ‘‘राजन्! आपने बृहस्पति के सिद्धान्तों का अध्ययन किया है, साथ ही शुक्राचार्य की नीति का भी। कृपया मुझे यह बताने की कृपा करें कि दण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई?’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘महाराज! कहा जाता है कि एक बार पितामह ब्रह्मा जी ने यज्ञ की इच्छा की, किन्तु उन्हें कोई योग्य ऋत्विज् दिखाई न पड़े। तब उन्होंने मस्तक पर एक गर्भ धारण किया। वह गर्भ हजार वर्षों तक उनके मस्तक पर रहा। हजारवें वर्ष के पूर्ण होने पर ब्रह्मा जी को छींक आई। उस छींक के साथ ही वह गर्भ भी नाक के मार्ग से बाहर आ गिरा। उससे एक बालक प्रकट हुआ, जो प्रजापति क्षुप के नाम से विख्यात हुए एवं ब्रह्मा जी के यज्ञ के ऋत्विज् बने। यज्ञ प्रारम्भ हुआ तथा ब्रह्मा जी ने दीक्षा ली। दीक्षा लेने पर ब्रह्मा जी विनीत हो गये। उनमें शान्ति के गुण आ गये। तब उनके शासन में उग्रता न रही। इसी कारण दण्ड अदृश्य हो गया। दण्ड के लुप्त होते ही प्रजा में व्यभिचार बढ़ने लगा। बलवान् निर्बल को सताने लगे। चारों ओर अराजकता फैल गयी। स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ने लगी। ब्रह्मा जी को चिंता हुई कि अब क्या होगा? फिर उन्होंने विचारकर वरदानी भोलेनाथ के पास जाकर कहा - ‘‘भगवन्! अब आप ही कृपा कीजिये एवं प्रजा को इस वर्णसंकरता से छुटकारा दिलाइये, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा।’’


    कुछ देर विचार कर महादेव ने एक दण्ड प्रकट किया। कुछ ही समय में दण्ड ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया। प्रजा में धर्माचरण होने लगा, जिसे देखकर माता सरस्वती ने दण्डनीति की रचना की। तब शिवशंकर ने एक-एक समूह का राजा बनाया। इन्द्र को देवताओं का, यम को पितरों का, कुबेर को धन एवं राक्षसों का, मेरु को पर्वतों का, समुद्र को सरिताओं का, वरुण को जल एवं असुरों का, मृत्यु को प्राणों का, वसिष्ठ को ब्राह्मणों का, अग्नि को वसुओं का, सूर्य को तेज का, चन्द्रमा को ताराओं एवं औषधियों का, कार्तिकेय को भूतों का तथा काल को सबका राजा बना दिया। स्वयं महादेव रुद्रों के राजा हुए। बृहस्पति पुत्र क्षुप को समस्त प्रजाओं का राजा बना दिया। यज्ञ समाप्त होने के बाद महादेव ने विष्णु का स्मरण कर वह दण्ड उन्हें सौंप दिया।’’


    मन्धाता ने पूछा - ‘‘उसके बाद क्या हुआ महाराज?’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘उसके बाद विष्णु ने उसे अंगिरा को दिया। अंगिरा ने इन्द्र एवं मरीचि को, मरीचि ने भृगु को, भृगु ने ऋषियों को, ऋषियों ने लोकपालों को, लोकपालों ने क्षुप को तथा क्षुप ने वैवस्वत मनु को वह दण्ड सौंपा। मनु ने धर्म की रक्षा के लिये उसे अपने पुत्रों को दिया। इस प्रकार यह दण्ड निरन्तर चलता जा रहा है।’’


    मन्धाता की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा - ‘‘इस दण्ड का उद्देश्य क्या है? इसका कार्य क्या है? किस कारण से इसे बनाया गया? इसे भी विस्तार से बतायें।’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘महाराज! दण्ड सम्पूर्ण जगत् को नियम के अन्दर रखने का कार्य करता है। यह धर्म का सनातन आत्मा है। इसका उद्देश्य प्रजा को उद्दण्डता से बचाना है। दुष्टों का दमन करना भी इसका एक उद्देश्य है। दण्ड ही सबको वश में रखता है। यह कालरूप दण्ड सृष्टि के आदि, मध्य एवं अंत में सतत् जागरुक रहता है। यही वस्तुतः सम्पूर्ण लोकों का ईश्वर है, उसका प्रजापति है। बस इतना समझ लीजिये कि यह साक्षात् भगवान् शंकर का स्वरूप है।’’


    मन्धाता ने पूछा - ‘‘किन्तु महाराज, यह अंततः क्षत्रियों के पास कैसे पहुँचा?’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘वैवस्वत मनु ने प्रजा की रक्षा में इसका उपयोग किया और अपने पुत्रों को दिया। तब ब्राह्मण ही लोकरक्षा किया करते थे। उसके उपरान्त राज्य की रक्षा का भार क्षत्रियों पर आया, तब ब्राह्मणों ने यह दण्ड क्षत्रियों को दिया। उसके बाद से आज तक यह क्षत्रियों के पास ही रहता आया है और वे ही इसके पालक रहे हैं।’’


     कहते हैं कि जो भी वसुहोम एवं मन्धाता के सम्वाद के रूप में दण्ड के सिद्धान्त को सुनता एवं तदनुसार धर्माचरण करता है, उसकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं।




विश्वजीत 'सपन'

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