Sunday, April 6, 2014

पढ़े-लिखे और विद्वान् का सम्मान होना चाहिए



शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयाऽगमा
विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोनिर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका हि मणयोयैरर्घतः पातिताः।।


अर्थात् शास्त्रोपरिष्कृत शब्दों से सुन्दर वाणी से युक्त, शिष्यों को देने योग्य विद्या से युक्त, प्रसिद्ध कवि जिस राजा के राज्य में निर्धन होकर रहते हैं। वह राजा की मूर्खता है। कवि तो धन के बिना भी ऐष्वर्यसम्पन्न हैं। यदि मणियाँ परीक्षकों द्वारा गिरा दी जाए तो दोष मणियों का नहीं होता।

कहने का तात्पर्य यह है कि राजा का कर्तव्य होता है कि वह अपने राज्य में स्थित विद्वानों का यथोचित सम्मान करे और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वस्तुतः यह उसकी मूर्खता ही कही जाएगी क्योंकि विद्वानों के पास जो यशरूपी धन होता है उसे कोई क्षीण नहीं कर सकता और वह बिना धन के ही धनवान् बना रहता है। यदि कोई अज्ञानी हीरे को पत्थर समझकर उसको उपेक्षापूर्वक कूड़े में फेंक दे तो दोष हीरे का नहीं होता।
यही जगत का एक सत्य है। जिसने भी इसके महत्त्व को समझा वह जीवन में व्यवहार समझ लेता है।

सपन

Thursday, April 3, 2014

गीता ज्ञान - प्रथम 1





प्रथम अध्याय
 

श्रीमद्भागवद्गीता में प्रवेश से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि यह महाग्रंथ महाभारत के भीष्मपर्व के २५ से ४२ वें अध्याय तक का अंश है। कथा कुछ इस प्रकार है कि बारह वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात् पांडव जब वापस आये तो उन्होंने अपना आधा राज्य माँगा। दुर्योधन ने जब अस्वीकार कर दिया तो युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का महासमर प्रारंभ हुआ। सैन्य निरीक्षण के दौरान अर्जुन को अपने ही सगे-सम्बन्धियों से युद्ध करना उचित नहीं लगा और उसके विषादयोग का प्रारंभ हुआ।

गीता के प्रथम अध्याय में विषादयोग का वर्णन किया गया है। विषाद अर्थात् मनोव्यथा ही दुःख है। विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाना ही मानवीय सहज प्रवृत्ति है। दुःख से सभी दूर रहना चाहते हैं, तो इसे कैसे ईश्वर से योग का साधन माना जाए। इसी तथ्य को इस अध्याय में बताया गया है।

महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन का सामना भी इसी विषाद के साथ हुआ था, जब उसने देखा कि जो युद्धरत थे, वे कोई अन्य नहीं थे, बल्कि उसके अपने ही सगे-संबंधी थे। अपनों को शत्रु के रूप में देखकर अर्जुन विषादयुक्त हो उठा था।

          अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
        यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।

अर्थात् यह अत्यंत ही शोक एवं आश्चर्य की बात है कि हम बुद्धिमान होकर भी जान-बूझ कर इस कुलाघात के महापाप करने को तत्पर हो गए हैं और राज्य सुख के लोभ में स्वजनों के वध को ही तत्पर हो गए हैं।

ऐसे ही अनेक प्रकार के शोक मानव को जीवन भर सताते रहते हैं। किन्तु क्या इसे पकड़कर रखना चाहिए और जीवन भर संतप्त होकर जीना चाहिए? यह एक सामान्य प्रश्न है। इस प्रश्न को गीतकार ने सम्मुख रखकर इस अध्याय का सृजन किया है कि यदि हम दुःख को प्रभु का प्रसाद मानकर एवं इनके उपचार हेतु स्वयं को प्रभु की शरण में उपस्थित कर दें तो यही विषाद प्रभु से मिलन की पहली सीढ़ी भी बन जाती है। अर्जुन ने भी यही किया और स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया।


          कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
       यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यतेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

अर्थात् हे प्रभु, कायरतारूपी दोष से उपहत स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में चित्त डगमगाने वाला हुआ मेरा मार्ग प्रशस्त करें क्योंकि मैं आपका शरणागत शिष्य हूँ।

यहीं से अर्जुन के भगवद्योग का प्रारंभ हो जाता है। जब आस्तिकता और आस्था की डोर पकड़कर विषाद को मानव ईश्वरार्पित कर देता है तो ईश्वर उसका समाधान अवश्य करते हैं और अपने भक्त की सुधि लेते हैं। जिस प्रकार जीवन-चक्र चलता है, ठीक उसी प्रकार हर्ष एवं विषाद का चक्र भी सत्य है अर्थात् हर्ष के पहले विषाद एक सत्य है और सागर-मंथन का यही प्रथम रत्न है। यही विषादयोग है और यह वेदान्त दर्शन के प्रथम सूत्र "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" के समान है।

यहाँ यह कहना उपयुक्त होगा कि अर्जुन की चिंता मानवता से परे कदापि नहीं थी, किन्तु वह प्रासंगिक नहीं थी। अवसर के अनुकूल नहीं थी क्योंकि यह स्वधर्म से पृथक थी। एक युद्ध के लिए तैयार हो जाने के पश्चात् रणभूमि को त्यागना क्षत्रिय धर्म नहीं कहा जा सकता था। साथ ही वह अधर्म के विरुद्ध खड़ा था, जिसका नाश करना उसका कर्तव्य भी था।

                                                                                                                            विश्वजीत 'सपन'

Tuesday, March 25, 2014

मन की बात

मन की बात
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दुःखं त्यक्तुं बद्धमूलोऽनुरागः स्मृत्वा स्मृत्वा याति दुःखं नवत्वम्।
यात्रा त्वेषा यद् विमुच्येह बाष्पं प्राप्तानृण्या याति बुद्धिः प्रसादम्।। - भास

अर्थात् बद्धमूल प्रेम को त्यागना कठिन है। स्मरण कर करके दुःख नवीनता को प्राप्त होता है। यह तो व्यवहार है कि आँसू बहाकर उऋण हुआ मन प्रसन्न हो लेता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि प्रेम में कोई पूर्णतः आबद्ध हो जाता है तो उससे दूर होना अथवा उसे छोड़ देना कठिन होता है। यदि कोई बार-बार अपने दुःख को याद करता जाता है तो वह दुःख नये प्रकार से कष्ट देता है। और यह भी एक सत्य है और लोक व्यवहार में प्रचलित है कि आँसू बहाकर लोग अपने मन को हल्का कर लेते हैं। ~ सपन

Friday, March 21, 2014

धर्म का वास्तविक अर्थ (कथा)

मित्रों,
अभी कुछ दिनों पहले एक सुन्दर कथा पढ़ी तो सोचा आप सभी के साथ साझा करूँ।

प्राचीन काल की बात है। एक राजा ने अपने राज्य के सभी धर्मात्माओं को बुलाकर कहा कि आप सब लोग अपने-अपने धर्म के बारे में बताएँ, ताकि उनमें से किसी एक का मैं चयन कर सकूँ और अपना स
कूँ, जो सर्वश्रेष्ठ होगा।

अधिकतर धर्मात्माओं ने अपने-अपने धर्म की विस्तृत व्याख्या की और राजा से उस धर्म को अपनाने का आग्रह किया। किन्तु उनमें से एक धर्मात्मा बोला - "महाराज, मैं कल अपने धर्म की बात नदी के उस पार जाकर आपको बताऊँगा।"

राजा ने दूसरे दिन एक से बढ़कर एक नाव की व्यवस्था करवाई। फिर जब उन्होंने उस धर्मात्मा से एक-एक कर सभी नावों में चलने का आग्रह किया तो उस धर्मात्मा ने उन नावों से चलने को मना कर दिया। अंत में राजा कुपित हो उठे और बोले - "महात्मन, यह क्या आप जब किसी भी नाव से जाना ही नहीं चाहते तो आपने नाव मँगाई ही क्यों?"

तब वह महात्मा बोले - "राजन, यह सत्य है कि इनमें से सभी नाव हमें नदी के उस पार ही ले जायेंगे, ठीक इसी प्रकार सभी धर्म हमें मानवता रुपी नदी को पार करवाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी धर्मों का सार एक ही है।"

तब राजा को समझ आया कि धर्म का वास्तविक अर्थ क्या है।
 
प्रस्तुति
विश्वजीत 'सपन'

Monday, February 3, 2014

हर-हर महादेव


मित्रों,
मनुष्य का कार्य निष्काम कर्म है, फिर भी जब किसी कार्य को कोई पाठक सराहे तो परमानंद की अनुभूति होती है. आज ऐसे ही एक सत्य से सामना हुआ तो लगा कि आप सभी से यह साझा करूँ. कभी मैंने इस पुस्तक का अनुवाद किया था वर्ष २०११ में और यह आज भी मुझे ख़ुशी देता है और जब तक आप पाठकों का आशीर्वाद रहेगा और भगवान् शिव की कृपा रहेगी यह कार्य निरंतर चलता रहेगा.
एक पाठक ने अपने ब्लॉग पर लिखा है और वह लिंक मैं यहाँ दे रहा हूँ और साथ ही उसका टेक्स्ट भी.

सादर
सपन

2 जुलाई सुबह 11 बजे, मै 'मेलूहा के मृत्युंजय' के बारे में अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूँ...

अंग्रेजी कि एक किताब जो दैनिक जागरण के अनुसार हिन्दी में बेस्ट सेलर है अंग्रेजी कि इस किताब का नाम है 'The Immortals of Meluha' जिसे हिन्दी में 'मेलूहा के मृत्युंजय' नाम से विस्वजीत 'सपन' जी ने अनुवादित किया है.

वैसे यह दूसरा उपन्यास है जो मैंने ख़रीदा है और पहला उपन्यास है जो मैंने पूरा पढ़ा है.

 सबसे पहले इस किताब के अनुवादक के बारे में कहूगा कि क्या कमाल का अनुवाद किया है विस्वजीत 'सपन' जी ने .... एक भी शब्द ऐसा नहीं जो किसी अन्य भाष से लिया गया प्रतीत हो...फिर भी 100 पन्ने पढने के बाद अहसास होता है कि शुद्ध हिन्दी पढ़ रहा हूँ...
 इन्होने बड़ी ही सहजता से शिव के लिए 'आप' के बजाय 'तुम' भाव वाले वाक्यों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया है... जो शुरु में शिव जी का अपमान लगता है पर बाद में यही इस किताब कि बुनियाद बन जाता है....


Friday, January 24, 2014

No Corruption

                                       

                                            भ्रष्टाचारस्तु सर्वेषां, पापानां मूलकारणम्।
                                           भ्रष्टाचारेण लोकानां, सन्मतिः क्षीयते सदा।।


      भ्रष्टाचार का अर्थ भ्रष्ट आचरण से है। इसके लिए पैसे का लेन-देन होना आवश्यक नहीं है। यह मनुष्य के द्वारा किए गए उन सभी आचरणों के बारे में है जो वे परंपरागत एवं शास्त्रोक्त नियमों से च्युत होकर करते हैं। हमारे समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए रीति-रिवाजों तथा नियम-कानूनों को बनाया गया है। यही हमें मनुष्यता के निकट ले जाता है, अन्यथा पशु-पक्षी एवं कीट-पतंगों का भी समाज होता और वे भी हमारी ही तरह रहा करते।

      यदि एक शिक्षक प्रतिदिन अपने नियम के अनुसार नहीं पढ़ाता है, समय पर विद्यालय नहीं जाता है, कक्षा में पढ़ाने के बजाय घर पर ट्यूशन देता है, बच्चों को सही शिक्षा नहीं देता है, नैतिक शिक्षा नहीं देता है, झूठ का सहारा लेता है, झूठ बोलता है तो वह भी भ्रष्ट आचरण करता है। एक आम नागरिक भी यदि अपने समाज के नियम-कानूनों के अनुसार कार्य नहीं करता है तो वह भी भ्रष्ट आचरण ही करता है।

      एक व्यापारी मिलावट करता है, एक नेता जनता के बारे में नहीं सोचता है, एक खिलाड़ी ड्रग्स लेकर प्रतियोगिता जीतता है, एक व्यक्ति अपना काम करवाने के लिए अनियमित कार्य करता है, ट्रेन टिकट के लिए व्यक्ति सौ रूपये अधिक देता है, लाइन में न खड़ा होना पड़े इसलिए दस रुपये अधिक देकर तेल पाता है,  एक साहित्यकार भाई-भतीजावाद के तहत साहित्य और साहित्यकार को पालता है, एक प्रकाशक चंद पैसों के लिए साहित्यकारों का दोहन करता है, ये सभी भ्रष्टाचार ही हैं, इसलिए भ्रष्टाचार को केवल उद्योगपतियों, व्यापारियों, प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है।

      यदि हम आत्मावलोकन करेंगे तो हममें से कोई भी भ्रष्टाचारी की इस पदवी से बरी नहीं हो सकता है। अतः विचार करने योग्य बात है कि भ्रष्टाचार क्या है? भ्रष्टाचार एक सोच है, एक समझ है, एक ऐसी स्थिति है जिस पर नियंत्रण केवल स्वयं के उत्तरदायित्व को निभा कर ही किया जा सकता है। झूठ बोलना, झूठी बातें बताकर सहानुभूति बटोरना, लोगों को भ्रमित करना, झूठ को सत्य साबित करना और स्वयं को सबसे योग्य मानना ये सभी भ्रष्ट मार्ग ही हैं। ये बहुत ही आकर्षक होते हैं और आम आदमी जिसके पास शिक्षा नहीं है, जिसके पास सोच नहीं है वह आसानी से आकर्षित हो भी हो जातजाता है।

      क्या हम वह करेंगे जो हमें करना चाहिए? या फिर भड़भूंजे की तरह बजते रहेंगे?

सादर
विश्वजीत 'सपन'