द्वितीय अध्याय –
सांख्ययोग
गीता के द्वितीय
अध्याय में ‘सांख्ययोग’ का वर्णन किया गया है। यह दर्शन का वह उच्च मार्ग है, जो अति-प्राचीन काल से भारत में प्रचलित रहा है। महाभारत के
शांतिपर्व में इसके संबंध में कहा गया है - ‘ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किचिंत् सांख्यागतं तच्च
महन्महात्मन्’। ‘सांख्य’ शब्द की व्युत्पत्ति कुछ इस प्रकार है - ‘सम्यक् ख्यानं ज्ञानमिति सांख्यम्’ जिसका अर्थ है सम्यक् ख्याति और सत्य ज्ञान। एक समय था जब
इस दर्शन की मान्यता अत्यधिक थी। इस दर्शन में एक बात पर बल दिया गया था कि कर्म कितना
ही क्यों न किया जाए दुःख दूर नहीं हो सकते जब तक कि आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होगा।
इस दर्शन की सबसे प्रसिद्द उक्ति रही है कि बिना प्रकाश के रस्सी रुपी सर्प का नाश
नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकाश के अभाव में हम रस्सी को सर्प समझ लेते हैं और जैसे ही प्रकाश होता है तो हमें ज्ञान होता है कि यह तो रस्सी है। यही ज्ञान आवश्यक है। यहाँ ज्ञान का अर्थ आध्यात्मज्ञान अथवा आत्मज्ञान से है अर्थात् जिस
ज्ञान से आत्मवस्तु एवं अनात्मवस्तु का बोध हो।
इसे समझने के लिए
हम सरल भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि मनुष्य भटका हुआ प्राणी है। उसे जीव-जगत्
विषयक वास्तविक ज्ञान नहीं है। ऐसे में व्यक्ति कभी-कभी अपने कर्तव्य-पथ से विचलित
हो जाता है। तब वह कर्तव्य को अकर्तव्य और अकर्तव्य को कर्तव्य समझ कर स्वधर्म से
विचलित हो जाता है। यही बात गीतकार अर्जुन के माध्यम से कहते हैं :
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह
लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान्
रुधिरप्रदिग्धान्।।
अर्थात् अर्जुन कहता है कि महानुभाव गुरुजनों को मार कर जीवन जीने की तुलना
में मैं इस लोक में भिक्षान्न से जीवन बिताना अधिक कल्याणकारी समझता हूँ क्योंकि
गुरुजनों को मार कर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ एवं कामरूप भोगों को ही
तो भोगूँगा। यह कथन ही क्षत्रिय धर्म से विचलित होने का प्रमाण है। युद्ध अर्जुन
का स्वधर्म था और क्षत्रिय-सुलभ कर्म भी था। ऐसे में अज्ञानवश भिक्षाटन कर जीवन
जीने का उपक्रम और संन्यासी बन जीवन को जीने कि उसकी लालसा उसका धर्म नहीं हो सकता
था। भावनाओं के भाव-सागर में लिप्त अर्जुन को यह भी ज्ञात नहीं रहा कि शरीर तो
नश्वर है; उसका विनाश तो अटल है तो फिर मोह कैसा? तब श्रीकृष्ण उसे का सत्य का
अवलोकन करवाते हैं और कहते हैं :
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजीनीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
अर्थात् जो व्यक्ति इस आत्मा को मारने वाला अथवा मरने वाला
मानते हैं, ऐसे
दोनों ही सत्य को नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वस्तुतः न तो किसी को मारती है एवं
न ही किसी के द्वारा मारी जाती है। सच तो यह है कि आत्मा न कभी जन्म लेती है और न
ही कभी मरती है। यह तो अजन्मा, निरंतर रहने वाली, सनातन है। शरीर चाहे मृत हो जाए, किन्तु आत्मा कभी नहीं मर सकती।
सच तो यह है कि नये शरीर का मिलना जन्म है और पुराने शरीर
का छूटना मृत्यु है। जन्म और मृत्यु तो शश्वत नियम हैं। इससे विचलित होना भ्रम है। "नासतो
विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।"
संसार में केवल दो ही तत्त्व हैं - सत् एवं असत्। सत् का नाश नहीं हो सकता
और असत् को विनाश से नहीं बचाया जा सकता। आत्मा सत् है। अतः आत्मा के नाश का दुःख
असत् है। आत्मा के सत् होने के साथ ही इस अध्याय में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का
संयोजन किया गया है। विचारणीय है कि मैं शरीर हूँ - यह मानना ‘अहंता’ है और शरीर से संबंधित व्यक्ति एवं वस्तुएँ मेरी हैं, यह मानना ‘ममता’
है। श्रेय-पथ में ‘अहंता’ एवं ‘ममता’
दोनों ही बाधक होते हैं। कर्तव्य का स्थान भावना से बहुत
ऊँचा होता है। अतः कर्तव्य का पालन ही श्रेष्ठ है। अर्जुन अहंता एवं ममता में पड़
कर स्वधर्म के पालन से विमुख हो रहा था। इसके बाद भी हिंसा तो हिंसा ही है। एक
साधारण मनुष्य युद्धजनित हिंसा को भी बुरा मान ही सकता है। तब भगवान् श्रीकृष्ण
उसे यह अमर ज्ञान देते हैं कि युद्धजनित हिंसा दोषमुक्त है। यहाँ यह तथ्य भी
विचारणीय है कि हिंसा कहते हैं किसे हैं और किसे नहीं। सीमा पर एक सिपाही जब विरोधी
सिपाही को मारता है तो क्या वह हिंसा है अथवा वह हिंसा है जो समाज में किसी लाभ
अथवा सोद्देश्य की गई हत्या? इसे हम कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं कि जिस प्रकार एक
न्यायाधीश फाँसी देता है, किन्तु हत्या का दोष उसे नहीं लगता क्योंकि वह निरपेक्ष है, ठीक उसी प्रकार युद्धजनित हिंसा भी निरपेक्ष होता है।
वस्तुतः विनाश की क्रिया परमात्मा अथवा प्रकृति द्वारा होती है। मनुष्य तो
निमित्तमात्र है।
यदि ध्यान एवं ज्ञान से देखा जाए तो संसार में पूर्णतः
सुखमय अथवा दुःखमय कुछ भी नहीं होता। अनुकूल जहाँ सुख देता हैं, वहीं प्रतिकूल दुःख का कारण बनता है। अतः समदृष्टि आवश्यक
है। समत्व ही संतुलित जीवन का पर्याय है और यही साधना मनुष्य को स्थितप्रज्ञता की
ओर लेकर जाती है। यही वह स्थिति है जब मनुष्य हर प्रकार के दुःख एवं सुख से पृथक
हो जाता है और मात्र स्वधर्म का पालन करता है। इस स्थिति का भान होने पर अर्जुन
स्थितप्रज्ञ के बारे में पूछते हैं -
स्थितिप्रज्ञस्य
का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः
किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।
अर्थात् हे केशव! स्थितप्रज्ञ की
क्या परिभाषा है, उसके लक्षण क्या हैं, वे कैसे बोलते हैं, उठते-बैठते कैसे हैं?
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
अर्थात् हे अर्जुन! जब मनुष्य मन में स्थित सम्पूर्ण
कामनाओं को त्याग देता है और आत्मिक सुख द्वारा आत्मा में संतुष्ट रहता है, तो वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
यह सर्वथा परमानंद की स्थिति होती है। यह आनंद इतना उत्तम
और पूर्ण होता है कि मनुष्य को किसी अन्य आनंद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। तब
उसका समत्वयोग सिद्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति में कभी राग, द्वेष, भय, घृणा,
कुण्ठा, क्रोधाधि उत्पन्न नहीं होते हैं। इस समय अखण्ड शांति का
अनुभव होता है और तब निश्चय ही यह जगत् स्वप्न-संसार की भाँति निस्सार और मिथ्या
प्रतीत होता है। यही असल में सत्य है। यही जीवन रहस्य है।
यहाँ गीता में जिस सांख्ययोग का वर्णन है और जो आत्मतत्त्व
का विवेचन है वह वेदान्त का प्रभाव है। यह एक वृहद् विषय है और इस पर चर्चा फिर
कभी क्योंकि कपिल द्वारा प्रतिपादित सत्कार्यवाद के सिद्धांत को सांख्ययोग के रूप
में देखा जा सकता है और इसके भी दो मत हैं – परिणामवाद और विवर्तवाद। उसके बाद भी
कई मत बने जो उस समय प्रासंगिक थे और समाज के कल्याण के लिए आवश्यक थे। एक सम्यक
विचार को समाज के कल्याण हेतु प्रस्तुत करते हुए इस अध्याय के माध्यम से श्रीकृष्ण
यह संदेश दे रहे हैं कि जीवन एवं मरण शाश्वत सत्य है। इसे लेकर दुःख करना अनावश्यक
है। जो भी नष्ट होता है वह परमात्मा की इच्छा से होता है अतः उसके लिए शोक नहीं
करना चाहिए। मनुष्य को स्थितप्रज्ञ बनकर जीवन को निरपेक्ष भाव से देखना एवं जीना
चाहिए। यहाँ जो उद्देश्य निहित है वह है कि कर्मक्षेत्र में निष्ठापूर्वक समभाव
कर्म करना ही सच्चा ज्ञान है। यही ज्ञान उद्धारक है। असल में वर्णाश्रम निहित कर्म
ही प्रत्येक मनुष्य का प्रथम धर्म है। और संक्षेप में कहा जाए तो आत्मतत्त्व को
भली-भाँति समझकर निर्लिप्त भाव से कर्म करना ही सांख्ययोग है।
विश्वजीत 'सपन'