Tuesday, October 2, 2018

महाभारत की लोककथा - भाग 52


महाभारत की कथा में 77वीं कड़ी में प्रस्तुत एक और महाभारत की लोककथा।

ऋष्यशृंग का जीवन-चरित

प्राचीन काल की बात है। ऋष्यशृंग नामक एक मुनि हुए। उनका जन्म एक मृगी के उदर से हुआ था। उनके सिर पर एक सींग था, अतः वे ऋष्यशृंग के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अपने पिता ब्रह्मर्षि विभाण्डक के अतिरिक्त किसी को न देखा था, अतः उनका मन सदैव ब्रह्मचर्य में स्थित रहता था। वे अपने पिता के आश्रम में वन में रहते थे, किन्तु बड़े ही महान् तप वाले थे।


उसी समय अंगदेश में लोमपाद नामक एक राजा थे। उन्होंने किसी ब्राह्मण को कुछ देने का प्रण लिया, किन्तु उसे निराश किया, तो उनके राज्य में वर्षा नहीं होती थी। प्रजा हाहाकार कर रही थी। राजा ने तपस्वी ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा - ‘‘हमारे राज्य में वर्षा नहीं होती। आपलोग इसका कुछ उपाय बतायें।’’


ब्राह्मणों ने कहा - ‘‘राजन्, ब्राह्मण आप पर कुपित हैं, अतः प्रायश्चित्त कीजिये। एक तपस्वी मुनि कुमार ऋष्यशृंग हैं, उन्हें किसी प्रकार राज्य में लाइये। उनके चरण पड़ते ही वर्षा होने लगेगी, किन्तु ध्यान रहे कि उनको स्त्री जाति का कुछ भी पता नहीं है।’’


राजा लोमपाद ने पहले प्रायश्चित्त किया तथा उसके पश्चात् ऋष्यशृंग को राज्य में लाने के उपायों के लिय अपने मंत्रियों आदि से परामर्श किया। विचार कर उन्होंने राज्य की प्रधान गणिकाओं को बुलाकर कहा - ‘‘आपलोग किसी भी प्रकार उपायकर ऋष्यशृंग को इस राज्य में लाइये। आपको जो चाहिये वो मिलेगा।’’


एक वृद्धा गणिका ने कहा - ‘‘राजन्, मैं यह प्रयास अवश्य करूँगी, किन्तु जिन-जिन सामग्रियों की मुझे आवश्यकता होगी, उन्हें प्रदान करना होगा।’’


राजा ने अपनी सहमति प्रदान कर दी। तब उस वृद्धा ने अपनी बुद्धि से एक सुन्दर नौका का निर्माण किया। उसमें एक आश्रम बनाया, जो वास्तव के आश्रम के समान ही वनों एवं उपवनों से सजा हुआ था। उसे ले जाकर उसने विभाण्डक मुनि के आश्रम के निकट जाकर बँधवा दिया। उसके उपरान्त उसने गुप्तचरों से पता लगवाया कि मुनि कब आश्रम में नहीं रहते हैं। एक दिन जब मुनि आश्रम में नहीं थे, तब उसने अपनी सुन्दर पुत्री को मुनि कुमार के पास भेजा।


वह गणिका-पुत्री उनके पास जाकर, उन्हें प्रणामकर बोली - ‘‘मुनिवर, यहाँ सभी आनन्द में तो हैं। आपको कोई कष्ट तो नहीं है?’’


ऋष्यशृंग ने कहा - ‘‘आपकी कान्ति अनुपम है। आप पहले इस मृगचर्म से ढके हुए कुश के आसन पर विराजिये। आपको जल देता हूँ। यहाँ सब ठीक है। आपका आश्रम कहाँ है?’’


गणिका बोली - ‘‘मेरा आश्रम इस पर्वत के पीछे तीन योजन दूर है। मैं किसी को प्रणाम करने नहीं देता तथा न ही किसी का स्पर्श किया हुआ कुछ लेता हूँ। मैं प्रणम्य नहीं, बल्कि आप मेरे वंद्य हैं।’’


ऋष्यशृंग ने तब कहा - ‘‘ऐसा है, तो आप अपनी रुचि के अुनसार ही कुछ ग्रहण करें।’’


उस गणिका ने उनका दिया कुछ भी स्वीकार न किया, बल्कि अपने पास से लायी स्वादिष्ट, रसीले पदार्थ उनको दिये। बड़े सुन्दर-सुन्दर, चमकीले वस्त्र, मालायें एवं शरबत आदि दिये। ऋष्यशृंग को वे बड़े पसंद आये। तब उस गणिका ने नाना प्रकार से उन्हें लुभाया और उनके मन में विकार उत्पन्न कर दिया। जब वह समझ गयी कि मुनि कुमार अब उन्हें चाहने लगे हैं, तो वह अग्निहोत्र का बहाना कर वहाँ से चली गयी। कुछ समय के पश्चात् मुनि विभाण्डक आये, तो उन्हें मुनि कुमार को अपने चित्त के विपरीत पाया। उन्होंने पूछा - ‘‘क्या बात है, पुत्र। आज अग्निहोत्र का कार्य भी सम्पादित नहीं हुआ। तुम्हारा मन अचेत-सा है। कुछ परेशान-से हो। क्या बात है?’’


ऋष्यशृंग ने कहा - ‘‘पिताश्री, आज आश्रम में एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह बड़ा ही तेजस्वी था। उसके गले में अनेक प्रकार के मनोरम आभूषण थे। गले की नीचे दो मांसपिण्ड थे। वह रोमहीन एवं मनोहर था। उसका स्वरूप विचित्र, किन्तु मनभावन था। उसकी वाणी बड़ी सुरीली और मीठी थी। उसने मुझे सुन्दर-सुन्दर व्यंजन खाने को दिये। वह चला गया, तो मन विचलित हुआ। मैं चाहता हूँ कि शीघ्र ही उसके पास जाऊँ और उसे यहाँ लाकर अपने पास रखूँ।’’


विभाण्डक समझ गये कि या तो वह राक्षस था अथवा कोई स्त्री। उन्होंने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा - ‘‘पुत्र, ये राक्षस होते हैं, जो इस प्रकार के रूप धारण करते हैं। उनके पेय मनुष्यों के लिये नहीं होते। इनसे मत मिलना।’’


इतना कहने के उपरान्त भी मुनि निश्चिंत न हो सके और उनकी खोज में गये। कई दिनों तक ढूँढने के बाद भी उनका पता न चला, तो आश्रम लौट आये। फिर एक दिन उन्हें फल-फूल लेने के लिये आश्रम से बाहर जाना पड़ा। उसी समय का लाभ उठाकर वह गणिका पुनः मुनि कुमार के पास आयी। ऋष्यशृंग उसे देखकर प्रसन्न हो गये और बोले - ‘‘देखो, जब तक पिताजी आते हैं, उससे पहले ही हम तुम्हारे आश्रम चलेंगे।’’


गणिका यही चाहती थी। वह उन्हें लेकर अपनी नाव में गयी। फिर नाना प्रकार से उनका मनोरंजन करते हुए उन्हें लोमपाद के नगर लेकर चली गयी। अंगराज ने उन्हें प्रणाम किया और अपने अन्तःपुर में ले गये। इतने में ही वर्षा प्रारम्भ हो गयी। सारे तलाब जलमग्न हो गये। राजा अत्यधिक प्रसन्न हो गये और उन्होंने अपनी पुत्री शान्ता से मुनि कुमार का विवाह करवा दिया।


उधर मुनि विभाण्डक अपने आश्रम पहुँचे, तो उन्हें अपना पुत्र दिखाई न दिया। वे क्रोधित हो गये। अंगराज का षड्यन्त्र जानकर उन्हें भस्म करने के विचार से चम्पानगरी की ओर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते जब वे थक गये और उन्हें भूख भी सताने लगी, तो वहीं उन्होंने कुछ ग्वालों को देखा। वे उनके पास गये, तो उन ग्वालों ने उनकी बड़ी सेवा की। उन्हें राजा के समान मान-सम्मान दिया। मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा - ‘‘इतनी सेवा क्यों? तुम तो मुझे जानते भी नहीं। तुमलोग किनके सेवक हो?’’


ग्वालों ने उन्हें प्रणामकर कहा - ‘‘मुनिवर, यह सब आपके पुत्र की ही सम्पत्ति है। हम उनके ही सेवक हैं।’’


इस प्रकार चम्पानगरी के मार्ग में वे अनेक स्थलों पर रुके और प्रत्येक स्थल पर उनका स्वागत-सत्कार हुआ। अपने पुत्र के सन्दर्भ में उन्हें अनेक मधुर वाक्य सुनने को मिले, तो उनका कोप शान्त हो गया। 


अनेक दिनों की यात्रा के बाद वे चम्पानगरी पहुँचे, तो राजा लोमपद ने उनका विधिवत् पूजन किया। उन्होंने देखा कि देवराज इन्द्र की भाँति उनके पुत्र की सेवा है और उसका रहन-सहन है। साथ ही उन्होंने जब अपनी सुन्दर पुत्रवधू को देखा, तो उनका रहा-सहा क्रोध भी जाता रहा। मुनि विभाण्डक ने समझ लिया कि यह अवश्य ही विधि का विधान था। वे चलते समय अपने पुत्र से बोले - ‘‘पुत्र, तुम सुख से रहो, किन्तु जब तुम्हारे पुत्र उत्पन्न हो जायें, तब राजा का सब प्रकार से मान रखकर वन में चले आना।’’

ऋष्यशृंग ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। शान्ता भी सब प्रकार से अपने पति के अनुकूल आचरण करने वाली थी। वह भी वन में रहकर अपने पति की सेवा करने लगी।


- विश्वजीत 'सपन'

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