Sunday, October 21, 2018
महाभारत की लोककथा भाग-55
महाभारत की कथा की 80वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
श्रुतावती की तपस्या
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प्राचीन काल की बात है। भरद्वाज की एक रूपमती कन्या थी। उसका नाम श्रुतावती था। उसने मन ही मन इन्द्र को अपना पति मान लिया था। फिर उसने इन्द्र को पति के रूप में पाने के लिये बड़ी उग्र तपस्या की। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अत्यन्त ही कठोर नियमादि का पालन करने लगी। अनेक वर्षों की उसकी इस भक्ति और तप को देखकर देवराज इन्द्र प्रसन्न हो गये। उन्होंने श्रुतावती को दर्शन दिया और बोले - ‘‘शुभे! मैं तुम्हारी तपस्या एवं भक्ति से प्रसन्न हूँ। बोलो तुम्हें क्या वर चाहिये?’’
श्रुतावती ने कहा - ‘‘देवेश! मुझे आपकी अर्द्धांगिनी बनने का सौभाग्य प्राप्त करना है। इस वर की पूर्ति हेतु आपसे प्रार्थना है।’’
इन्द्र ने कहा - ‘‘देवि! तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। इस शरीर का त्याग कर तुम मेरे साथ स्वर्ग में निवास करोगी। तुम जानती हो कि इस बदरपाचन नामक पवित्र तीर्थ में अरुन्धती सप्तर्षियों के साथ रहा करती थी। एक दिन सप्तर्षि उसे अकेला छोड़कर जीविका निर्वाहन हेतु फल-फूल लाने के लिये हिमालय पर चले गये। वहाँ उन्हें जब कुछ भी न मिला तो वे वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय इस स्थल पर बारह वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। तब अरुन्धती तपस्या में संलग्न रहने लगी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर उससे मिलने एक ब्राह्मण के वेष में आये।’’
शंकर बोले - ‘‘हे देवि! मैं भिक्षा लेने आया हूँ। कुछ खाने को मिलेगा?’’
अरुन्धती ने कहा - ‘‘विप्रवर! अन्न तो समाप्त हो चुका है। मात्र कुछ बेर ही रह गये हैं, यदि आपकी इच्छा है, तो इन्हें खा सकते हैं।’’
शंकर ने कहा - ‘‘ठीक है देवि, जैसा तुम कहो। ऐसा करो कि इन फलों को पकाकर मुझे दो।’’
अरुन्धती ने तब प्रज्वलित अग्नि पर बेरों को पकाना प्रारंभ किया। उसी समय उसे पवित्र एवं दिव्य कथायें सुनाई देने लगीं। वह बिना कुछ खाये ही उन बेरों को पकाती रही और कथायें सुनती रही। सहसा बारह वर्षों की वह अनावृष्टि समाप्त हो गयी। इतना अधिक समय बीत गया, किन्तु उसे वह एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। तब तक सप्तर्षि भी फल-फूल लेकर लौट आये।
शंकर भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा - ‘‘हे धर्म को जानने वाली देवि, अब तुम पूर्व की भाँति इन ऋषियों की सेवा करो। तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूँ।’’
यह कहकर शंकर जी ने स्वयं को प्रकट कर दिया। मुनियों सहित अरुन्धती ने उन्हें विधिवत प्रणाम किया तो वे मुनियों से बोले - ‘‘मुनिवर, आप लोगों ने हिमालय में रहकर जिस तप का उपार्जन किया है, अरुन्धती ने यहीं रहकर कर लिया, और तो और उसने बारह वर्षों तक बिना कुछ खाये, बेर पकाते हुए यह कठिन तप किया है, उसका तप आपसे भी श्रेष्ठ है।’’
उसके पश्चात् भगवान् शंकर ने अरुन्धती से कहा - ‘‘हे देवि, तुम्हारा कल्याण हो। यदि तुम्हारी कोई मनोकामना हो, तो बोलो। मैं तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करूँगा।’’
अरुन्धती ने कहा - ‘‘हे देवों के देव महादेव, यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो यह स्थान बदरपाचन तीर्थ हो जाये। जो भी मनुष्य इस स्थल पर पवित्रतापूर्वक तीन रात्रि तक निवास तथा उपवास करे, उसे बारह वर्षों के तीर्थ सेवन का फल प्राप्त हो।’’
शंकर भगवान् ने कहा - ‘‘ऐसा ही होगा देवि।’’
फिर सप्तर्षियों ने शंकर की स्तुति की और वे अपने धाम चले गये। अरुन्धती इतने वर्षों तक भूखी-प्यासी रही, किन्तु न तो वह थकी और न ही मुख मलिन हुआ। ऋषिगण भी यह देखकर आश्चर्य कर रहे थे।
‘‘तो देवि, यहीं पर अरुन्धती को परम सिद्धि प्राप्ति हुई थी, तुमने भी अरुन्धती की भाँति ही तप का पालन किया है, अतः तुम्हारे सभी मनोरथ अवश्य पूर्ण होंगे।’’
ऐसा कहकर इन्द्र अपने धाम को चले गये। उनके जाते ही वहाँ फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं की दुन्दुभी बज उठी। सुगन्धित वायु चलने लगी। उसी समय श्रुतावती ने देह त्याग कर दिया और स्वर्ग में इन्द्र की पत्नी के रूप में रहने लगी।
कहते हैं कि जो भी बदरपाचन तीर्थ में स्नान करके तथा एकाग्रचित्त होकर एक रात्रि निवास करता है, उसे देह त्याग करने के पश्चात् दुर्लभ लोकों की प्राप्ति होती है।
विश्वजीत 'सपन'
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Ye badarpachan tirth kahan hai ?
ReplyDeleteऐसी मान्यता है कि यह तीर्थ सरस्वती नदी के तट पर था।
ReplyDeleteAb is tirth ko kis name se jana jata he
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