Thursday, December 20, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 63)




महाभारत की कथा की 88वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
(शान्तिपर्व)


दण्डनीति का उद्भव एवं विकास

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    प्राचीन काल की बात है। वह सत्ययुग था। सत्ययुग के प्रारंभ में राज्य अथवा राजा नहीं होते थे, क्योंकि तब कोई अपराध ही नहीं होते थे। एक समय आया जब प्रजा मोह में पड़ गयी। तब उनका विवेक भी भ्रष्ट हो गया। वे कर्तव्य एवं अकर्तव्य का विभेद करने में अक्षम हो गये। धर्म का पतन हो जाने से वेद भी लुप्त होने लगे। समस्त संसार में भय का वातावरण उत्पन्न हो गया। ऐसी स्थिति को देखकर देवतागण को बड़ा कष्ट हुआ। वे ब्रह्मा के पास गये और उनसे कहा - ‘‘भगवन्! मनुष्य लोक में पतन का द्वार खुल गया है। वेद आदि नष्ट होते जा रहे हैं। अधर्म का बोलबाला होता जा रहा है। धर्म संकट में है। ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा कैसे हो? आप ही कुछ उपाय कीजिये, अन्यथा सब-कुछ नष्ट हो जायेगा।’’


    ब्रह्मा ने कहा - ‘‘देवगण! आप भयभीत न हों। यह समय का चक्र है। यह घूमता ही रहता है। आप लोग थोड़ी देर रुकें, मैं कुछ न कुछ उपाय करता हूँ।’’


    उसके उपरान्त ब्रह्मा ने अपनी बुद्धि से एक लाख अध्यायों का एक नीतिशास्त्र रचा। उसमें धर्म, अर्थ एवं काम का वर्णन था, अतः उसका नाम ‘‘त्रिवर्ग’’ रखा गया। इस शास्त्र में साम, दाम, दण्ड, भेद एवं उपेक्षा का वर्णन सविस्तार किया गया। इस नीतिशास्त्र में वह सब-कुछ था, जो एक प्रजापालन में सम्मिलित होना चाहिये। 


    नीतिशास्त्र की रचना करने के उपरान्त ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘देवगण, यह दण्डनीति तीनों लोकों में व्याप्त है। इसी से राज्यव्यवस्था चलती है। इसी से पृथ्वी की कल्याण संभव है। आपलोग इसको ग्रहण करें।’’


    किन्तु वह शास्त्र बड़ा विशाल था। उसका अध्ययन भी कठिन था। देवगण पुनः कठिनाई में थे। उनकी चिंता देखकर भगवान् शंकर ने सर्वप्रथम उस शास्त्र को ग्रहण किया तथा जीवों की घटती आयु को देखते हुए उसे संक्षिप्त किया। तब वह ग्रन्थ ‘वैशालाक्ष’ कहलाया। इसमें दस हज़ार अध्याय थे। पुनः इसे इन्द्र ने ग्रहण किया एवं संक्षिप्त किया। तब इसमें पाँच हज़ार अध्याय रहे गये तथा यह ‘बाहुदन्तक’ कहलाया। तब बृहस्पति जी ने तीन हज़ार अध्यायों तक इसे संक्षिप्त किया तथा वह ‘बार्हस्पत्य’ कहलाया। इसके बाद योगाचार्य गुरु शुक्राचार्य ने इसे संक्षिप्त कर मात्र एक हज़ार अध्यायों का कर दिया। पुनः मनुष्यों की आयु को ध्यान में रखते हुए महर्षियों ने एक छोटा-सा ग्रन्थ बना दिया, जो मनुष्य हेतु प्राप्य एवं प्रजापलन में सहायक हो। यही शास्त्र दण्डनीति कहलाया।


    इसके पश्चात् मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से राजा अंग के द्वारा वेन का जन्म हुआ। वह दुराचारी ही रहा। वह राग-द्वेष के अधीन अधर्म करने लगा। तब वेदवादी मुनियों ने उसे अभिमन्त्रित कुशाओं से मार डाला। उसके मरते ही कोई प्रजापालक न रहा। इससे और भी अधिक समस्या उपस्थित हो गयी। इस स्थिति को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। उससे इन्द्र के समान तेज वाला वेनपुत्र उत्पन्न हुआ। वह वेद-वेदांगों का ज्ञाता था तथा सभी विद्याओं में पारंगत था। उसका नाम पृथु रखा गया।


    पृथु ने मुनियों से कहा - ‘‘मुनिगण, मुझे धर्म एवं अर्थ के निर्णय की सूक्ष्म बुद्धि है। आपने मुझे जन्म दिया, तो अवश्य ही कोई विशेष कार्य होगा। मुझे बताइये कि मुझे अब क्या करना चाहिये?’’


    मुनियों ने कहा - ‘‘तुम्हें धर्म का पालन करना है और उसे धरती पर पुनः स्थापित करना है। जिस कार्य में धर्म की स्थिति जान पड़े उसे निःशंक करो। सभी जीवों के प्रति समान भाव रखो। जो मनुष्य धर्म से विलग होता दिखाई दे, उसका दमन करो।’’


    पृथु ने कहा - ‘‘मुनिगण, ब्राह्मण तो सर्वदा वन्दनीय हैं, अतः उन्हें छोड़कर मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।’’


    मुनियों ने मान लिया और पृथु ने अपना कार्य आरम्भ कर दिया। तब पृथ्वी बड़ी ऊँची-नीची थी। पृथु ने पत्थर, मिट्टी आदि डलवाकर उसे समतल किया। सभी देवताओं ने मिलकर पृथु का अभिषेक किया। स्वयं पृथ्वी उनकी सभा में उपस्थित हुई थी। पृथु के संकल्प से करोड़ों हाथी, घोड़े, रथ, पैदल आदि उत्पन्न हो गये। सभी जीवों का भय समाप्त हो गया। वे प्रसन्न होकर अपना जीवन जीने लगे। पृथु ने दण्डनीति का सुन्दर अनुपालन किया और धरती को स्वर्ग बना दिया। उन्होंने समस्त प्रजा का ‘रंजन’ किया एवं इसी कारण उन्हें प्रथम ‘राजा’ होने का गौरव प्राप्त हुआ। ब्राह्मणों का क्षति से त्राण किया, इस कारण वे ‘क्षत्रिय’ कहलाये। उन्होंने धर्मानुसार भूमि को प्रथित (पालित) किया और इसी कारण धरती का नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा। 


    उनके शरीर में स्वयं भगवान् विष्णु का आवेश था, अतः सारा संसार उन्हें देवता की भाँति मानकर उनका सम्मान करता था। उन्होंने पहली बार पृथ्वी पर दण्डनीति का पालन किया और समस्त संसार को भयमुक्त किया।


    कहते हैं कि सभी राजा को गुप्तचरों द्वारा दृष्टि रखते हुए दण्डनीति का पालन करना चाहिये। राजा के दण्ड का बड़ा महत्त्व होता है, क्योंकि उसी के कारण समस्त राष्ट्र में नीति एवं न्याय का आचरण होता है। 


विश्वजीत 'सपन'

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