Monday, December 10, 2018
महाभारत की लोककथा (भाग - 62)
महाभारत की कथा की 87वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
परशुराम का जीवन-चरित
प्राचीन काल में जह्नु नामक एक राजा हुए। उनके पुत्र का नाम था अज। अज से बलाकाश्व का जन्म हुआ। बलाकाश्व के पुत्र कुशिक बड़े धर्मज्ञ हुए। उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या की। तब स्वयं इन्द्र ही उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुए एवं उनका नाम पड़ा गाधि। गाधि के कोई पुत्र न था, एक पुत्री हुई, जिसका नाम था सत्यवती। सत्यवती शुद्ध आचरण वाली तपस्विनी स्त्री थी। उसके इस प्रकार के व्यवहार को देखते हुए गाधि ने उसका विवाह मुनि ऋचीक से कर दिया।
मुनि ऋचीक को पता था कि गाधि एवं सत्यवती दोनों को पुत्र प्राप्ति की इच्छा थी। इसको ध्यान में रखते हुए एक दिन उन्होंने राजा गाधि एवं सत्यवती को संतान देने के लिये चरु तैयार किये। सत्यवती को बुलाकर चरु देते हुए उन्होंने कहा - ‘‘देवि! यह दो प्रकार का चरु है। इसमें से यह तुम ले लेना और दूसरा अपनी माँ को दे देना। तुम्हारी माता को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी, जो बड़े-बड़े क्षत्रियों का संहार करेगा। तुम्हें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण बालक की प्राप्ति होगी, जो तपस्वी एवं धैर्यवान् होगा।’’
ऋचीक मुनि ऐसा कहकर वन को चले गये। तभी तीर्थयात्रा को निकले गाधि अपनी पत्नी सहित ऋचीक के आश्रम पर आये। सत्यवती ने अपनी माता को चरु के बारे में बताया, किन्तु भूलवश चरु बदल गये और उन दोनों के एक-दूसरे के लिये दिये चरु को खा लिया। कुछ समय उपरान्त दोनों को गर्भ ठहर गया। सत्यवती के गर्भ को देखते ही ऋचीक ने पहचान लिया कि चरु खाने में भूल हुई है, वे अपनी पत्नी से बोले - ‘‘यह तो अनुचित हुआ प्रिये, मैंने तुम्हारे चरु में ब्राह्मण का तेज स्थापित किया था, किन्तु अब तुम्हारा पुत्र क्षत्रिय उत्पन्न होगा।’’
सत्यवती बोली - ‘‘भगवन्! ऐसा न कहिये। मुझे तो ब्राह्मण पुत्र ही चाहिये।’’
ऋचीक ने कहा - ‘‘मैंने ऐसा संकल्प नहीं किया था, किन्तु चरु के बदल जाने से ऐसा ही होगा।’’
सत्यवती बोली - ‘‘मुनिवर! आप तो इच्छा करते ही सृष्टि रच सकते हैं। कोई उपाय कर मुझे शान्त पुत्र ही दीजिये, चाहे मेरा पौत्र उग्र स्वभाव का क्यों न हो।’’
ऋचीक ने कहा - ‘‘तो फिर ठीक है, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही होगा। मैं ऐसा ही वरदान तुम्हें देता हूँ।’’
उसके बाद ऋचीक मुनि के ऐसा संकल्प करने से सत्यवती ने जमदग्नि मुनि को जन्म दिया और राजा गाधि के यहाँ विश्वामित्र पैदा हुए।
विश्वामित्र में ब्राह्मण के गुण हुए और उन्होंने चरु के प्रभाव के कारण ही अंततः ब्राह्मणत्व की प्राप्ति भी की थी। उधर जमदग्नि ने पुत्र अर्थात् सत्यवती के पौत्र परशुराम हुए। उनका स्वभाग उग्र था तथा वे सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता हुए।
जब परशुराम बड़े हुए, तब हैहयवंशी क्षत्रियों का स्वामी अर्जुन नामक एक राजा था। अर्जुन राजा कृतवीर्य का पुत्र था। वह बड़ा पराक्रमी था, किन्तु थोड़ा घमण्डी भी था। उसने अश्वमेध यज्ञ से सम्पूर्ण पृथ्वी जीती और उसे ब्राह्मणों को दान में दे दी। उसने दत्तात्रेय की कृपा से सहस्र भुजायें प्राप्त कीं। एक बार अग्नि के भिक्षा माँगने पर उसने अपनी भुजाओं के पराक्रम को बताते हुए उन्हें भिक्षा दी। कुपित अग्नि ने उसके बाणों के अग्रभाग से निकलकर अनेक गाँवों, नगरों आदि का जला दिया। इस आग ने आपव मुनि का आश्रम भी जला दिया। तब कुपित होकर आपव मुनि ने उसे शाप देते हुए कहा - ‘‘तुम्हें जिन भुजाओं पर घमण्ड है, उसका नाश होगा, उन्हें संग्राम में परशुराम जी काट डालेंगे।’’
अर्जुन के पुत्र बड़े बली थे, किन्तु मूर्ख भी थे। वे घमण्डी एवं क्रूर भी थे। एक दिन वे जमदग्नि के आश्रम के पास से निकल रहे थे। उन्होंने उनकी गाय के बछड़े को चुरा लिया। उस बछड़े के लिये बड़ा भयंकर युद्ध हुआ और उस युद्ध में परशुराम ने अर्जुन की भुजाओं को काट दिया। फिर वे बछड़े को लेकर अपने आश्रम चले गये।
अर्जुन के पुत्र भी चुप रहने वालों में से न थे। एक दिन अवसर पाकर जब परशुराम आश्रम में न थे तथा कुश एवं समिधा लाने वन गये हुए थे, तब अर्जुन के पुत्रों ने जगदग्नि का सिर काटकर उनका वध कर दिया। पिता के वध से क्रोधित होकर परशुराम ने क्षत्रियों के विनाश का संकल्प लिया और अस्त्र उठा लिये। सर्वप्रथम उन्होंने हैहयवंशियों पर आक्रमण किया एवं उन्हें समूल नष्ट कर दिया। इसके बाद भी कुछ क्षत्रिय बच गये थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना पराक्रम बढ़ाया। जैसे ही परशुराम जी को यह पता चला तो उन्होंने पुनः शस्त्र उठाये एवं क्षत्रियों के बालकों तक को मार दिया। अब क्षत्रिय मात्र गर्भ में ही बचे थे। वे बच्चे भी जब जन्म लेते थे, तो उनका पता लगाकर वे उनका भी वध कर देते थे। इस प्रकार इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार करके उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया तथा सम्पूर्ण पृथ्वी को कश्यप जी को दान में दे दी। तब क्षत्रियों की रक्षा करने के उद्देश्य से कश्यप ने परशुराम से कहा - ‘‘परशुराम, तुमने अपना कार्य सम्पन्न कर लिया। तुम अब दक्षिण समुद्र के किनारे चले जाओ और मेरे राज्य में कभी निवास न करना।’’
परशुराम वहाँ से चले गये और समुद्र ने उनके लिये स्थान खाली किया, जो शूर्पारक देश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे अपरान्त भूमि भी कहते हैं।
विश्वजीत ‘सपन’
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment