Friday, December 28, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 64)



महाभारत की कथा की 89वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 
राजधर्म का महत्त्व
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    पूर्व काल की बात है। मन्धाता नामक एक राजा था। वह बड़ा गुणवान् और तपस्वी था। श्री नारायण के दर्शन की उसे अभिलाषा थी। वह संन्यास ग्रहण करना चाहता था। इसी उद्देश्य को लेकर उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त कर उसने भगवान् विष्णु के दर्शन की इच्छा से अपना ध्यान उनमें लगा दिया। तब भगवान् प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र का रूप धारण कर उसे दर्शन दिये। मन्धाता ने इन्द्ररूपी विष्णु का विधिवत पूजन किया तब इन्द्र बोले - ‘‘राजन्! तुमने बड़ी श्रद्धा एवं निष्ठा से यज्ञ किया और हमारा पूजन भी। तुम मानव-जाति के राजा हो। अवश्य तुम्हारी मनोकामनायें होंगी। मैं तुम पर बड़ा प्रसन्न हूँ। माँगो, जो भी वर माँगना चाहते हो, मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा।’’


    मन्धाता की जैसे सभी इच्छायें पूर्ण हो गयीं। उसे तो भगवान् विष्णु का दर्शन करना था तथा संन्यास ग्रहण करना था। उसने कहा - ‘‘भगवन्! अब आपसे क्या छुपाना। मैं सिर झुकाकर आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि मुझे भगवान् विष्णु के दर्शन करा दें। मुझे अब भोगों से कुछ भी लगाव न रहा। मैं अब वन गमन करता चाहता हूँ। मेरी प्रवृत्ति आदिदेव श्रीविष्णु में हो गयी है। अब उनके अनुसार ही चलना चाहता हूँ। बस इतनी कृपा कर दीजिये।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘राजन्! तुम तो राजधर्म त्यागने की बात कर रहे हो, जबकि राजधर्म तो स्वयं श्रीविष्णु से ही प्रवृत्त हुआ है। दूसरे सभी धर्म तो उसी के अंग हैं। असल में सभी धर्मों का अन्तर्भाव क्षात्रधर्म में ही हो जाता है। श्रीविष्णु ने क्षात्रधर्म के द्वारा ही शत्रुओं का दमन करके देवताओं एवं ऋषियों की रक्षा की थी। यदि वे ऐसा न करते तो ब्राह्मणों का नाश होने से पृथ्वी पर चारों वर्णों का लोप हो जाता। संसार में इन धर्मों का अनेक बार लोप हुआ है तथा इसी क्षात्रधर्म के द्वारा इनका उत्थान होता आया है। 


    राजन्! तुम जैसे लोक-हितैषी पुरुषों को सर्वथा क्षात्रधर्म का पालन करना चाहिये, अन्यथा प्रजा नष्ट हो जायेगी, कर्तव्य-विहीन हो जायेगी। राजा अपनी प्रजा का पुत्रों के समान देखभाल करता है, अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इसी कारण समस्त प्राणी निर्भय होकर रहते हैं। इस संसार में क्षात्रधर्म ही श्रेष्ठ है, यह सब जीवों का उपकार करने वाला तथा मोक्ष का साधन है। एक राजा का कर्तव्य अपने राजधर्म का पालन करना ही होता है।’’


    मन्धाता को बात में समझ आ गयी। उसने निर्णय लिया कि वह अपने कर्तव्यों से विमुख न होगा। अब उसे अपने कर्तव्य को करने में जो शंकायें थीं, उनका निदान जानना चाहता था। उसने अपनी शंका का समाधान करने के लिये पूछा - ‘‘देवराज! मेरे राज्य में अनेक जातियों के लोग हैं। उन्हें अपने धर्मों का पालन करने के लिये क्या-क्या करना चाहिये?’’ 


इन्द्र ने कहा - ‘‘प्रजापति ने सब प्रकार के मनुष्यों के लिये, सभी जातियों एवं वर्णों के लिये कर्तव्य पूर्व से ही निश्चित कर दिये हैं, उन सभी को उसी प्रकार आचरण करना चाहिये। उन्हें कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिये।’’


मन्धाता ने पूछा - ‘‘देवराज! अनेक लोग हैं जो लूट-पाट करते हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये?’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘जो लोग लूट-पाट करके जीविका चलाते हैं, उनसे माता-पिता, गुरुओं, आश्रमवासियों आदि की सेवा करवानी चाहिये। उनसे धर्म-कर्म एवं पितृश्राद्ध कराने चाहिये, आश्रम आदि बनवाने चाहिये। उन्हें उचित मार्ग पर लाने के प्रयास करने चाहिये।’’


    मन्धाता ने कहा - ‘‘देवेश! मानव-समाज में दस्यु सभी वर्णों एवं आश्रमों में पाये जाते हैं। वे छुपे रहते हैं। उनके लिये क्या उपाय हैं?’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘राजन्! जब दण्डनीति नष्ट हो जाती है, तब सभी प्राणी कर्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं। राजा लोगों का कर्तव्य है कि वे दण्डनीति द्वारा पापियों को रोकें तथा उन्हें उचित मार्ग पर लायें। इसी कारण राजा का दायित्व सबसे महान् होता है। इसी कारण वे लोक में सम्मान पाते हैं। इस प्रकार तुम वन जाने का विचार त्याग दो तथा क्षात्रधर्म में अपना मन लगाओ। यही तुम्हारे लिये सबसे बड़ा कल्याणकारी मार्ग है।’’


    इस इन्द्ररूपी भगवान् विष्णु ने मन्धाता को क्षात्रधर्म पालन करने का उपदेश दिया तथा वे अपने धाम चले गये। राजा मन्धाता पर इस उपदेश का बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने पूरी निष्ठा से क्षात्रधर्म का पालन किया तथा वह एक प्रजापालक राजा के रूप में विख्यात हुआ।


    शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास, इन तीनों आश्रमों के धर्मों का गृहस्थ धर्म में अन्तर्भाव हो जाता है तथा क्षत्रिय के धर्म तीनों वर्णों के आश्रय हैं, क्योंकि समस्त लोक तथा पुण्यकर्मों का आधार राजधर्म ही है।


विश्वजीत 'सपन'

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