‘‘मुनि का संकल्प’’
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महाभारत की कथा की 55वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
प्राचीन काल में मुनि गौतम के तीन पुत्रों में एकत और द्वित उतने प्रतिभावान नहीं थे। त्रित बड़े सफल रहे, अतः धन के लोभ में वे दोनों भाई त्रित से छुटकारा पाने का उपाय सोचने लगे। त्रित ने यज्ञादि करके अनेक पशुओं का धन-संचय कर लिया था। ये दोनों भाई चाहते थे कि वह सारा धन इन्हें मिल जाये। दैवयोग से एक दिन वन में उन्हें ऐसा अवसर भी मिल गया। तब वे घर आकर सुख-चैन से रहने लगे। उधर त्रित ने सोमरस के अपने संकल्प को पूरा करने का निर्णय लिया। उसके बाद क्या हुआ इसे जानने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें अथवा चित्र में इस कथा को पढ़ें।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘मुनि का मूल्य’’
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महाभारत की कथा की 54वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
प्राचीन काल में च्यवन नामक मुनि ने जल में रहकर तप करने का निश्चय किया। एक दिन मल्लाहों ने उसी स्थल पर जाल फेंका जहाँ वे तप कर रहे थे। तब मछलियों आदि के साथ मुनि भी जाल में फँसकर बाहर आ गये। यह देख मल्लाह भयभीत हो गये। वे भागे-भागे अपने राजा के पास गये। उसके बाद क्या हुआ इसे जानने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें अथवा चित्र में इस कथा को पढ़ें।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘गुरु की शिक्षा और परीक्षा’’
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महाभारत की कथा की 51वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
प्राचीन काल में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत शिक्षा दी जाती थी। अनेक बार गुरु अपने शिष्य की परीक्षा लेते थे और उसमें भी शिक्षा छुपी होती थी। इस कथा में अयोद धौम्य ऋषि किस प्रकार अपने शिष्य उपमन्यु की परीक्षा लेते हैं और उसमें भी निरन्तर शिक्षा देते रहते हैं इसका एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘तप की महिमा’’ अंतिम भाग
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महाभारत की कथा की 50वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
यह कहानी एक ब्राह्मण की है, जो वेदाध्ययन कर स्वयं को ज्ञानवान मानता है। किन्तु जीवन के क्रम में उसे पता चलता है कि उसका ज्ञान अभी भी अधूरा है। वह इस अधूरे ज्ञान को पूर्ण करने की इच्छा में मिथिलानगरी जाता है। अब वह एक धर्मव्याध से मिलता है। बातों के क्रम में वह धर्मव्याध उसे जीवन के तप को करने का सुझाव देता है। वह तप क्या है?
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘तप की महिमा’’ (प्रथम भाग)
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महाभारत की कथा की 49वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
यह कहानी एक ब्राह्मण की है, जो वेदाध्ययन कर स्वयं को ज्ञानवान मानता है। किन्तु जीवन के क्रम में उसे पता चलता है कि उसका ज्ञान अभी भी अधूरा है। वह इस अधूरे ज्ञान को पूर्ण करने की इच्छा में मिथिलानगरी जाता है। उसे किस प्रकार इस ज्ञान की प्राप्ति होती है, इस कथा में बताया गया है। साथ वह क्या ज्ञान है, यह भी बताया गया है।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘गृहस्थ-धर्म की महिमा’’
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महाभारत की कथा की 48वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
हमारी संस्कृति में चार आश्रम बताये गये हैं - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण गृहस्थाश्रम को बताया गया है। यह असल में जीवन-कर्म करने का सबसे उपयुक्त समय बताया गया है। बिना इन कर्मों को किये जीवन के अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। इस कथा में इसी गृहस्थ-धर्म की महत्ता बतायी गयी है। बिना इसकी यात्रा किये सभी प्रकार के तप भी विफल माने गये हैं।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘अन्न-दान की महत्ता’’
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महाभारत की कथा की 47वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
हमारे शास्त्रों में न केवल दान की महत्ता है, बल्कि अन्न-दान की भी अत्यधिक महत्ता है। अपना जीवन सभी जीते हैं, किन्तु जो मनुष्य अपने से अधिक दूसरे के लिये जीता है, असल में वही मनुष्य कहलाने की योग्यता रखता है। इस कथा में एक ब्राह्मण और उसके परिवार की इस बड़े त्याग के बारे में बड़े ही रोचक ढंग से कथाकार ने बताया है। अतिथि के लिये अपने भोजन की वस्तुओं का पूर्णतः दान कर देना मात्र भारतीय संस्कृति में ही संभव है।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘क्षमादान ही महादान’’
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महाभारत की कथा की 46वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
एक बार शक्ति मुनि एवं कल्माषपाद के मध्य झगड़ा हो जाता है। राजा कल्माष्पाद ने क्रोध में आकर शक्ति मुनि को चाबुक दे मारा। मुनि ने उन्हें राक्षस बनने का शाप दे दिया। तब कल्माषपाद ने उन्हें ही खा लिया। मुनि के पुत्र पराशर ने उन्हें नष्ट करने का बीड़ा उठाया। उसके बाद क्या हुआ, यह जानने के लिये इस कथा को पढ़ें और देखें कि क्षमादान का महत्त्व हमारे शास्त्रों में कितना प्रबल है।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘धर्म का माहात्म्य’’
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महाभारत की कथा की 45वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
एक ब्राह्मण कुण्डधार की पूजा कर धन संपादित करने में असफल होने पर कुण्डधार से रुष्ट हो जाता है। उसे धन चाहिए था, किन्तु कुण्डधार ने उसके लिये धर्म को चुना। इससे वह ब्राह्मण बहुत दुःखी हो गया। जब कुण्डधार की कृपा से उसे दिव्य-दृष्टि मिली, तो उसने अनुभव किया कि कुण्डधार ने उसके लिये उचित किया था। ऐसा क्यों हुआ? इसे विस्तार में जानने के लिये यह कथा पढ़ें।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘ऋषियों का धर्म’’
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महाभारत की कथा की 44वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
एक बार अकाल पड़ जाने पर ऋषियों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें प्रलोभन भी दिया जाता है, किन्तु ऋषिगण अपने धर्म का पालन करते हैं और तब ईश्वर न केवल उनकी सहायता करते हैं, बल्कि संकट आने पर उनकी प्राण-रक्षा भी करते हैं। इसे विस्तार में जानने के लिये यह कथा पढ़ें।
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विश्वजीत ‘सपन’
‘‘मुनि उत्तंक की गुरु-भक्ति’’
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महाभारत की कथा की 43वीं कड़ी में प्रस्तुत एक लोककथा का द्वितीय एवं अंतिम भाग।
मुनि उत्तंक जब अपने गुरु गौतम से आज्ञा लेकर जाने लगे, तब उन्होंने गुरु दक्षिणा देने की बात की। गुरु ने गुरु दक्षिणा लेने से मना कर दिया। फिर वे गुरु-पत्नी के पास गये, तो उन्होंने भी गुरु दक्षिणा लेने से मना का दिया। तब उत्तंक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अवश्य कुछ न कुछ लें। तब गुरु-पत्नी उनसे मणिमय कुण्डल लाने को कहा। वे अपने गंतव्य पर पहुँच गये, किन्तु क्या उनके लिये यह आसान होगा। इसे विस्तार में जानने के लिये यह कथा पढ़ें।
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विश्वजीत ‘सपन’